कविता सुनना अच्छा लगता था

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छात्र-जीवन से ही कविता में मेरी दिलचस्पी थी। कविता सुनना अच्छा लगता था। जब मैं हाई स्कूल में पढ़ता था, एक कवि रूपनारायण पाण्डेय जी से मेरा परिचय हुआ। वे हमें कविता सुनाया करते थे। वे कवि श्यामनारायण पाण्डेय के गौव के थे। रूपनारायण पाण्डेय भी राष्ट्रवादी कविताएं लिखा करते थे। वे प्राइमरी स्कूल के शिक्षक थे। बाद में वे पागल होकर मरे। उनकी कहानी करुणा-भरी है। मैं इण्टरमीडिएट में पढ़ता था तो कवि-सम्मेलनों में अक्सर जाता था। गवर्नमेंट हाईस्कूल में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया। तय हुआ कि सोशलिस्ट लोगों की ओर से हलचाहे पर कविता लिखी जानी चाहिए। हम लोग हास्टल में रहते थे। जितने सोशलिस्ट थे, उन्होंने मिल कर तय किया कि कविता में क्या-क्या लिखा जाएगा। हलचाहे के साथ जमींदार का क्या व्यवहार होता है? पुरोहित उसे किस निगाह से देखता है? अन्त में समाज के लिए हलचाहे का क्या योगदान है? कविता में इन सवालों का उत्तर होना चाहिए। मेरी हिन्दी बहुत अच्छी थी, इसलिए सब लोगों की राय थी कि कविता मैं ही लिखूँ। यह कविता हमारे एक हरिजन साथी चेलाराम को पढ़नी थी। लेकिन कवि-सम्मेलन के दिन वह लापता हो गए। चूंकि कविता के नीचे उन्हीं का नाम लिखा था, इसलिए उनकी गैर-मौजूदगी के कारण यह कवि-सम्मेलन में पढ़ी नहीं जा सकी। कविता की कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी स्मरण हैं: ‘शासन तेरा सीमित है शिशु को फटकार बताने में, या जन जर्जर वृषभों को पैने दो या जन जर्जर वृषभों को पैने दो या जन जर्जर वृषभों को पैने दो-चार लगाने में, ऐ हलवाहो, तुम जाग उठो, हम सच्ची राह बताते हैं ऐ हलवाहो, तुम जाग उठो, हम सच्ची राह बताते हैं ऐ हलवाहो, तुम जाग उठो, हम सच्ची राह बताते हैं मजलूम मसीहा जय प्रकाश तुमको प्रकाश में लाते हैं।’’ उस समय युवा समाजवादी लड़के ऐसी ही कविताएं लिखते थे। मुझे भी उन दिनों साहित्यकारों से सम्पर्क बहुत अच्छा लगता था। सभाओं में जाने और भाषण सुनने का भी शौक था। मुस्लिम लीग की सभी सभाओं में मैं जाता था। कविता सुनना अच्छा लगता था ध् 285 286 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर उन दिनों साहित्यिक किताबें तो पढ़ता ही था, लेकिन तभी विचारध्ाारा से जुड़ी पुस्तकें भी मैंने पढ़नी शुरू कर दी थी। मुझ पर कम्युनिस्टों का प्रभाव बहुत गहरा था। माक्र्सवाद पर काफी पढ़ा, हालांकि काफी बातें समझ में नहीं आती थीं। बाद में मैंने देखा कि कम्युनिस्ट आन्दोलन में लोग आपस में ही एक दूसरे को कत्ल करने लगे। इस तरह की हिंसा के प्रति मुझमें अजीब वितृष्णा पैदा हुई? मुझे लगा, जो लोग अपने साथियों का भी कत्ल कर देते हैं वे समता का समाज कैसे बनाएंगे। इसी बीच सोशलिस्टों से हमारा सम्पर्क हुआ। विश्वनाथ चैबे और पारसनाथ मिश्र से परिचय हुआ। रामनाथ बरई बलिया में 1942 के प्रमुख लोगों में से थे। 1946 में जब लोग छूट कर जेल से आए तो उन्होंने फिर से क्रान्ति का माहौल पैदा करने की कोशिश की, क्योंकि जयप्रकाश जी कहते थे कि क्रान्ति होगी। हम लोग तैयारी कर रहे थे क्रान्ति की। वे क्रान्तिकारी हमारे हाॅस्टल में आते थे। चोरी का एक पिस्तौल था, उसे चलाना सिखाते थे।

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