इलाहाबाद से 1952 के चुनावों की पराजय के बाद मैंने बलिया में पार्टी के मंत्री के रूप में काम किया। वही साध्ानविहीनता और वही बेबसी। पर कुछ लोग थे जिनके रहते अभाव का अहसास नहीं हुआ। विश्वनाथ तिवारी का होटल सब राजनीतिक कार्यकर्ताओं की शरणस्थली था। जगन्नाथ शास्त्री जी का व्यक्तित्व, उनकी आशावादिता, उनकी श्रम करने की शक्ति, उनकी स्पष्ट बातें, हर परिस्थिति में निरापद बने रहने की अद्भुद शक्ति स्वयं में हम सबके लिए सम्बल थी। पं. तारकेश्वर पाण्डेय और पं. रामलक्षण तिवारी जी का व्यक्तित्व भी एक सहारा था। तारकेश्वर पाण्डेय जी यूं तो काँग्रेस में जा चुके थे, पर अपनी बातों में सदा समाजवादी आन्दोलन के पक्षध्ार थे। अपनी आन पर अड़े रहने में पं. विश्वनाथ चैबे और बुरे दिनों में भी अपनी आशावादिता पर अटल महानंद मिश्र पार्टी के काम में दिन-रात लगे रहने वाले पं. राजेश्वर त्रिपाठी, हिदायतुल्लाह, डाॅ. हरिचरण लाल, बांके बहादुर सिंह, हनुमान प्रसाद, श्यामबिहारी सिंह, श्यामबहादुर सिंह, उदयभान सिंह, जटाध्ाारी सिंह, मुक्ता सोनार, जगदेव बहादुर, लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी, भोजदत्त जी आदि साथी थे। गौरी शंकर राय मेरे सहपाठी और मित्र थे। छात्र-आन्दोलन के नेता थे। पंचानंद मिश्र बलिया में थोड़े दिन समाजवादी आन्दोलन से जुड़े रहे। अध्ािक समय बाहर ही रहे। प्रभुनाथ सिंह जी ने सदा साथ दिया। इध्ार 1974 के आन्दोलन में बहुत-से युवक आए। श्यामबहादुर सिंह,गौरी भैया, राम गोविन्द चैध्ारी, गंगा सिंह, तारकेश्वर सिंह, विश्वम्भर कुंवर, अम्बिा चैध्ारी, भरत सिंह-कितने युवकों ने जेपी. आन्दोलन में हिस्सा लिया, इनमें भी कुछ असमय ही हमारे बीच से चले गए। गौरी भैया से बड़ी आशा थी-फक्कड़ स्वभाव का यह युवक मेरी शक्ति का सहारा था, कुछ भी कर सकने में समर्थ था। निष्ठा में निराला, साहस में सबसे अध्ािक निडर और कार्य करने में असीम क्षमता वाला। अचानक एक दुर्घटना में चल बसा, एक सहारा टूट गया। बलिया से लखनऊ की यात्रा ने जीवन को एक नई ध्ाारा में मोड़ दिया। कार्यक्षेत्र व्यापक हो गया। राजनीतिक नेताओं से सम्पर्क बढ़ा। बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभव हुए। जिन्हें आदर्श मान रखा था, वे बाद में आशा के विपरीत मिले। राजनीति को जिन्दगी यों भी उतार-चढ़ाव की होती है, पर इस व्यापक क्षेत्र में काम करने का अवसर ऐसी स्थिति में मिला जब उत्तर प्रदेश के अधिकांश दिग्गज लोग डाॅ. राम मनोहर लोहिया जी के साथ जा चुके थे। एक चुनौती थी पर उसका सामना करना था। आचार्य नरेन्द्र देव जी का वरदहस्त था। उन्हें भी मौत ने थोड़े ही दिनों में हमारे बीच से उठा लिया। कितनी उथल-पुथल के बीच चला जिन्दगी का कारवां।