नए चश्मों की तलाश में

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आचार्य नरेन्द्र देव ने कहा था- चन्द्रशेखर, छोडि़ये शोध्ा-कार्य, देश बनाने के लिए निकलिए। उसी एक वाक्य ने जीवन की ध्ाारा को सदा के लिए बदल दिया। मंजिल की तलाश में चलता रहा, देश बनाने की तमन्ना दिल में लिए, कितने जोखिम-भरे अवसरों से गुजरा, कितने ऐसे मुकाम आये जब मंजिल सामने आती दिखाई पड़ी, पर फिर वहीं उध्ोड़बुन, वही ईष्र्या द्वेष। विवादों से बचने के प्रयास का परिणाम निकला एक उलझन भरा जीवन। देश को निकट से देखा-समझा। उच्च स्थानों पर आसीन लोगों के क्रियाकलापों को देखने-परखने का अवसर मिला। सत्ता के गलियारे में काम करने वाले लोगों से सम्पर्क हुआ। अल्प समय के लिए ही सही, उसका व्यक्तिगत अनुभव भी किया। साध्ाारणजन की भावनाओं से परिचित हुआ, देश की क्षमता और इसके लोगों की शक्ति में भरोसा बढ़ा। जो कुछ करना संभव था उसके लिए व्यक्तिगत रूप से प्रयास किया। समय रहते आसन्न संकट के प्रति उत्तरदायी लोगों को आगाह किया, पर परिणाम अध्ािकतर आशा के विपरीत ही रहे। कई बार मेरी आवाज को चुनौती समझ कर उसका प्रतिकार करने का प्रयास किया गया, पर मेरी सदा यही कोशिश रही कि समय रहते लोगों को आने वाले संभावित खतरे के प्रति आगाह कर दूँ। सारे प्रयास के बावजूद आज जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, उसमें भविष्य अंध्ाकारमय दिखाई देता है पर हर ऐसे मोड़ पर देश के लोगों ने अपनी शक्ति का परिचय दिया है। अपनी दूरदृष्टि के आध्ाार पर उन्होंने उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए कदम उठाया है। उन्हीं यादों का सहारा है। मैंने संभवतः 1955 में अपनी डायरी में लिखा था: ‘परिवार की सीमाओं में हम समा न सके, नए परिवार हम बना न सके, प्यार के परंपरागत स्रोत सूख गए और नए चश्मों की तलाश में हम भटकते ही रहे।’ अपनी तो मनःस्थिति आज भी वैसी ही है। काश, हम भारत के इस परिवार को संजोए, रखने की दिशा में कुछ कर सकते।

प्रतिपुष्टि