मैंने अपना पहला राजनैतिक भाषण बलिया में दिया। तब मैं इंटरमीडिएट का छात्र था। वहीं के एक स्वाध्ाीनता सेनानी थे जिन्हें ‘ट्रांस्पोर्टेशन फाॅर लाइफ’ की सजा हुई थी। उनका नाम परशुराम सिंह था। 1946 में वे छूट कर आए थे। उन्हीं के स्वागत में यह सभा हुई थी। उन दिनों छात्रों की ओर से गौरीशंकर राय ही भाषण देते थे। उस दिन गौरीशंकर राय किसी मीटिंग में लखनऊ या कहीं और गये हुए थे। अतः सभा में मुझको लोगों ने कहा कि आप ही भाषण दीजिए। फिर मैंने भाषण दिया। यह मेरा पहला सार्वजनिक भाषण था। उस सभा में बलिया के क्रान्तिकारी नेता पं. महानंद मिश्र जी थे। उन्होंने लोगों से कहा कि यह लड़का एक दिन बड़ा नेता होगा। इस पर ध्यान देना चाहिए। उसके बाद लगातार भाषण देने के मौके आए जब सतीशचंद्र कालेज में चुनाव हुए। गौरीशंकर अध्यक्ष पद के लिए लड़े और मैं ‘प्राइम मिनिस्टर’ पद के लिए। गौरीशंकर चुनाव हार गए पर मैं जीत गया। प्राइम मिनिस्टर की हैसियत से मैंने समाजवादी विचारों के आध्ाार पर एक नीति वक्तव्य बनाया था। इसी काफी पसन्द किया गया। वह सतीश चन्द्र कालेज में कहीं रखा होगा। शुरू से ही मैं अपने विचारों में बहुत स्पष्ट रहा हूँ। जो तय कर लेता हूँ, वह करता हूँ। हालांकि अपने निश्चय का मैं कभी ढिंढोरा नहीं पीटता। अगर कुछ परेशानी भी हुई तो मन में ही रखा। रहीम की ये पंक्तियाँ पसन्द हैं: ‘रहिमन जिन मन की व्यथा मन ही राखो गोय। सुनि इठलैहें लोग सब बांट न लैहें कोय। मेरी एक और भी आदत रही है कि मैं किसी की सलाह भी नहीं लेता। इसकी वजह यह रही है कि जब भी मैंने किसी से सलाह ली, उसका गलत परिणाम निकला। इसलिए हमेशा ही मैंने अपने विवेक से निर्णय लिया और आज तक लिए। अपने किसी भी निर्णय के लिए मुझे अफसोस नहीं है।