‘पथ के दावेदार’ का पड़ा गहरा प्रभाव

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इसी समय मैंने एक उपन्यास पढ़ा-‘पथ के दावेदार’। इस उपन्यास के एक चरित्र दादा ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। उपन्यास के अन्त में जब सब लोग बिखर जाते हैं तो दादा अपना कम्बल उठा कर अंध्ोरे में बरसते पानी में निकल पड़ता है। एक युवक और युवती जब उससे पूछते हैं कि दादा कहाँ जा रहे हैं, तब वह कहता है- सबको इकट्ठा किया था, सब बिखर गए। अब मैं जा रहा हूँ। तुम लोग घबरा गए हो। अब दूसरी जगह जाकर शुरुआत करूंगा। उपन्यास के मुख्य चरित्र के इस कथन ने मुझ पर गहरा असर डाला। मेरे जीवन में भी जब कोई संकटपूर्ण स्थिति आती है तो मेरी प्रतिक्रिया इसे कुछ मिलती-जुलती ही होती है। मैं मानता हूँ कि कोई भी आदमी अन्तिम व्यक्ति नहंी है। मेरा प्रयास भी अन्तिम प्रयास नहीं है। जितना मुझसे हो सकता है, उतना मैं कर रहा हूँ। मैं अगर असफल हुआ तो कोई दूसरा करेगा। इन प्रभावों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी से मैं इंटरमीडिएट में ही अलग हो गया। उनकी हिंसा मुझे जंची नहीं। उन दिनों गाँध्ाी के चिचारों का भी बहुत प्रभाव था। गाँध्ाी के बारे में तो बहुत देर से समझा कि वे कितने महान और वास्तविकता के सही पारखी थे। यह अहसास राजनीति में आने के भी बहुत दिनों बाद हुआ। 1946 में जब जयप्रकाश जी जेल से बाहर आए तो वे बहुत लोकप्रिय थे। उनकी सभाएं नेहरू की सभाओं से बड़ी होती थी। जयप्रकाश जी के विचारों से मैं आन्दोलित हुआ। उन्हीं दिनों पटना में नेहरू की सभा हुई। उन्हें सुनने के लिए में पटना गया था। हालांकि इससे पहले मैं उन्हें बलिया में देख चुका था। पटना में हुए नेहरू के भाषण का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वैसे मैं यह मानता हूँ कि नेहरू एक करिश्माई नेता थे। उनकी ऐसी ही छवि थी। उनके व्यक्तित्व के बारे में मेरे मन में आदर था। मैं आज भी मानता हूँ कि जवाहर लाल जी ने आजादी के बाद जनतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा दी। लेकिन बहुत देर से मुझे यह लगा कि उन्होंने जहाँ जनतन्त्र को महत्ता और मर्यादा दी, वहीं देश की अनेक समस्याओं को उलझा दिया। जब डाॅराममनोहर लोहिया जवाहरलाल जी की कड़ी आलोचना करते थे, तब मैं उस आलोचना के बहुत खिलाफ था। वैसे भी मैं लोहिया की बातों से असहमत ही होता था। लेकिन बाद में मुझे लगा कि हां, लोहिया नेहरू के बारे में बहुत बातों में सही थे। जवाहरलाल जी ने बहुत से ऐसे काम किए जो अगर दे नहीं करते तो आज देश में इतनी उलझनें नहीं होती।

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