ताउम्र आम आदमी के प्रवक्ता रहे चन्द्रशेखर

अरविंद कुमार सिंह  


देश के शिखर राजनेता और पूर्व प्रध्ाानमंत्री चन्द्रशेखर की संसदीय पारी लंबी रही। वे चार दशकों से अध्ािक तक भारत की संसद के सदस्य रहे और इस दौरान अपने भाषणों और कार्यकलापांे से संसदीय गरिमा को नयी बुलंदी प्रदान की। उनको उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार से भी नवाजा गया। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह रही कि वे स्वयं में एक संस्था थे जिन्होंने दलगत राजनीति से परे हट कर न जाने कितने युवा सांसदों को प्रखर और मुखर सांसद बनाने की ताकत दी। समय के साथ बहुत बड़े-बड़े राजनेताओं के विचार बदलते रहे हैं। लेकिन चन्द्रशेखर जी के साथ ऐसा नहीं था। संसद के दोनों सदनों में उनके भाषणों का अध्ययन करने पर इस बात का साफ अंदाजा हो जाता है कि उन्होंने बुनियादी मसलों पर ही सबसे अध्ािक जोर दिया और जो कहा उस पर कायम रहे। संसद की गरिमा और गौरव की बहाली के लिए वे आखिरी सांस तक प्रयासरत रहे। चन्द्रशेखर का संसदीय जीवन 1962 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से राज्यसभा सदस्य बनने के बाद आरंभ हुआ। 1968 में दूसरी बार और 1974 में तीसरी बार राज्यसभा के सदस्य बने। 1977 में बलिया से सांसद पहली बार लोकसभा चुनाव में विजयी हुए और 1980, 1989, 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 में अपनी बलिया सीट से ही जीत कर संसद में पहुँचते रहे। राजनीतिक बयार कैसी भी बह रही हो, बलिया में आकर उनके सामने ठहर जाती थी। केवल एक मौके पर यानि 1984 में वे पराजित हुए लेकिन इससे उनकी कद-काठी या राजनीतिक शैली में कोई अंतर नहीं आया। संसद के भीतर पहुँच कर वे जो काम करते थे वह संसद के बाहर से रह कर करते रहे। हालाँकि उनके पास तब भी संसद में पहुँचने का विकल्प मौजूद था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। और 1989 में वे लोकसभा में बलिया और महराजगंज दोनों सीटों से विजयी हुए। हालाँकि उन्होंने बलिया सीट को ही चुना और महराजगंज से त्यागपत्र दे दिया। ताउम्र आम आदमी के प्रवक्ता रहे: चन्द्रशेखर ध् 77 78 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर उत्तर भारत की तमाम सीटों पर राजनीतिक उतार-चढ़ाव के चलते कई दिग्गज नेता पराजित होते रहे। लेकिन चन्द्रशेखर जी अपने व्यक्तित्व के नाते लगातार संसद में लगातार चुन कर आते रहे और हमेशा आम आदमी के प्रवक्ता और देश की एक मजबूत आवाज बने रहे। भले ही और दलों की तुलना में उनकी राजनीतिक शक्ति सीमित रही हो, वे सत्ता से दूर रहे हों लेकिन बुनियादी सवालों पर उनकी आवाज दूर तक जाती रही है। यही उनकी ताकत थी जो उनको राजनीतिक मुख्यध्ाारा में सबसे अलग और ऊँचे स्थान पर रखती थी। कोई भी सत्तापक्ष रहा हो या विपक्ष दोनों के लिए उनके कहे शब्दों के मायने थे। वे हर शब्द नाप-तौल कर बोलते थे। उनका अध्ययन और जमीनी जुड़ाव व्यापक था इस नाते उनके शब्दों की ताकत औरों से अलग थी और संसद में चाहे कितना भी गतिरोध्ा क्यों न रहे, लेकिन चन्द्रशेखर बोलना आरंभ करते तो जैसे सन्नाटा पसर जाता था। हर कोई उनकी कही बातों को आत्मसात करने की कोशिश करता था। चन्द्रशेखर जी जब पहली बार 1962 में उच्च सदन यानि राज्यसभा पहुँचे तो उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे शिखर राजनेता भारत के प्रध्ाानमंत्री थे। चन्द्रशेखर जी से उनका औपचारिक परिचय नहीं था। जब चन्द्रशेखर जी का पहला भाषण हुआ तो वह इतना प्रभावशाली था कि पंडित जवाहर लाल नेहरू भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। उन्होंने कालाकांकर के दिनेश सिंह से पूछ ही लिया कि यह दाढ़ी वाला नौजवान कौन है। उनकी वाणी में ताकत जनता से आती थी और वे हमेशा राजनीतिक लाभ-हानि से परे आम जनता के मुखर प्रवक्ता बने रहे। अगर वे चाहते तो मौन रह कर सत्ताओं के केन्द्र बने रह सकते थे, लेकिन बागी बलिया की माटी के इस सपूत का अपना अलग ही मिजाज था। ध्ाारा के खिलाफ खड़े होना और जनता के सरोकारों पर खरी-खरी बातें कहना, भले ही उससे उनका नुकसान क्यों न हो। उनके कथनों की कैसी भी व्याख्या की जाये, लेकिन चन्द्रशेखर जी की जीवन भर की राजनीति में यह मूल तत्व हमेशा बरकरार रहा। यह उनकी सबसे बड़ी ताकत रही। राज्यसभा में पहली बार आने के बाद से ही चन्द्रशेखर जी के एजेंडे पर वंचित और शोषित तबके रहे। उनके हितों के लिए उन्होंने संसद और संसद के बाहर लगातार आवाज उठायी। वे गंभीर मुद्दों पर इतनी तैयारी के साथ अपनी बात रखते थे कि किसी को उनकी बात काटने के लिए तर्क नहीं सूझता था। वे संसद की सर्वोच्चता और गरिमा के प्रति हमेश संवेदनशील और समर्पित रहे। उनकी राजनीतिक शैली के आलोचक रहे हैं लेकिन उनके संसदीय आचरण पर कभी किसी ने उंगली नहीं उठायी। संसद की मर्यादा बनी रहे, इस पर उनका हमेशा जोर रहा। चन्द्रशेखर जी मानते थे कि संसदीय लोकतंत्र को हम तभी सुचारु रूप से चला सकते हैं जब आपसी विचार-विमर्श हो। और एक-दूसरे के विचारों को यथासंभव समाहित कर हम उसे आगे बढ़ायें। चन्द्रशेखर जी देश के पहले ऐसे पूर्व प्रध्ाानमंत्री थे जिनको 1995 में भारत के सर्वश्रेष्ठ सांसद का सम्मान प्रदान किया गया था। यह सर्वोच्च संसदीय सम्मान गिने चुने सांसदों को ही मिल सका है। अपने इसी गुणों के नाते ही चन्द्रशेखर जी को पहली बार बनायी गयी लोकसभा की आचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इसका गठन 16 मई, 2000 को हुआ। 15 सदस्यीय आचार समिति की पहली रिपोर्ट 31 अगस्त 2001 को आयी जिसमें सिफारिश की गयी कि आचार संबंध्ाी विद्यमान सभी मानदंडों और अध्यक्ष के निर्देशों को यथा उपबंध्ाित कड़ाई से लागू किया जाये। लेकिन ये तो चंद बानगियाँ हैं। वे स्वयं में एक संस्था थे और उनसे राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा हासिल करके आगे बढ़ने वाले तमाम लोग आज भी अलग स्थान रखते हैं। लेकिन चन्द्रशेखर जी संसद में रहे और बहुत सी ताकतवर राजनीतिक हस्तियों से उनके गहरे संबंध्ा रहे फिर भी वे सत्ता से दूर रहे। 1989 में उन्होंने कहा भी था कि 1962 से 1984 तक लगातार संसद में रहने के बावजूद कभी मेरे मन में किसी पद या ओहदे पर पहुँचने की लालसा नहीं जगी। मैं सत्ता के नजदीक रहते हुए भी कभी किसी के पास कुछ पाने के लिए नहीं गया। यह बात सभी जानते हैं कि चन्द्रशेखर जी ने अगर अपने समकालीन कई नेताओं की तरह अपने भीतर थोड़ा बदलाव करने की कोशिश की होती तो वे लगातार सत्ता के केंद्र बने रहते लेकिन वे अलग ही माटी के बने हुए थे। यह चन्द्रशेखर जी ही थे जिन्होंने पहली बार औद्योगिक घरानों के एकाध्ािकार के खिलाफ 1966 में आवाज उठायी। तब वे काँग्रेस में आ चुके थे। इस मामले पर काफी हंगामा हुआ और हजारिका आयोग बैठा। उनके इस मुखर विरोध्ा को मोरारजी देसाई ने तभी से मन में बिठा कर गांठ बांध्ा ली थी। इसी तरह राजाओं-महाराजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति और बैंकांे के राष्ट्रीयकरण में भी उनकी भूमिका रही। ताउम्र आम आदमी के प्रवक्ता रहे: चन्द्रशेखर ध् 79 80 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर जी के राजनीतिक आदर्श महान नायक आचार्य नरेन्द्र देव थे। चन्द्रशेखर जी उनके बेहद करीबी और स्नेहपात्र थे। आचार्य नरेन्द्र देव के व्यक्तित्व और चरित्र की छाया चन्द्रशेखर जी पर हमेश बनी रही। और इसी नाते चन्द्रशेखर जी ने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। अगर वे चाहते तो सत्ता का केन्द्र बने रहते और 1972 में तत्कालीन प्रध्ाानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी से सीध्ाा टकराव न मोल लेते। यह उनका ही बूता था कि इन्दिरा गाँध्ाी के खुले विरोध्ा के बाद भी वे शिमला में काँग्रेस की केन्द्रीय चुनाव समिति और काँग्रेस कार्यसमिति के सदस्य के चुनाव में विजयी रहे। उस दौरान इन्दिरा गाँध्ाी ने उनका मुखर विरोध्ा किया था तो भी वे जीते और उनके एकाधिकारवादी सोच को चुनौती दी। यही नहीं उन्होंने सत्ता की जगह जेल का वरण किया और लोकतांत्रिक मूल्यों की राजनीति को तवज्जो दी। चन्द्रशेखर जी जब 1964 में दिग्गज अशोक मेहता के साथ काँग्रेस में शामिल हुए तो कुछ ही सालों में यानि 1967 में काँग्रेस संसदीय दल के सचिव भी बन गये। बाद में वे काँग्रेस की सबसे बड़ी नीति निधर््ाारक संस्था काँग्रेस कार्यसमिति के सदस्य भी बने। लेकिन इन जगहों पर भी उन्होंने आम लोगों के हितों की नीतियों की पैरोकारी की। वे यह मानते थे कि राजनीति संभावनाओं का खेल है। लेकिन विरोध्ा की राजनीति पर उनकी एक अलग ही राय थी। उनका मत था कि किसी से विरोध्ा की राजनीति विवशता में नहीं करायी जा सकती है। विरोध्ा की राजनीति संकल्प से होती है। हाँ सरकारी पक्ष की राजनीति विवशता या मजबूरी में हो सकती है। उनका जिनसे राजनीतिक मतभेद रहा वह मनभेद नहीं रहा। वे मतभेदों के साथ खूबियों को भी आत्मसात करते थे। उनका चैध्ारी चरण सिंह से कई मसलो पर मतभेद रहा। वे साफगोई से इसे मानते हुए कहते भी थे कि उनसे कई विषयों पर मतभेद रहा है, यह मैं स्वीकार करता हँू लेकिन वे जिन शक्तियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उनकी अवहेलना करके परिवर्तन की राजनीति की बात नहीं सोची जा सकती। दावे बहुत से लोग कर सकते हैं। लेकिन चन्द्रशेखर जी, महात्मा गाँध्ाी और चंद बड़े नेताओं के साथ अपवाद थे जिन्होंने देश के करीब सभी हिस्सों को बहुत करीब से देखा था। उनकी भारतयात्रा ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। 6 जनवरी, 1984 को कन्याकुमारी से 4260 किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हुए चन्द्रशेखर जी 25 जून, 1983 को दिल्ली के राजघाट पर पहुँचे थे। यात्रा के दौरान वे लाखों लोगों में मिले और देश की जमीनी हकीकत को आँखों से देखा। वे उन चंद नेताओं में थे जिनका संपर्कों का दायरा देश के सभी कोनों में ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया आौर उन देशों में फैला था जहाँ लोकतांत्रिक शक्तियाँ काम कर रही थीं। चन्द्रशेखर जी सिद्धांतवादी राजनीति के प्रतीक थे। सांसद के रूप में उन्होंने हमेशा शोषित-वंचित तबके की आवाज को मुखरित किया। समाजिक बदलाव के पक्ष में प्राथमिकता दी। भूमि सुध्ाार और बैंकों के राष्ट्रीयकरण की मांग उठाने वाले वे चंद नेताओं में थे। देश की समस्याओं का गहन अध्ययन करके चन्द्रशेखर जी, मोहन ध्ाारिया और कृष्णकांत ने जो 10 सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया था, उसके लिए ऐसा दबाव बनाया कि इसे 1969 में इन्दिरा गाँधी को स्वीकार करना पड़ा। लेकिन चन्द्रशेखर जी निंदा या आलोचना से परे अपनी राह पर हमेशा चलते रहे। आपरेशन ब्लू स्टार पर उन्होंने जो कहा उस पर हमेशा कायम रहे। जिस विषय पर उन्होंने राय रखी, उससे कभी उन्होंने यूटर्न नहीं किया। जैसे जब सारा देश पंजाब समझौते की तारीफ करते नहीं थक रहा था तब चन्द्रशेखर जी ने उसका विरोध्ा किया। उनकी कही बातें सच हुईं क्योंकि वे दूरदर्शी थे और हमेशा राष्ट्र उनके विचार के केंद्र में रहा। 1945 से 2007 तक का चन्द्रशेखर जी का राजनीतिक जीवन बताता है कि वे ताउम्र आम आदमी के प्रवक्ता बने रहे। अपनी शुरुआती राजनीति में उन्होंने गन्ना किसानों और मोदी नगर की कपड़ा मिलों के प्रभावी आन्दोलन से अपने नेतृत्व की ध्ााक सब पर जमा दी। इसे लेकर उनको दो माह जेल में भी बिताना पड़ा। अपनी शुरुआत से ही चन्द्रशेखर जी भाषण कला के ध्ानी और स्पष्ट वक्ता थे। संसद में जब वे संेट्रल हाल में बैठते तो उनके आसपास पत्रकारों और तमाम दिगगज राजनेताओं का जमावड़ा होता था। तो युवा राजनेता उनकी स्नेह छाया में कुछ न कुछ सीखने के इरादे से लंबा समय लगाते थे। उनकी तमाम खूबियाँ थीं जिसके नाते उनको सबका सम्मान मिला। चन्द्रशेखर जी की आर्थिक नीतियाँ बहुत स्पष्ट थीं। ग्रामीण भारत के उन्नयन का मसला रहा हो या फिर आर्थिक उदारीकरण, सब पर उनका साफ विचार था। उनको देश की समस्याओं की गहरी समझ थी और निदान का वैकल्पिक माॅडल भी उनके पास था। वे उन चंद नेताओं में थे जिन्होंने भूमंडलीकरण और नयी आर्थिक नीति के दुष्प्रभावों पर सबसे पहले आवाज उठायी थी। उनकी यह आवाज सब पर भारी थी। उनकी कमी की कभी भरपाई नहीं हो सकती। ताउम्र आम आदमी के प्रवक्ता रहे: चन्द्रशेखर ध् 81 82 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर चाहे वह हवाला कांड रहा हो या फिर अति न्यायिक सक्रियता जब कोई भी राजनेता मुँह नहीं खोल रहा था तो उन्होंने मुँह खोला और जो कहा वही सच हुआ। कल्पनाथ राय को जेल हुई तो उनके पक्ष में खड़े होने वाले वे पहले नेता थे। कल्पनाथ राय आखिर निर्दोष साबित हुए। चन्द्रशेखर जी प्रेस की आजादी के प्रबल पक्षध्ार थे। वे कहते भी थे कि मेरा पहला वक्तव्य 1954 में लखनऊ में प्रकाशित हुआ था। तबसे अब तक कोई बता दे कि हमने अपने किसी भी विषय में प्रकाशित खबर का खंडन किया हो। मैं सही मायनों में पत्रकारों की आजादी में विश्वास करता हँू। चन्द्रशेखर जी ने 1969 में दिल्ली से यंग इंडियन का प्रकाशन आरंभ किया। यह गाँध्ाी जी की पत्रकारिता से प्रेरित प्रकाशन था। यंग इंडियन देश की सामाजिक-राजनीतिक हालात की ध्ाड़कन बना रहा। उसमें उनके खरे विचारों की अभिव्यक्ति होती थी। इसमें प्रकाशित लेखों का हवाला संसद ही नहीं तमाम प्रकाशनों में दिया जाता रहा। चन्द्रशेखर जी अपने विचारों की अभिव्यक्ति बड़े तीखे अंदाज में करते थे। लेकिन किसी भी मसले को वह तथ्यों के आध्ाार पर ही देखते और रखते थे। चन्द्रशेखर जी की पत्रकारिता में किसी भी समस्या की समीक्षा बेबाकी से होती थी। बेबाकी और निष्पक्षता के कारण वह बौद्धिक वर्ग में काफी लोकप्रिय रहा। यंग इंडियन में चन्द्रशेखर जी के अनूठे पत्रकार रूप का दर्शन होता है। चन्द्रशेखर जी संवाद के पक्षध्ार थे। उन्होंने इसी सूत्र से तमाम अनसुलझी पहेलियों को सुलझाने की कोशिश की। राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि अगर चन्द्रशेखर जी कुछ दिनों तक प्रध्ाानमंत्री बने रहते तो अयोध्या विवाद सुलझ सकता था। वे ध्ार्मनिरपेक्षता के प्रबल पक्षध्ार थे। वैचारिक स्पष्टता और दूरदर्शिता तो उनमें थी ही लेकिन उनमें साहस कूट कर भरा हुआ था। तभी वे साहसिक कदम उठते समय कभी परहेज नहीं करते थे। उनको भले ही कितनी बड़ी राजनीतिक कीमत क्यों न चुकानी पड़ी हो, उन्होंने कोई परवाह नहीं की। चन्द्रशेखर जी की तमाम खूबियाँ थीं। इसी नाते सत्ताओं से दूर रहने के बावजूद उनके राजनीतिक जीवन में कुछ ऐसे मौके या जिम्मेदारियाँ स्वतः आ गयीं जिनको पाने के बाद कोई भी सत्ताओं में बना रहना पसंद करता। लेकिन चन्द्रशेखर जी ध्ाारा के खिलाफ चलने के लिए बने थे। चाहे देश की पहली गैर काँग्रेसी सरकार यानि जनता पार्टी की सरकार के दौरान जनता पार्टी के नेतृत्व देने का मसला रहा हो या फिर देश का प्रध्ाानमंत्री बनने का। जो जिम्मेदारियाँ उनको मिलीं, उसे उन्होंने बखूबी निभाया। और इन पदों की गरिमा को बढ़ाने के साथ ऐसी लंबी लकीर खींची जिनको पार कर पाना किसी के लिए आसान नहीं। चन्द्रशेखर जी के पास तमाम विषयों का अनूठा ज्ञान रहा है। लेकिन वे खास तौर पर ग्रामीण भारत और खेती बाड़ी की उपेक्षा पर खास चिंतित थे। उनका देश में खेती बाड़ी की उपेक्षा करके विकास की बात सोचना दिवास्वप्न है। वे मानते थे कि हम अनाज में आत्मनिर्भरता चाहते हैं, तो खेती की ओर ध्यान देना अनिवार्य है। लेकिन खेती-बाड़ी के पतन और कृषि क्षेत्र में फैली अशांति के पीछे ऐसी ताकतों का हाथ भी मानते थे जो दुनिया की अर्थव्यवस्था पर हावी होना चाहते हैं। ये केवल कृषि जिंसों को ही नहीं कृषि नीति को भी प्रभावित करती हैं। और इनके पास प्रचार, आध्ाुनिक अन्वेषण और भूमंडलीकरण से प्राप्त अध्ािकार और सब कुछ है। और वे भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों के किसानों के लिए संकट खड़ा कर रहे हैं। इसी का कुफल है कि अफ्रीका के बहुत से देशों में परंपरागत खेती बर्बाद हो गयी। पहले तो नकदी फसलों का लालच देकर किसानों को परंपरागत खेती से मोड़ दिया गया। मगर बाद में इन वस्तुओं की इतनी बुरी दशा हुई कि किसान अपनी परंपरागत खेती से भी उखड़ गए और नयी खेती से भी उनका मानना था कि दुनिया के सभी देश कोशिश करते हैं कि खेती से इतना अन्न पैदा हो जाए कि अपने लोगों को पेट भर सके। पर हम यह भी जरूरी नहीं समझते कि बढ़ती आबादी को देखते हुए खेती के विकास का निरंतर प्रयास करें। चन्द्रशेखर जी खुद किसान परिवार से आते थे और उनके मन में कृषक समुदाय के प्रति हमेश दर्द रहा। वे किसानों के वाजिब दाम और उनकी लूट के खिलाफ मुखर रहे। और इस बात की तो उनको खास चिंता थी कि खेती में संपन्न कहे जाने वाले राज्य पंजाब, महाराष्ट्र और आंध्ा्र प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। चन्द्रशेखर जी ने इन सवालों पर सबसे पहले लोगों को आगाह किया था। चन्द्रशेखर जी की लगातार यह चिंता थी कि कई राजनीतिक दल जनता से जुड़े सवालों को नजरंदाज कर रहे हैं। वे साध्ाारण मानव की जरूरतांे के ताउम्र आम आदमी के प्रवक्ता रहे: चन्द्रशेखर ध् 83 84 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर सवाल पर सोचने के बजाय भावनाओं से खेल कर राजनीतिक समर्थन हासिल करने का प्रयास करते हैं। ध्ार्म और क्षेत्र के आध्ाार पर राजनीति हो रही है। लेकिन बुनियादी सवालों को बहुत दिनों तक नजरंदाज करने से भारत का भला नहीं होने वाला है। मैंने चन्द्रशेखर जी की राजनीति को 1983-84 से काफी नजदीक से देखा। उनके समीप रहने और उनके साथ कई बार दौरों पर जाने का मौका भी मिला। वे ऐसे राजनेता थे जो दूर दराज के इलाकों में बिना तामझाम के पहुँचते थे और लोगों से मिलते-जुलते थे। केवल चुनाव के दिनों में वे लोगों से संवाद नहीं करते थे बल्कि पूरे साल उनका क्रम जारी रहता था। ऐसी दुर्गम जगहों पर भी मैंने उनके साथ यात्राएँ कीं और उनके विशाल ज्ञान भंडार के तमाम पहलुओं को देखा और उनके प्रति आस्थावान भीड़ को भी। कई बार बलिया और भुवनेश्वरी आश्रम में भी गया। कई समारोहों को भी देखा। मीडिया उनके प्रति पूर्वाग्रही था लेकिन उसकी चन्द्रशेखर जी ने कभी परवाह नहीं की। स्वाभिमानी इतने थे कि किसी की परवाह नहंीं करते थे। उनका राजनीतिक कृत्य मीडिया नहीं आम जनता को केंद्र में रख कर चलता था। वे अपने तरीके के अनूठे राजनेता थे। आज के दौर में उनके विचार और अध्ािक प्रासंगिक तथ्य हैं और अंध्ोरे में दिशा देने का काम करते हैं। (लेखक देश के जाने-माने पत्रकार हैं)

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