हमारे गाँव में एक कोट थी

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हमारे गाँव में एक कोट थी। लोग कहते हैं, इस गाँव के अन्दर शुरू में आबादी यहीं आई थी। कोट ऊंचे टीले जैसी थी। यहाँ पर किसी देवता का स्थान था। उसे देखने से ऐसा मालूम पड़ता था कि वह कोट तीन सौ वर्ष पुरानी तो जरूर होगी। गाँव की रक्षा के लिए यह कोट बनाई गई होगी। कोट के चारों ओर गहरी खाई रही होगी। मेरे बचपन में वह गड्ढे में बदल गई थी। मेरे बाबा तीन भाई थे। बचपन में मैंने दो भाइयों को देखा था। सबसे बड़े पलकध्ाारी सिंह थे। बड़े बाबा का नाम जंगबहादुर सिंह था। छोटे सहदेव सिंह थे। पलकध्ाारी सिंह जी की कोई सन्तान नहीं थी। जंगबहादुर सिंह के दो लड़के थे: एक का नाम यशोदा नन्द सिंह और दूसरे का यमुना सिंह। मेरे पिता सदानन्द सिंह सहदेव सिंह के इकलौते बेटे थे। मेरे परिवार के लोग किसान थे। खेती करते थे। 25-30 एकड़ की खेती थी। लेकिन खेती के लिए सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी। ढेकुली से लोग पानी का इंतजाम करते थे। गाँव में बेहद गरीबी थी। दो-तीन परिवारों को छोड़कर कोई परिवार ऐसा नहीं था जो साल भर के खाने का अनाज पैदा कर सकता हो। तब गेहूँ नहीं होता था। जौ, सावां, कोदो और चना होता था। जौ और सवाँ जैसे अनाज तो अब कम उपजाए जाते हैं। हमारे खाने-पीने की आदतें भी पैदा होने वाली फसल से निधर््ाारित थीं। रबी की फसल आई तो हम गेहूँ या जौ-कोदई खाते थे। मकई उबाल कर खाई जाती थी। मटर की घुघनी भी बहुत बनती थी। मटर को छौंक कर घुघनी बनाते हैं। लोग गाय, भैंस पालते थे- अपने परविार में दूध्ा के लिए, व्यवसाय के लिए नहीं। हमारा संयुक्त परिवार था। उसमें 25 लोग थे। अपनी उम्र के बचों में हम लोग दो ही थे- एक मैं और दूसरे मेरे चाचा के लड़के शिव पूजन सिंह। अब वह इस दुनिया में नहीं रहे। परिवार से लगे हुए तीन-चार घर थे, जिनमें हमारी उम्र के कुछ बच्चे थे। उनके साथ हम खेलते थे। बाकी सब हमसे बड़ी उम्र के थे। हमारे परिवार से लगे तीन घर और थे-सब एक ही अहाते के अन्दर, गाँव के पूरब से पश्चिम तक फैले, एक-दूसरे से लगे हुए। बीच में दो-तीन हमारे गाँव में एक कोट थी ध् 269 270 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर आंगन और एक से दूसरे घर में आने का रास्ता? रात में यदि सारे दरवाजे बन्द कर दिये जाते तो कोई बाहरी आ नहीं सकता था। बीच में एक कुआँ था- पीने के पानी के लिए। उस समय गाँव में आपसी सौहार्द था। हमारे परिवार के निकट के लोगों में एक थे शिवबहाल सिंह। उनको सारी रामायण कंठस्थ थी। वैसे वे ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। घर में बैठकर वे हम सबको रामायण सुनाया करते थे। उस समय आल्हा का बहुत प्रचलन था। गाँव में फगुआ और कजरी आदि गाई जाती थी। हरि-कीर्तन भी होता था। चैध्ारी रामलखन जी पास के गाँव उसरी के थे। यह गाँव उस समय आजमगढ़ जिले में था। अब मऊ में है। मेरा गाँव बलिया जिले के पश्चिम में अन्तिम गाँव है। चैध्ारी रामलखन राम-भक्त थे। हर साल रामलीला का आयोजन करते थे, उसमें समय लगाते थे और पैसा भी। हम लोग काफी दिलचस्पी लेते थे। उसमें मैंने वानर-भालू का रोल भी किया था। हाई स्कूल में भी मैंने नाटकों में अभिनय किया। कभी नारद बना, कभी कुछ। यह सब शौक से किया। कभी अभिनेता बनना है इसलिए नाटकों में शिरकत नहीं की। असल में मैं उस समय बहुत शान्त स्वभाव का बालक था। गाँव में सबसे सीध्ाा कहा जाने वाला। स्वास्थ्य में भी मैं जरा कमजोर ही था। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि कभी गाँव से बाहर जाऊंगा। उन दिनों के गाँव की याद आती है तो एक अजीब सिहरन-सी होती है। एक ओर कीचड़ भरे रास्ते, प्रारम्भिक पाठशाला के केवल दो कमरे, अध्ािकतर कक्षाएं पास के बरगद और पाकड़ के नीचे लगती थीं। पर कभी पास की घनी अमराई गाँव की बंसवारी में आपसी रगड़ से उठती ध्ाुन और कहीं दूर से आती चरवाहों के संगीत की आवाज। सूरज की पहली किरण के साथ अनेक घरों से उठती पूजा की ध्वनि और पेड़ों में चहकती चिडि़यां। गाँव के पूरब में मिश्राइन का पोखरा, जिसमें लोग सुबह-शाम जुटते थे- नित्यक्रिया व स्नान आदि के लिए। अब वह कुछ भी नहीं। हमारे चारों घरों के बीच एक बड़ा-सा मैदान था। गर्मी के दिनों में वहाँ चारपाई बिछाने के लिए स्थान मिलना कठिन हो जाता था। हम लोग बड़े होने पर पास ही बगीचे में बने खलिहान में सोने के लिए चले जाते थे। घर के आंगन के बीच एक चबूतरा, उससे लगा हुआ एक ऊँचा पौध्ाा लगाने के लिए बना छोटा स्तम्भ, जिस पर लगा तुलसी का बिरवा, जो शायद जीवन के प्रारंभ में मुझे प्रकृति के निकट जाने का संकेत दे गया और साथ ही रहस्यमयी पर अनजान आध्यात्मिकता की जिज्ञासा भी, जो आज तक उतनी ही रहस्यमयी बनी हुई है। मुझे याद नहीं कि अपने गाँव से पहली बार मैं बलिया शहर कब गया। बचपन में कभी बैलगाड़ी पर चढ़ कर ददरी का मेला देखने गया था। आज बेशक मेरे गाँव से कार या बस द्वारा घंटे-डेढ़ में ददरी पहुँचा जा सकता है लेकिन तब बैलगाड़ी से दो-तीन दिन में पहुँचा था। वहाँ रात को रुका फिर अगले दिन मेला घूम कर घर लौटा। कार्तिक पूर्णिमा को यह मेला अब भी लगता है। उसमें गाय, भैंस, घोड़े बिकते हैं। अपने जीवनकाल में भारतेन्दु ददरी के मेले में बोलने के लिए आये थे। उनका यह भाषण बहुत महत्वपूर्ण है। उसमें उन्होंने देश के उत्थान के लिए लोगों का आह्वान किया था। भारतेन्दु जी की पुस्तक मैंने पटियाला जेल में पढ़ी थी उसका जिक्र मैंने अपनी जेल डायरी में किया है।

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