अनूठे चन्द्रशेखर

राम बहदुर राय  


बात पंद्रह साल पहले की है। झोपड़ी में बैठे हुए थे। झोपड़ी यानी 3, साउथ एवेन्यू लेन का वह ठिकाना जिसका नाम झोपड़ी पड़ गया था। काफी लोग उनके सामने बैठे थे। चन्द्रशेखर जी को बतरस में आनंद आता था। यह उनका स्वभाव था। कभी वे मनोगत होते थे और कभी-कभार सुनने वालों को चैंकाते थे। ऐसा ही उस दिन हुआ जब उन्होंने कहा कि मैं एक ‘दकियानूसी’ भाषण करने जा रहा हूँ। जिन्हें वे बता रहे थे उनमें ज्यादातर समाजवादी धारा से जुड़े नेता थे। सुनने वालों में उत्सुकता जगी। जो 29 नवंबर की शाम को त्रिवेणी सभागार में शांत हो पाई। यह बताना पहले जरूरी है कि उन्होंने उस दिन अपना भाषण कैसे शुरू किया। यह जानने के लिए इस अंश को पढि़ए- ‘समाजवाद को समझने के दृष्टिकोण के बारे में मेरी मान्यताएं बहुत कुछ बदली हैं। मैंने जिस युग में राजनीति में प्रवेश किया था, उस समय मेरी मान्यताएं कुछ दूसरी थी। ध्ाीरे-धीरे राजनीति की उथल-पुथल में और जीवन की अनुभूतियों ने हमें बहुत कुछ सोचने को विवश किया। आज जो मैं कहने जा रहा हँू उसमें कुछ लोगों को शायद अटपटा लगे, क्योंकि मुझे यह स्वीकार करने में जरा भी संकोच नहीं है कि महात्मा गाँध्ाी के व्यक्तित्व को हम समाजवादियों ने उस रूप में नहीं समझा था जिस रूप में समझने की आवश्यकता थी। उसी से प्रेरणा पाये हुए राजेन्द्र बाबू के व्यक्तित्व से हम सब प्रभावित थे, लेकिन हम समझते थे कि समाज को परिवर्तित करने की दिशा में एक नया भारत बनाने की ओर उनका दृष्टिकोण बहुत हद तक सहायक नहीं हेागा। प्रगतिशीलता का ऐसा बवंडर भारत में ही नहीं सारी दुनिया में आया था। जिसमें हम अपने अतीत की उपलब्ध्ाियों को भुला करके एक नया भविष्य बनाना चाहते थे। यदि मैं कहँू कि समाजवादियों में बहुत से ऐसे थे जो अतीत की उन प्रवृत्तियों को बनाये रख कर, नया भविष्य बनाने का सपना देखते थे, लेकिन व्यावहारिक रूप में हम समाजवादियों ने समय-समय पर गाँध्ाी जी की आलोचना की और मैं यहाँ तक कहँूगा कि अनूठे चन्द्रशेखर ध् 51 52 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर राजेन्द्र बाबू जैसे महान व्यक्तित्व को समझने में भूल की। उनके भाषण के इस अंश को पढ़ कर आप क्या सोचते हैं? पर मैं कहँूगा कि शायद ही कोई भारत का राजनेता हो, जिसमें इतनी साफगोई बरतने का साहस दिखता हो। इसी मायने में चन्द्रशेखर अनूठे थे। उन्हें जो सूझता था उसे बेहिचक बताते थे, बोलते थे और जरूरत पड़ने पर उसके लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते थे। उस दिन तो इतना ही हुआ कि त्रिवेणी सभागार में लोग उन्हें सुनते जाते थे और हर वाक्य पर अवाक रह जाते थे। वह भाषण लीक से हट कर था। उनके पुराने मित्र और सहयोगी हैरान हुए बिना तब नहीं रहे होंगे। कई बातें नई थी। जैसे प्रध्ाानमंत्री के अपने संक्षिप्त कार्यकाल में भी चन्द्रशेखर ने लिखा भाषण नहीं पढ़ा। मालदीव के सार्क सम्मेलन में वैसा करना अनिवार्य सा हो गया था। विदेशी मंत्रालय के अफसरों ने उन्हें एक लिखा भाषण विमान में पढ़ने के लिए दे दिया था। जिसे चन्द्रशेखर ने पहली ही नजर में खारिज कर दिया। उनके रुख को देख कर विदेश मंत्रालय के अफसरों के हाथ-पांव फूल गए थे। आशंका थी कि कहीं अनर्थ न हो जाए। लेकिन अपनी और पड़ोसी देशों की समस्याओं को आत्मसात कर चन्द्रशेखर वहाँ जो भी बोले उसकी ध्ााक दूर-दूर तक महसूस की गई। वह ऐसा क्षण था जब चन्द्रशेखर अपनी लोकप्रियता की शिखर पर थे। जिसने भी उनका भाषण रेडियो और दूरदर्शन पर सुना वह उनका कायल हो गया। कोई प्रध्ाानमंत्री विदेश की ध्ारती पर बिना लिखा भाषण दे और वह भी सटीक और समसामायिक, यह कल्पना के परे था। इसीलिए उन्हें बहुत बध्ााइयाँ मिलीं। इस तरह एक नई परिपाटी उन्होंने बनाई। माना गया कि सहजता से प्रध्ाानमंत्रित्व की जिम्मेदारियों को वे बड़े मंच पर अभिव्यक्ति दे सकते हैं। आकाशवाणी के निमंत्रण पर त्रिवेणी सभागर में उपस्थित समूह उसी चन्द्रशेखर को जानता और पहचानता है। अभ्यस्त बन गया है। इस समूह ने वहाँ भिन्न चन्द्रशेखर की कशमकश को देखा और सुना। चन्द्रशेखर ने सूचना दी कि ‘‘मैं अपनी जिंदगी का पहला लिखित भाषण देने जा रहा हँू।’’ जाहिर है कि यह बयान उनका मनोमत नहीं था। वे अपने श्रोताओं को एक सच्चाई से अवगत करा रहे थे। उनकी राजनैतिक जिंदगी का पहला भाषण 1948 का है। राजेन्द्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान माला में बोलते हुए चन्द्रशेखर अपने से जूझ रहे थे। इसे उनके श्रोताओं ने देखा। वे एक नए अनुभव से गुजरे। उनके श्रोताओं में रेडियो के बुलाये मेहमान के अलावा वे लोग भी थे जो सालों से सहयोगी रहे। जैसे ओमप्रकाश श्रीवास्तव, मार्कण्डेय सिंह, रामकुमार जैन, सुध्ाीन्द्र भदौरिया, एच.एन. शर्मा आदि। चन्द्रशेखर ने लिखित भाषण पढ़ने का आत्मानुशासन स्वीकार तो कर लिया पर उसे निभा नहीं सके। पुरानी आदत जो बनी हुई थी वह बाध्ाक बन जाती थी। लिखे से हट जाते थे। यह कई बार हुआ। उन्हें अपना लिखा भाषण जहाँ-जहाँ अध्ाूरा लगा वहाँ वे झट चश्मा उतार कर कुछ अपनी ओर से जोड़ते हुए बोले। पहले राष्ट्रपति डाॅ. राजेंद्र प्रसाद की यादगार में स्मारक व्याख्यान माला 1969 से चलाई जा रही है। आकाशवाणी की ओर से यह कराया जाता है। स्मारक भाषण में डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डाॅ. नामवर सिंह, डाॅ. शंकर दयाल शर्मा, अज्ञेय, अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे व्यक्ति बोले हैं। वह सिलसिला जारी है। कुछ साल पहले पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का भाषण इसी कड़ी में हुआ। हर बार अलग विषय होता है। चन्द्रशेखर ने अपने लिए ‘हमारी सामथ्र्य’ विषय चुना जैसा कि महानिदेशक ने स्वागत में बताया था। 1977 में ‘दूसरी आजादी’ की हवा थी। भाषण माला में तब सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ आए थे। उन्होंने ‘व्यक्ति और व्यवस्था’ पर अपने चिन्तन से देश को अवगत कराया था। उस समय जनता सरकार से व्यवस्था परिवर्तन की अपेक्षा की जा रही थी। वक्त का तकाजा पहचान कर चन्द्रशेखर ने अपना विषय चुना, हमारी सामथ्र्य। वक्त का तकाजा तीन ‘करण’ की देन थी। वे हमारी व्यवस्था में घुन की तरह लग गए हैं। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण। इनके प्रति सत्तासीन तबके ने रोम का माहौल बनाया। समाज में आकर्षण के संकेत खड़े किए। उन सबकी कलई खुलती जा रही है। चमक का जो आभास दिया जा रहा था वह मिथ्या भ्रम था। इस कारण विकर्षण तेज हुआ है। यह वह वातावरण है जिसमें चन्द्रशेखर ‘हमारी सामथ्र्य’ की ओर देश का ध्यान खींचने के लिए भाषण माला के अवसर का उपयोग कर रहे थे। यह काम अपनी पहचान को फिर से परिभाषित करने जैसा था। वे यह काम खुद पहली बार कर रहे होंगे। लेकिन ऐसा प्रयास यह पहला नहीं कहा जा सकता। अज्ञेय का ही उदाहरण लें तो उन्होंने अपने भाषण में बुनियादी सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा था कि आजादी के तुरन्त बाद हमने अपने को ‘प्रगति’ और ‘उन्नति’ की चूहा-दौड़ में डाल दिया। उस झूठी प्रतियोगिता पर अगर किसी ने प्रश्नचिन्ह खड़े किए तो उसे प्रतिगामी करार कर दिया गया। सत्ताध्ाारी समूह को नहीं सूझा कि रुक कर विचार कर लें। देश आर्थिक होड़ अनूठे चन्द्रशेखर ध् 53 54 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर में फंसता गया। जो लोग सवाल उठा रहे थे वे देश के मानस को जगाना चाहते थे। उनका उद्देश्य था कि देश को चूहा-दौड़ से बाहर किया जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। हालत ज्यादा बिगड़ती गई। इसीलिए चन्द्रशेखर जैसा राजनेता कह रहा था कि परिस्थितियाँ बहुत कुछ सोचने को विवश कर रही हैं। अपना भाषण पढ़ने से पहले उन्होंने यह स्वीकार किया कि ‘मैं जो कहने जा रहा हूँ वह शायद अटपटा लगे।’ उनका आशय स्पष्ट था कि जहाँ-जहाँ समझने में हमने गलती की है उसे सुध्ाारने का वक्त आ गया है। इसी भावभूमि से उनका भाषण भरा-पूरा था। उन्होंने इस बात पर चिन्ता जताई कि ‘अतीत की उपलब्ध्ाियों को पूरी तरह भुला देना हमारे लिए सामान्य बात हो गई है।’ चन्द्रशेखर का भाषण भारत के अतीत की गौरव गाथाओं से भरा हुआ था। अगर इतना ही होता तो वह अध्ाूरा लगता। इसकी सावध्ाानी उन्होंने बरती। गौरव गाथा में उन्होंने जो उदाहरण दिए उनसे यह बात भी निकली कि भारत की पूरी संरचना में ही ऐसी विलक्षण बात थी कि उनसे ही शिखर की उपलब्ध्ाियाँ आसानी से संभव हो सकी। पहले यह साबित करना कठिन था कि वह कौन सा दौर इतिहास में आया जब देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। लेकिन अब यह प्रमाणित ऐतिहासिक तथ्य है जिसे खोज लिया गया है। चन्द्रशेखर ने उन तथ्यों को एक-एक कर गिनाया। इतिहासकार ध्ार्मपाल की किताबों से कुछ अंश उन्होंने चुने। उसे सुनाया। यह बताया कि तमाम विपत्तियों और राजनैतिक अराजकता के बावजूद सत्रहवीं सदी तक देश की सामाजिक और आर्थिक संरचना पूरी तरह काम कर रही थी। भारत सचमुच सोने की चिडि़या था। ब्रिटेन से ज्यादा संपन्न था। शिक्षा और उद्योग में वह दुनिया का सिरमौर था। साफ है कि अंग्रेजों ने हमारी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना को छिन्न-भिन्न किया। चन्द्रशेखर ने सुझाया कि जहाँ से कड़ी टूटी थी वहीं से देश के पुनर्निर्माण की शुरूआत होनी चाहिए। यही वह विवाद है जो बना हुआ है। अब तक हल नहीं हुआ। आजादी के पहले और बाद में इस पर हमारे बड़े नेताओं और चिन्तकों में बहस होती रही है। 1909 की अपनी लंदन यात्रा में महात्मा गाँध्ाी को इसी बहस ने झकझोरा। वे वहाँ भारतीयों और अंग्रेजों दोनों से मिले। खूब बात की। इस बारे में काफी पढ़ा और सोचा। चार माह बाद जब वे प्रतिनिध्ािमंडल का काम पूरा कर दक्षिण अफ्रीका लौट रहे थे तो उन्होंने सही जवाब देने के लिए जो लिखा वह ‘हिन्द स्वराज’ बना। उसकी प्रस्तावना से जानकारी मिलती है कि महात्मा गाँध्ाी ने वह पुस्तिका समाध्ाान के लिए लिखी। उसमें अपनी पहचान के हर पक्ष पर रोशनी डाली गई है। करीब बारह साल बाद जब उस पुस्तिका पर ही बहस होने लगी तो 1921 में उन्होंने लिखा कि ‘इस किताब में आध्ाुनिक सभ्यता की सख्त टीका की गई। मेरी मान्यता जो थी वह पहले से अध्ािक मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिन्दुस्तान आध्ाुनिक सभ्यता का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ ही होगा।’ महात्मा गाँध्ाी का यह निष्कर्ष था। वे इस नतीजे पर काफी छानबीन के बाद पहुँचे थे। जिसे महात्मा गाँध्ाी ने अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभ में ही खोज लिया था उसे जवाहरलाल नेहरू ने जेल में ढूंढ़ना शुरू किया। ‘भारत की खोज’ उन्होंने अपने ढंग से की। ऐसा लगता है कि वे बाहरी व्यक्ति की तरह भारत को खोज रहे थे। पत्रकार देवदत्त ने काफी पहले लिखा कि ‘नेहरू भारत को खोज नहीं पाए हैं। कुछ सवाल ही उठा सके।’ सही बात है कि नेहरू खुद भटके और देश को भी भरमाया। उनकी एक चिट्ठी का जिक्र चन्द्रशेखर के भाषण में आया था। वह 1928 की चिट्ठी है। उसमें पंडित नेहरू महात्मा गाँध्ाी को लिखते हैं। ‘आपने कहीं कहा है कि भारत को पश्चिम से कुछ नहीं सीखना है। और भारत अपने पुराने दिनों में ही सभ्यता की एक संपूर्ण ऊँचाई पर पहुँच चुका था। मैं आपके इस विचार से असहमत हूँ। मेरा मानना है कि अपनी औद्योगिक पहुँच के बल पर कुछ किन्तु और परन्तु के साथ पश्चिम की औद्योगिक संस्कृति भारत को जीत लेगी।’ आपने औद्योगिकीकरण की कुछ बुराइयों को मिलाया पर उसकी खूबियों पर ध्यान नहीं दिया है। इन बुराइयों को सब जानते हैं और उन्हें दूर करने की कोशिशें हो रही हैं। पश्चिम में विद्वान लोग मानते हैं कि ये बुराइयाँ औद्योगिक व्यवस्था की नहीं, पूँजीवाद की हैं।’ इसे सुना कर चन्द्रशेखर ने टिप्पणी की कि ‘मैं नहीं जानता आज की आर्थिक नीतियाँ पूँजीवाद का ही विकृत रूप है या विकसित रूप है।’ असल में यह उन्होंने अपने लहजे में कहा। पर जहाँ वे निशान लगा रहे थे वह यह है- ‘हर राष्ट्र का अपना एक व्यक्तित्व होता है। जो राष्ट्र अपने अतीत की उपलब्ध्ाियों, उसके कल्याणकारी प्रवृत्तियों और मान्यताओं को भुला देता है वह न तो अपनी वर्तमान समस्याओं को समझ सकता है और न एक उज्जवल भविष्य की रचना में समर्थ हो सकता है।’ यही नेहरू का वह रवैया है जो आखिर तक बना रहा। आजादी से पहले महात्मा गाँध्ाी ने पहल की। उनको लिखा कि आओ सोचे कि अनूठे चन्द्रशेखर ध् 55 56 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर देश को किस रास्ते पर ले जाना है। पुनर्निर्माण की प्रक्रिया और दिशा क्या होगी? उन्होंने जानना चाहा कि हिन्द स्वराज पर नेहरू की राय क्या है? नेहरू का जवाब मिला कि हिन्द स्वराज अप्रासंगिक है। उसी हिन्द स्वराज को चन्द्रशेखर ने सही जवाब माना। वे सभ्यता को सामथ्र्य का स्रोत समझते थे और यही उन्होंने अपनी भाषण से पूरे देश को समझाया। हिन्द स्वराज के हवाले से उन्होंने सभ्यता की परिभाषा दी। ‘सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के मायने हैं नीति का पालन करना।’ यह कह कर वे पूरा परिप्रेक्ष्य बदल रहे थे। आजादी के बाद जो रास्ता शासकों ने चुना वह उल्टा था। संविध्ाान सभा से ही गलत शुरूआत हो गई। अपनी जड़ों को पहचानने के प्रयास न तब हुए और न आज हो रहे हैं। काँग्रेस के नेता जिस तरह तब थके हुए थे और हारे हुए थे वैसे ही कामचलाऊ विकल्प का सहारा वे सभी ले रहे हैं जिन्हें सत्ता हासिल हो जाती है। चन्द्रशेखर ने भूमंडलीकरण को सिर्फ आर्थिक चुनौती नहीं माना। वे चाहते थे कि खोज पूरे विकल्प की हो। इसमें राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट को भी ध्यान में रखना होगा। अपने व्याख्यान में उन्होंने जो प्रश्न उठाए वे आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं। इसलिए पूरे विकल्प की खोज का यक्ष प्रश्न अपनी जगह पर तब से ही कायम है। (लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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