देश का बंटवारा हुआ। हालांकि बाहरी दुनिया की घटनाओं के प्रति मैं बहुत सचेत नहीं था, लेकिन मानसिक रूप से मुझे बहुत दुःख पहुँचा। जो संयुक्त परिवार से आया है, उसे परिवार का टूटना बुरा लगेगा ही। यह देश का टूटना था, इससे तकलीफ होनी स्वाभाविक थी। अनेक लोग कहते हैं कि सुभाषचंद्र रहते तो इस बंटवारे को रोकते। मैं यह तो नहीं कहता कि वे बंटवारा रोक सकते थे, लेकिन वे प्रबल विरोध्ा जरूर करते। गाँध्ाी जी भी इसके विरोध्ाी थे। लेकिन सरदार पटेल, मौलाना आजाद और जवाहरलाल ने ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दी थीं कि सबने विवशता में बंटवारे को स्वीकार किया। अब 15 अगस्त, 1947 को आजादी आई तो अपने दोस्तों के साथ मैं बलिया में था। उस दिन जुलूस निकला था। मेरे साथ थे, गौरीशंकर राय और पारसनाथ मिश्र। शायद विश्वनाथ चैबे भी थे। हम लोग जुलूस में शामिल नहीं थे। सिर्फ उसे अगल-बगल से देख रहे थे। जब दोपहर हो गई तो हमें भूख लगी। लेकिन हमारे पास खाना खाने के लिए पैसे नहीं थे। मेंने सोचा कि यह कैसी आजादी आई कि पहले ही दिन भूखा रहना पड़ रहा है। शायद यह एक संकेत था कि यह आजादी क्या लेकर आने वाली है। बाद में हमें किसी मंत्री के एक सचिव मिल गये। बलिया के सुखपुर गाँव के थे, पारसनाथ जी के परिचित थे। उन्होंने पैसे दिए तो हम लोगों ने खाना खाया। जब गाँध्ाी जी की हत्या की गई तो बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। लोग हिन्दू महासभा और आर. एस. एस. के सदस्यों पर हमला करने के लिए तैयार थे। हमारे यहाँ डाॅ. गुरु हरख सिंह जी थे। वे एक जाने-माने चिकित्सक थे। उन्हीं के यहाँ हिन्दू महासभा के नेता महन्त दिग्विजयनाथ जी ठहरते थे। उनके घर पर हमला करने के लिए भीड़ जाने वाली थी। गौरीशंकर राय और मुझे यह खबर लगी तो हमने कुछ साथियों के साथ मिल कर यह घोषणा कर दी कि किसी के घर पर कोई हमला नहीं करेगा, हालांकि हम लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बहुत खिलाफ थे। उस इलाके में हम युवाओं का इतना दबदबा या असर था कि किसी तरह का कोई हमला नहीं हुआ। हमारा कहना था कि जो लोग हत्या से नहीं जुड़े हैं, उन पर हमला गलत है। गाँध्ाी को जिसने मारा, वह होगा कोई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाला, लेकिन उसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूरे समुदाय पर हमला गलत है।