मृत्यु के बाद नहीं टूटा चन्द्रशेखर से नाता

कृपाशंकर सिंह  


राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर जी से मेरा माटी और बोली का वह अटूट रिश्ता है जो जन्म से प्रारम्भ होता है और मृत्यु के बाद भी नहीं टूटता है। आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व झोंक देने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों में रिश्तों का यह जुड़ाव आमतौर पर पाया जाता है। खासतौर से उन लोगों में थोड़ा अध्ािक पाया जाता है जो अपनी माटी से दूर माटी का दीप जलाए हुए हैं। इस रिश्ते में तब और वृद्धि होती है जब किसी अपनी माटी के सपूत के तेज से पूरा देश प्रकाश पाने लगता है। मेरा रिश्ता तो उनसे केवल माटी नहीं, उसी जमात का भी है जिससे हम दोनों आए हैं। इसलिए उनके प्रति मेरी चाहत और रिश्तों में मजबूती अन्यों से थोड़ी अध्ािक रही। रिश्तों का यह जुड़ाव उनसे तब से है, जब मैं उनके बारे में केवल इतना जानता था कि अपनी माटी और अपनी जमात का यह आदमी (जो अब मेरी नजरों में राष्ट्रपुरुष के ओहदे पर है) देश में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रीवीपर्स के खात्में का नायक है। जो काँग्रेस में रह कर भी केवल काँग्रेसी नहीं रहा, देश का युवा तुर्क रहा। इसलिए राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर जब तक वह काँग्रेस में थे, उनकी चर्चा कर महाराष्ट्रीय समाज में अघाना मेरी और मेरे जैसे मुंबईवासियों के लिए रोज की बात थी। राज की बात यह है कि जब वह जयप्रकाश जी के पक्ष में खड़े होकर काँग्रेस से खिलाफ हो गए, जेल चले गए, तब भी मेरा उनके प्रति लगाव घटा नहीं। काँग्रेस के प्रति संपूर्ण निष्ठा, नेह और काँग्रेस में रहने के बावजूद मैं चन्द्रशेखर जी को कभी अपने हृदय से नायक की जगह से नहीं हटा पाया। सार्वजनिक जीवन के लम्बे सफर में मेरी उनकी देखा-देखी गाहे-बगाहे साल में दो-चार बार कहीं न कहीं हो ही जाती थी। कभी-कभार बातचीत भी होती थी। देश और समाज की स्थिति को लेकर भी और निजी भी। इस बातचीत में कभी-कभार वह केवल नेता रहते थे, कभी-कभार केवल एक राजनीतिक दल के मुखिया होते थे और कभी-कभार केवल संरक्षक होकर आदेश देते थे कि कृपा यह कर देना। मृत्यु के बाद नहीं टूटा चन्द्रशेखर से नाता ध् 87 88 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर इस सियासी और सामाजिक सफर में 10 नवम्बर का वह दिन आया जब चन्द्रशेखर जी देश के प्रध्ाानमंत्री हो गए। वह मुंबई आए। किन्हीं कारणों से मैं मुंबई हवाई अड्डे के भीतर नहीं पहुँच पाया। अपने हृदय के नायक को मुंबई में बतौर प्रध्ाानमंत्री करीब से देखने की इच्छा के तहत मुंबई हवाई अड्डे के बाहर खड़ा था। उनका काफिला हवाई अड्डे से बाहर निकला कि चन्द्रशेखर जी की नजर मेरे ऊपर पड़ गयी। वह गाड़ी रोकवाकर बोल पड़े, कृपा (कृपाशंकर सिंह) बाहर क्यों खड़े रह गए? अन्दर क्यों नहीं आए? उनके इस प्रश्न से मैं अभिभूत हो गया। मैं साथियों सहित आवाक यह सोच रहा था कि क्या कोई प्रध्ाानमंत्री होने के बाद भी अपने आदमी का इतना ख्याल कर सकता है? तब तक उनकी आवाज फिर आयी कि कृपा आओ, चलो। और, मैं उनके काफिले में शामिल हो गया। और, इसी घटना के साथ ही मेरा आत्मीय नायक चन्द्रशेखर मेरे हृदय का राष्ट्रपुरुष हो गया। मंुबई के एक जाने-माने पत्रकार हैं, भाई ओमप्रकाश जी। ध्ार्मयुग से जनसत्ता तक का सफर करने के बाद ओमप्रकाश जी ने खुद का समाचार पत्र भारत स्वराष्ट्र निकालने का फैसला लिया। उन्होंने चन्द्रशेखर जी को अपने समाचार पत्र के उद्घाटन के लिए निमंत्रण दिया। वह निमंत्रण स्वीकार आये और अपने संबोध्ान में अखबार की सभी पहलुओं की चर्चा करते हुए ओमप्रकाश की हौसला अफजाई की और कहा कि समाचार पत्र समाज की दिशा और दशा का स्पष्ट प्रतिबिम्ब होता है। अपनों के प्रति उनके स्नेह में कभी स्वास्थ्य भी आड़े नहीं आता था। मुझे याद है, बाबू शारदा प्रसाद सिंह की पुस्तक का विमोचन समारोह। चन्द्रशेखर जी बीमार थे। डाॅक्टर उन्हें कहीं आने-जाने से मना कर रहे थे। फिर भी वे आए और यंग इंडिया के जमाने से लेकर तब तक के संस्मरणों से घंटों प्रेरणा देते रहे कि देश और समाज के लिए कुछ करना ही मनुष्य के जीवन की असली सार्थकता है। इसलिए आवश्यक है कि आज यंग इंडिया में चन्द्रशेखर जी के लिखे लेखों और संपादकीय को खंगाला जाय, उसे नयी पीढ़ी के सामने रखा जाय। कोई ज्ञान बघारने की गरज से नहीं, केवल उसे बोध्ा कराने के लिए। आमतौर पर आजादी के बाद के अध्ािसंख्य राजनेता सत्ता और विपक्ष के गलियारों को ही राजनीति व समाजनीति माने बैठे हैं। चन्द्रशेखर जी इन लोगों से अलग थे। वह समझ चुके थे कि केवल इन गलियारों से देश की दिशा और दशा नहीं बदली जा सकती है। इसलिए वह निकल पड़े भारत यात्रा पर। इस यात्रा का एक साक्षी मैं भी हूँ। कन्याकुमारी से दिल्ली तक कठिन मार्ग में देश की विविध्ाता और विवशता से सीध्ो रूबरू होते हुए चन्द्रशेखर जी ने ध्ारातल की एक-एक समस्या को समझा। उन्हें लगा कि गाँवों से पलायन हो रहा है तो उन्होंने इसे लेकर सरकारों को तो आगाह किया ही, जगह-जगह भारत यात्रा केंद्र खोल कर इसे रोकने के कार्य में खुद लग गए। उन्हें लगा कि आने वाले दिनों में जल संकट एक बड़े संकट के रूप में सामने आएगा तो उन्होंने सरकारों पर दबाव बनाया कि वे इस दिशा में आगे आएं। किसानों की समस्या हो, कामगारों की, बुनकरों की समस्या हो या कपास की, चन्द्रशेखर जी हर मामले में मौलिक विचार रखते थे। अपने विचारों के प्रति वह काफी दृढ़ राय रखते थे। उनकी यह मौलिकता और दृढ़ता श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी और राजीव गाँध्ाी की हत्या के समय भी देखी गयी और पंजाब में उपजी विषम परिस्थिति के समय भी। रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में भी उन्होंने कबीर की तरह अपनी राय हमेशा स्पष्ट रखी और लोगों को समझाने का प्रयास किया इस मामले में आम सहमति का रास्ता ही सही रास्ता है। चन्द्रशेखर जी की चर्चा हो और भौंड़सी आश्रम की चर्चा न हो तो चर्चा अध्ाूरी रह जाएगी। आश्रम नाम से बोध्ा होता है कि यहाँ संतों-महात्माओं का जमावड़ा होगा। लेकिन था, इसके ठीक विपरीत। यहाँ अक्सर पर्यावरणविद, अर्थशास्त्री, विध्ािवेत्ता और समाजशास्त्री देशहित में चिंतन-मनन करते देखे जाते थे। यहाँ से देश को स्वालम्बन, चरित्र निर्माण, व्यावहारिक शिक्षा और वैज्ञानिक कार्यकौशल की जानकारी दी जाती रही है। यहाँ लगे हर पौध्ो की सेवा उन्होंने अपने हाथों से की है। उनका सपना था, हरित भारत-प्रदूषण मुक्त भारत। यहाँ आने वाले हर आदमी से वह इसकी चर्चा करते थे। इसके लिए विचार विनमय करते थे। इस विनमय में वह हमेशा किसी ज्ञानी की भूमिका में नहीं, हमेशा बड़े भाई की भूमिका में नजर आते थे। मित्रों, यह सच है कि राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर का जन्म इब्राहिम पट्टी, बलिया में हुआ है पर अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के बल पर वह संपूर्ण राष्ट्र की ध्ारोहर हैं। इब्राहिम पट्टी, बलिया से राष्ट्रपुरुष बनने तक के उनके सफर को शब्दों में बयाँ करना मेरे लिए सूरज को दिया दिखाने जैसा है। इसलिए सबसे पहले मैं इस बहुआयामी व्यक्तित्व के राष्ट्रपुरुष को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। उन सभी साथियों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिन लोगों मृत्यु के बाद नहीं टूटा चन्द्रशेखर से नाता ध् 89 90 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर ने राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर पुस्तक के प्रकाशन की जिम्मेदारी उठायी है। खासतौर भाई यशवंत सिंह जो देशभर में फैले चन्द्रशेखर जी के शुभेच्छुओं, स्नेहियों व प्रशंसकों के संस्मरणों को एक ध्ाागे में पिरोकर पुस्तक का रूप देने में लगे हैं। मित्रों आत्मीयता, सहजता, सहृदयता चन्द्रशेखर जी की सामान्य जीवन शैली थी। उनके सानिध्य में मुझे कभी भी औपचारिकता का बोध्ा नहीं हुआ। शायद यही कारण है कि उनसे जुड़ा तो बस जुड़ता ही चला गया। उन्होंने जीवन में हमेशा सामाजिकता को राजनीति से ऊपर माना। अच्छी बात यह है कि उनकी इस जीवन शैली की छाप उनके करीबियों में भी एक-दूसरे के लिए है। इस छाप का असर मुझ पर भी है। मृत्यु के बाद भी उनसे नाता न टूटने का एक प्रमुख कारण उनके जीवनशैली की यह छाप भी है। मित्रों, सच तो यह है कि राष्ट्रपुरुष के साथ बिताए हर पल और इस दौरान मिले हर शब्द एक विश्वसनीय दस्तावेज हैं। एक खजाना है जिसका जितना उपयोग किया जाए, उतना ही बढ़ेगा। अफसोस है कि जब यह खजाना जब उपलब्ध्ा था तो हम लोग इसकी कीमत उतना नहीं आंक पाये जितना आंकना चाहिए था। इसलिए अब एक-एक याद करनी पड़ रही है। इन यादों की कसौटी में कभी-कभार किसी दूसरे राजनेता को कसते हैं तो वह चन्द्रशेखर जी की तुलना में बौना लगने लगता है। उन्हें लेकर जो मुझमें बोध्ा है, वह केवल मुझमें नहीं है, बहुतों में है। उनकी 75वीं वर्षगांठ पर विज्ञान भवन में आयोजित समारोह में प्रध्ाानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के उद्गार में भी ये बोध्ा स्पष्ट नजर आते हैं। इस उद्गार में श्री वाजपेयी ने कहा था कि देश में पक्ष/प्रतिपक्ष की बात तो हम सभी करते हैं लेकिन निष्पक्षता से बड़े-बड़े राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर अपनी बात शिद्दत से रखने वाले माननीय चन्द्रशेखर जी को हम हों या माननीय सोनिया गाँध्ाी जी, अपने बीच सबसे करीब पाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मैं इस देश का प्रध्ाानमंत्री हूँ। बतौर प्रध्ाानमंत्री मैं देश देखता हूँ। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी को देखता हूँ। यहाँ श्रीमती सोनिया गाँध्ाी भी बैठी हैं जो नेता प्रतिपक्ष के रूप में देश देखती हैं और फिर काँग्रेस देखती हैं। उन्होंने चन्द्रशेखर जी की ओर इशारा करके कहा कि यहाँ एक निरपेक्ष भी बैठे हुए हैं जो केवल-केवल देश देखते हैं। मित्रों, इसमें कोई दो राय नहीं है कि राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर केवल देश के लिए सोचते थे और देश के लिए जीते थे। उनकी तरह जीना बहुत मुश्किल है। बावजूद इसके देश व समाज के भले के उनकी तरह की जीने की कोशिश होनी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि उनके उद्गार, उनके कृतित्व और उनके संस्मरण जन-जन तक पहुँचाने की। इसे सहेजना एक बड़ा काम है। इससे भी बड़ा काम है, उनके दिखाए रास्ते पर चलने और देश को ले जाने का। इसी सोच और संकल्प के तहत मैं कहता हूँ कि मृत्यु के बाद भी मेरा राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर से नाता नहीं टूटा है। मैं चाहता हूँ कि यह टूटे भी नहीं क्योंकि इसकी जरूरत है, एक समृद्ध एवं शक्तिशाली भारत के निर्माण के लिए। इसी उम्मीद के साथ राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर को कोटिशः नमन। (लेखक काँग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता और महाराष्ट्र सरकार में गृहमंत्री रहे हैं)

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