मैंने अपना पहला राजनैतिक भाषण बलिया में दिया। तब मैं इंटरमीडिएट का छात्र था। वहीं के एक स्वाध्ाीनता सेनानी थे जिन्हें ‘ट्रांस्पोर्टेशन फाॅर लाइफ’ की सजा हुई थी। उनका नाम परशुराम सिंह था। 1946 में वे छूट कर आए थे। उन्हीं के स्वागत में यह सभा हुई थी। उन दिनों छात्रों की ओर से गौरीशंकर राय ही भाषण देते थे। उस दिन गौरीशंकर राय किसी मीटिंग में लखनऊ या कहीं और गये हुए थे। अतः सभा में मुझको लोगों ने कहा कि आप ही भाषण दीजिए। फिर मै
छात्र-जीवन की समाप्ति और सम्पूर्ण राजनीतिक जीवन की शुरूआत के दौर में अनेक प्रकार की मुश्किलों से गुजरना पड़ा नियमित खाने-पीने का इंतजाम नहीं था। अनेक शामें तो बिना भोजन के भी गुजरीं। इलाहाबाद में एक पावर हाउस था। उसके सामने मजदूरों के लिए खाना बनाने वाला ढाबा था। वहाँ मुझे चार आने में रोटी और कोहड़े या लौकी की सब्जी मिल जाती थी। वही खाकर मैं रहता था। पहले से ही मुझे पेट की तकलीफ थी। इस भोजन से वह और बढ़ गई। उसके बाद मैं बल
उस समय के मेरे साथियों में कुछ का व्यक्तित्व बेहद दिलचस्प था। ऐसे ही थे एक मोहम्मद मुस्तफा। आजादी की लड़ाई में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे बड़े मजेदार आदमी थे। वे 1942 में जेल चले गए थे। इस बीच उनके पिता का निध्ान हो गया। मुस्तफा का घर लगभग बिखर गया। लेकिन किसी तरह पैसा जुटा कर उन्होंने एम.ए. के प्रथम वर्ष में दाखिला लिया। वे मुस्लिम छात्रावास में रहते थे। एम.ए. अन्तिम वर्ष में वे तीन महीने तक क्लास से अचानक गायब रह
गुरु गोलवकर जी (माधव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’) इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आए। सबने विरोध्ा किया। वैसे मैं इस राय का था कि जब सब पाटियों के लीडर आते हैं तो गोलवलकर को भी अपने देना चाहिए। लेकिन कम्युनिस्ट मित्रों ने जोर दिया कि हर हाल में उनका विरोध्ा होना चाहिए। अन्ततः मैं सहमत हो गया। तय हुआ कि गोलवकर जी को बोलने नहीं देना है। हल्ला मचा। बड़ा झगड़ा हुआ। मारपीट हुई। इलाहाबाद मंडल से बाहर के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लो
1948 में मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय आया और बी.ए. में दाखिला लिया। उस सयम इलाहाबाद विश्वविद्यालय हमारे यहाँ का सबसे अच्छा विश्वविद्यालय माना जाता था। इसी समय बलिया में सतीशचंद्र काॅलेज में बी.ए. की पढ़ाई प्रारम्भ हुई थी। गौरी शंकर राय और दूसरे मित्रों ने वहाँ प्रवेश लिया था। उस समय हम लोग बलिया की राजनीति में प्रभावकारी हिस्सा लेने लगे थे। गौरीशंकर ने खबर भेजी कि मैं बलिया वापस आ जाऊँ, राजनीति में पूरा हिस्सा लेंगे। मुझे
देश का बंटवारा हुआ। हालांकि बाहरी दुनिया की घटनाओं के प्रति मैं बहुत सचेत नहीं था, लेकिन मानसिक रूप से मुझे बहुत दुःख पहुँचा। जो संयुक्त परिवार से आया है, उसे परिवार का टूटना बुरा लगेगा ही। यह देश का टूटना था, इससे तकलीफ होनी स्वाभाविक थी। अनेक लोग कहते हैं कि सुभाषचंद्र रहते तो इस बंटवारे को रोकते। मैं यह तो नहीं कहता कि वे बंटवारा रोक सकते थे, लेकिन वे प्रबल विरोध्ा जरूर करते। गाँध्ाी जी भी इसके विरोध्ाी थे। लेकिन सरदा
इसी समय मैंने एक उपन्यास पढ़ा-‘पथ के दावेदार’। इस उपन्यास के एक चरित्र दादा ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। उपन्यास के अन्त में जब सब लोग बिखर जाते हैं तो दादा अपना कम्बल उठा कर अंध्ोरे में बरसते पानी में निकल पड़ता है। एक युवक और युवती जब उससे पूछते हैं कि दादा कहाँ जा रहे हैं, तब वह कहता है- सबको इकट्ठा किया था, सब बिखर गए। अब मैं जा रहा हूँ। तुम लोग घबरा गए हो। अब दूसरी जगह जाकर शुरुआत करूंगा। उपन्यास के मुख्य चरित्र के इस कथन
एक पुरानी घटना याद आई। 1942 में एक उमाशंकर थे। मऊ में वे 1942 के आन्दोलन में सक्रिय थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि चलो, तार काटने चलें। हम लोग सात-आठ लड़के तार काटने चले। पिपरीडीह से मऊ रेलवे स्टेशन के किनारे एक सुनसान जगह पर पहुँचे। खम्भे के सहारे एक लड़का दूसरे के कंध्ो पर चढ़ा। उमाशंकर सुनार की सोना काटने वाली आरी ले गए थे। मैं छोटा था। कमजोर भी था। इसलिए मुझे जिम्मेदारी दी गई कि मैं आस-पास निगाह रखूं कि कोई आ तो नहीं रहा है।
छात्र-जीवन से ही कविता में मेरी दिलचस्पी थी। कविता सुनना अच्छा लगता था। जब मैं हाई स्कूल में पढ़ता था, एक कवि रूपनारायण पाण्डेय जी से मेरा परिचय हुआ। वे हमें कविता सुनाया करते थे। वे कवि श्यामनारायण पाण्डेय के गौव के थे। रूपनारायण पाण्डेय भी राष्ट्रवादी कविताएं लिखा करते थे। वे प्राइमरी स्कूल के शिक्षक थे। बाद में वे पागल होकर मरे। उनकी कहानी करुणा-भरी है। मैं इण्टरमीडिएट में पढ़ता था तो कवि-सम्मेलनों में अक्सर जाता
मैट्रिक पास करने के बाद मैंने नौकरी के लिए न्यायालय में अर्जी दी। मेरे चाचाजी के एक दोस्त कोर्ट में मुंशी थे। उन्हीं के कारण अर्जी दी। लेकिन उस नौकरी के लिए 18 साल की उम्र जरूरी थी। मेरी उम्र उससे थोड़ी कम थी। इसलिए संयोग से वह नौकरी मुझे नहीं मिली। वैसे मुझ पर कोई जिम्मेदारी नहीं थी। लेकिन मैंने इतना जरूर सोचा कि अगर पढ़ नहीं पाए तो नौकरी करनी ही होगी। जब नौकरी नहीं मिली तो मेरे चचेरे भाई ब्रजनन्दन सिंह ने इण्टरमीडिएट मे
प्रथम
1
2
अगला »
अन्तिम
|