मेरे पिता के लिए रोई थी हरिजन बस्ती

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मेरे पिता सदानन्द सिंह जी मुझसे बातचीत कम करते थे, जैसा उन दिनों रिवाज था। वे उग्र स्वभाव के थे, जैसे गाँव के ठाकुर होते हैं। लोग उनसे बहुत घबराते थे। अपने गाँव के ही नहीं, आसपास गाँव के लोग भी। वे हर जगह पंचायत में जाते थे। कोई कुछ गलत बोल दे तो उसको डांट देना या गाली दे देना उनके लिए साध्ाारण-सी बात थी। लेकिन उनमें कुछ ऐसा था जिसकी वजह से लोग उन्हें प्यार भी बहुत करते थे। मऊ के हाईस्कूल में पढ़ते समय की एक घटना मुझे याद है। एक बार मैं मऊ से घर लौट रहा था। ट्रेन 4 बजे भोर में मेरे गाँव के पास के स्टेशन पर पहुँची। मेरा सामान भारी था। स्टेशन के एक परिचित हलवाई के पास अपना सामान रख कर मैं पैदल गाँव की ओर चल पड़ा। पैदल के अलावा घर जाने का दूसरा कोई रास्ता नहीं था। स्टेशन से गाँव 5-6 किलोमीटर दूर है। जब मैं गाँव के नजदीक आ गया तो पिता जी दूर से ही दिखे, वे गाँव से कहीं बाहर जा रहे थे। मेरे गाँव के बाहर ही रास्ते में हरिजन बस्ती है। मैं हरिजन बस्ती के तरफ से ही आ रहा था। पिता जी ने मुझे रोक कर पूछा कि मैं हरिजन बस्ती की तरफ से क्यों लौट रहा हूँ? मैंने उन्हें बताया कि मेरा सामान स्टेशन पर है। उसे ले आने के लिए मैं किसी से कहने गया था। पिता जी ने पूछा कि क्या कोई तैयार नहीं हुआ? मैंने कहा कि जो मिले, वे व्यक्तिगत काम में फंसे हैं। फिर पिता जी ने मुझे यह कहा कि तुम घर चलो। वे हरिजन बस्ती की तरफ चले। अभी मैं ज्यादा दूर नहीं गया था कि मैंने सुना, पिता जी उस बस्ती में कुछ घरों के सामने गुस्से से बरस रहे हैं। वे कह रहे थे, मेरा लड़का एक छोटे से काम के लिए आया था तो सब लोग आज ही व्यस्त हो गये। मैंने दूर से ही देखा कि जिस आदमी के घर में पहले गया था, वह अपने घर से निकल कर तेजी से स्टेशन की ओर जा रहा है। मुझे आश्चर्य हुआ। जब वह आदमी स्टेशन से सामान लेकर मेरे घर आया तो उस जमाने में उसे मेहनताने के बतौर मैंने एक चवन्नी देनी चाही। पिता जी ने यह देखा तो मुझ पर बहुत बिगड़े। गुस्से में बोले, ‘‘रखो चवन्नी,’’ और वहीं खड़े किसी आदमी से कहा: अन्दर से इसके लिए अनाज ला दो। उन्होंने मुझे मजदूर को चवन्नी नहीं देने दी। पर इससे अध्ािक कीमत का अनाज देने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। ये थीं जमींदारी प्रथा की मान्यताएँ। गुस्सैल स्वभाव के बावजूद वे अपने लोगों से बहुत प्यार करते थे। उनकी रक्षा के लिए तत्पर रहते थे। इसका उदाहरण मुझे तब मिला जब उनका निध्ान हुआ। पूरी हरिजन बस्ती उनके लिए रोई। उनका कहना था कि मेरे पिता जी बेशक उन्हें डाँट लेते थे लेकिन उनके रहते कोई दूसरा उन लोगों को नहीं डांट सकता था।

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