गाँव की बेटी, सबकी बेटी का भाव

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मैं स्वभाव से बड़ा सहनशील जाना जाता था, और मैं था भी। पर एक बार मैं अपना आत्मनियंत्रण खो बैठा। गुजराती हरिजन मेरे पास आए और रोते-रोते कहा कि उनकी बेटी को कोई भगा ले गया है। मैं उस समय पढ़ाई समाप्त कर पार्टी में काम करता था। मुझे इस घटना से बहुत दुःख हुआ क्योंकि वह गाँव की मर्यादा का सवाल था। इसे सहन कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो सका। मैंने पता लगाना शुरू किया कि सही बात क्या है? कौन अपराध्ाी है? गुजराती ने किसी की ओर इंगित किया था। थोड़ी ही देर में सही बात सामने आ गई। उन्होंने अपनी बेटी को स्वयं ही बेच दिया था। मेरे क्रोध्ा की सीमा नहीं रही। सीध्ो उनके घर की ओर चला। रास्ते में एक हलवाहा हल चला रहा था। उससे बैलों को हांकने वाला पैना छीन लिया। गुजराती रास्ते में ही मिल गए, उन्हें उसी से कई बार मारा और उन्हें सीध्ो अपनी बेटी को वापस लाने के लिए भेजा। वह उभांव थाने के किसी गाँव में रह रही थी। चैकीदार साथ गया। मैंने उस थाने के थानेदार को चिट्ठी लिखी। वह लड़की शायद वापस आ गई। सारा गाँव इस घटना से अवाक् था। मैं स्वयं अपने इस व्यवहार से आश्चर्यचकित था कि मुझे इतना क्रोध्ा क्यों आया? बेचारे की गरीबी ने ऐसा करने पर विवश कर दिया होगा। ग्लानि हुई, पर गाँव की बेटी की मर्यादा पर आघात शायद मैं सहन नहीं कर सका। बहुत दिनों तक यह घटना मेरे मन पर छाई रही। बुजुर्गो से सुना था, गाँव की बेटी सबकी बेटी। कभी-कभी एकपक्षीय सोच मनुष्य को पागल बना देती है। मुझे याद नहीं कि कभी किसी अन्य के साथ मैंने ऐसा किया हो। मैंने यह सोचा भी नहीं था कि किसी मजबूरी में उसने यह किया होगा। हरिजन बस्ती के झगरू मेरे समवयस्क हैं। आज भी हमारे मित्र हैं। मंगरू हमारे यहाँ काम करते थे। वे नहीं रहे। पर इन लोगों का स्नेह बचपन से अंत तक बना रहा। पास के गाँव के लोग आते रहते थे। गरीबी थी, पर आपसी व्यवहार में एक अनुपम लगाव और ममत्व का भाव था। अब तो गाँव में वैसा कुछ नहीं रहा। सब लोग अपनी-अपनी समस्याओं में उलझे हुए हैं। अध्ािकतर गाँव की बेटी, सबकी बेटी का भाव ध् 317 318 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर लोग गाँव से बाहर हैं। चंद बूढ़े और बच्चे ही गाँव में रह गए हैं। पिछली बार जब गाँव गया था तो मुझे बताया गया कि कुछ ही लोग अब घर के बाहर मैदान में सोते है। अब ध्ाुआँ करके मच्छर से बचने का सवाल ही नहीं रहा। जो साध्ान-सम्पन्न हैं, वे बिजली के पंखे के नीचे सोते है। कुछ ऐसे हैं जो बिजली न रहने पर जनरेटर का इस्तेमाल करते हैं। पर आज भी अध्ािकतर वैसे ही हैं जो भगवान भरोसे रात काटते हैं। प्रारम्भिक प्राठशाला के बाद भीमपुरा के मिडिल स्कूल में पढ़ा था। आज भी उस स्कूल का भवन मौजूद है। लोगों ने चारों ओर से दुकानें बना कर उसे घेर लिया है। कितना मजबूत बना था भवन। उस ओर से गुजरते हुए याद आती है बचपन के उन दिनों की। याद आते हैं पंडित सीताराम पाण्डेय। कितना प्रभावकारी व्यक्तित्व था उनका गोरा-चिट्ठा, लम्बा कद और चेहरे पर प्रतिभा की चमक। जैसा उनका व्यक्तित्व था, उतने ही कुशल अध्यापक थे। जिध्ार से गुजरते थे, देखने वाले चकित रह जाते थे। वे मेरे गाँव के निकट छोटकी सुल्तानीपुर के थे। लोगों के बीच उनका बड़ा आदर था। अवकाश प्राप्त करने के बाद भी वे बहुत दिनों तक रहे। उनका सारा परिवार पढ़ा-लिखा था। सुना है, आज भी उस परिवार के लड़के बाहर रह कर कुछ कर रहे हैं। पास के उसुरी गाँव के शिवपूजन यादव मेरे बड़े घनिष्ठ मित्र थे। वे तो अब नहीं रहे, उनके परिवार के लोगों से आज भी वैसा ही घनिष्ठ संबंध्ा बना हुआ है। उसी गाँव के फेंकू तेली रामलीला के प्रमुख कार्यकर्ताओं में से थे। मेरे गाँव के नगीना बाबू रामलीला में जोकर का काम करते थे। रामलीला में जहाँ राम-भक्ति से अनुप्राणित भीड़ एकत्र होती थी, वहीं वह 15 दिनों तक लोगों के मनोरंजन का अच्छा साध्ान भी होता था। जब तक गाँव से बाहर पढ़ने के लिए नहीं गए, हम लोग बड़ी लगन से उस आयोजन में काम करते थे। उनमें न तो कोई शोर-शराबा और न ही कोई उद्दंडता होती थी- एक समर्पण का भाव, शलीनता और सद्भावना का माहौल। आज तो सरस्वती पूजन में भी दूसरा ही दृश्य दिखाई देता है। दुर्गा पूजा में गाँव में कितनी अभद्रता का प्रदर्शन होता है। यह गिरावट तेजी से बढ़ रही है। मऊ में हाई स्कूल में बहुत-से मित्र बने, कुछ अत्यंत मेध्ाावी और कुछ कला के माहिर। भुवनेश्वर राय का बहुत दिनों से पता नहीं। गणित में उन जैसा मेध्ाावी मिलना कठिन था। मार्कडेय सिंह (जो दिल्ली में बाद में राज्यपाल बने) अंग्रेजी भाषा में अत्यंत निपुण माने जाते थे और वे थे भी। उस समय जीवनराम हाईस्कूल में यह बात प्रचलित थी कि उन्हें सारी आॅक्सफोर्ड डिक्शनरी याद है। आज भी जब किसी तर्क में कमजोर पड़ते दिखाई देते हैं तो वे भोजपुरी से पल्ला झाड़ कर अंग्रेजी पर उतर आते हैं और उन्हें बरबस मुझे भोजपुरी की याद दिलानी पड़ती है। पहले अपनी जवानी का जोर दिखाने या उसका जिक्र चलाने के बारे में सदा जरूरत से ज्यादा सजग रहते थे, पर इध्ार कुछ ढीले पड़ गए हैं। यह देख कर चिन्ता होती है। ठाकुर साहब हैं दिलचस्प व्यक्ति। जब मैं काँग्रेस कार्यसमिति का सदस्य था तो कई बार मेरा फोटो इन्दिरा जी के साथ अखबारों में छपता था। वे उसे देख कर टिप्पणी किए बिना नहीं रहते थे। उस समय वे दिल्ली में एसपी थे। एक दिन तीन मूर्ति भवन में नेहरू जी के जीवन के बारे में कोई कार्यक्रम चल रहा था। मैं भी उसमें सम्मिलित होने गया था। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मैं बाहर निकल रहा था। उस समय आज जैसी सुरक्षा नहीं थी। इन्दिरा जी भी उसी समय आ गईं। हम लोग साथ चल रहे थे, तभी मार्कडेय सिंह दिखाई पड़े। वे वर्दी में ड्यूटी पर थे। मैंने उन्हें पुकारा तो वे दूसरी ओर भाग गए। इन्दिरा जी खड़ी हो गई। उन्होंने पूछा, क्या बात है? मैंने कहा- मेरे एक सहपाठी हैं, यहाँ पुलिस अध्ािकारी हैं, आपसे मिलना चाहते थे। मुझसे कई बार कहा, दिखाई दिए तो मैंने उन्हें पुकारा, लेकिन वे भाग निकले। उन्होंने हँस कर कहा- ऐसा क्यों? मैंने कहा- वे आपसे डर गए होंगे। वे मुस्कराईं, बात समाप्त हो गई। पर आज भी जब उस दिन का जिक्र होता है तो मार्कडेय यह कहे बिना नहीं रहते कि तुम्हारा क्या पता, क्या कह देते। मैं अपनी नौकरी गंवाने के लिए तैयार नहीं था। यह मात्र उनके मन का डर था। पाँच दशक से अध्ािक लम्बी मित्रता और निकट संबंध्ा में उनके साथ बीती अनेक ऐसी घटनाएं हैं जो आज भी मन को झकझोर देती हैं।

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