अवसर था चन्द्र शेखर जी के पचहत्तरवें जन्म दिन का, दिल्ली के विज्ञान भवन में जो भव्य आयोजन उस दिन किया गया था सत्ता पक्ष और विपक्ष के सभी दिग्गज नेता वहाँ मौजूद थे। तत्कालीन प्रध्ाानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी से लेकर कई पूर्व प्रध्ाान मंत्री मंच की शोभा बढ़ा रहे थे। अटल जी ने अपनी चुटीली शैली में जब यह कहा कि ‘‘संसद में एक सत्तापक्ष है और एक विपक्ष है, परन्तु चन्द्रशेखर जी निष्पक्ष है’ तो सारा हाल कई मिनट तक तालियों से गूँजता रहा। चन्द्रशेखर जी के व्यक्तित्व का यह सटीक वर्णन था। नेता, राजनेता तो अनेक हो सकते हैं और हैं भी। परन्तु राष्ट्र नायक होने के लिए व्यक्ति में कुछ विशेष गुण होते हैं जो उसे सामान्य राजनेताओं की पंक्ति से अलग खड़ा करता है। राष्ट्रनायक का विशेषण हम उसी व्यक्ति के लिए लगाते हैं जो वैयक्तिक, दलीय और राजनीति के तात्कालिक लाभ के बजाय राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानता है और उसी के अनुरूप आचरण करता है। इस कसौटी पर चन्द्रशेखर खरे उतरते हैं। उनकी पूरी जिन्दगी इसकी गवाह है। चन्द्रशेखर जी से मेरा प्रथम परिचय 1949 में इलाहाबाद में यंग सोशलिस्ट लीग के स्थापना सम्मेलन में हुआ। लेकिन वह परिचय सामान्य सा था। 1952-53 में वह सामान्य-सा परिचय तब प्रगाढ़ मित्रता में बदल गया जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपनी एम.ए. की पढ़ाई पूरी कर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में शोध्ा-छात्र के रूप में आये। उस समय मैं समाजवादी युवक सभा की विश्वविद्यालय शाखा का महामंत्री था। संयोग से हम दोनों ही राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी थे और हमारे विभागाध्यक्ष प्रख्यात समाजवादी विचारक प्रो. मुकुट बिहारी लाल थे। आचार्य नरेन्द्र देव जी उन दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उनके सुझाव को आदेशित मानते हुए चन्द्रशेखर शोध्ा का कार्य छोड़कर बलिया में सोशलिस्ट पार्टी का काम एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में करने के लिए सदैव प्रेरणा देती रहेगी चन्द्रशेखर की जीवनयात्रा ध् 99 100 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर चले गये। चन्द्रशेखर जी की पारिवारिक स्थिति से मैं पूरी तरह परिचित था। इस कारण उनके इस निर्णय ने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया। एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार ने किस प्रकार उनकी उच्च शिक्षा का बोझ उठाया होगा इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। उनके बड़े भाई राम नगीना सिंह एक अल्प वेतनभोगी सरकारी कर्मचारी थे, तथा परिवार के अन्य सदस्य यह मान बैठे थे कि पढ़ाई पूरी कर चन्द्रशेखर एक अच्छी नौकरी करेंगे और परिवार की आर्थिक स्थिति में सुध्ाार होगा। चन्द्रशेखर जी ने जब पार्टी का एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने का फैसला किया होगा तो निश्चय ही उनके मन पर परिवार की उम्मीदों और अपेक्षाओं का बोझ रहा होगा। परन्तु वे एक समतापूर्ण समाज बनाने के आदर्श से प्रेरित थे और उसके लिए बड़ी से बड़ी कीमत देने को तैयार थे। उनके बलिया चले जाने के बाद उनसे गाहे-बगाहे वाराणसी में मुलाकात होती थी। परन्तु शायद नियति ही हमें ठेल कर एक साथ लाना चाहती थी। 1954 में एम.ए. करने के बाद मैंने पी.एच.डी. के लिए शोध्ा कार्य शुरू किया। परन्तु फर्रुखाबाद में सिंचाई-कर के विरुद्ध चलने वाले आन्दोलन में डाॅलोहिया की गिरफ्तारी के बाद मैं कार्यकर्ताओं की एक टोली के साथ सत्याग्रह करने पहुँचा और चन्द्रशेखर जी उसी आन्दोलन में शामिल होने बलिया से आये। हमारी गिरफ्तारी एक साथ हुई और सजा होने के बाद हम दोनों पहले फतेहगढ़ जेल में और फिर बरेली जेल में साथ ही रखे गये। जेल जीवन में हम दोनों ने एक-दूसरे को अच्छी तरह से नये सिरे से पहचाना और हमारे बीच एक ऐसा दोस्ताना पनपा जो उनके जीवन पर्यन्त बना रहा। जेल से रिहा होने के बाद उनके आग्रह पर ही मैं बलिया में एक डिग्री कालेज में अध्यापन कार्य के लिए चला गया। उन दिनों वे पार्टी कार्यालय में प्रख्यात समाजवादी नेता जगन्नाथ शास्त्री के साथ निवास करते थे। मैं भी उनके साथ ही रहने लगा। पार्टी कार्यालय में, जिसे उन्होंने मानव निकेतन का नाम दे रखा था, शौचालय तक की सुविधा नहीं थी। भोजन-पानी की व्यवस्था बिल्कुल आकाश-वृत्ति पर निर्भर थी। उन्होंने मेरे भोजन के लिए एक होटल में व्यवस्था कर दी थी। मेरे आग्रह के बावजूद वे कभी-कभार ही मेरे साथ भोजन करते थे। अध्ािक आग्रह पर कहते पार्टी कार्यालय में और लोग हैं उन्हें बुरा लगेगा। आचार्य नरेन्द्र देव जी ने उनके भीतर छिपी प्रतिभा को पहचान लिया था। 1954-55 में जब प्रजा सोशलिष्ट पार्टी में टूट होने लगी तो उन्होंने चन्द्रशेखर जी और मुझे बुलाकर कहा कि प्रदेश पार्टी की स्थिति बड़ी खराब है तुम लोग एक साल के लिए लखनऊ चले आओ और प्रदश्ेा पार्टी का काम सम्हालो। बिना आगा-पीछा सोचे हम लोग लखनऊ आ गये। प्रदेश पार्टी का पूरा तन्त्र डाॅ. लोहिया के समर्थकों के हाथ में था। पार्टी कार्यालय भी उन्हीं लोगों के कब्जे में था। पार्टी फण्ड जैसी कोई चीज थी नहीं। कार्याल के नाम पर स्व. गेन्दा सिंह, जो उस समय विध्ाायक थे, का एक कमरा था। वह उनका निवास और पार्टी कार्यालय दोनों का था। थोड़े दिनों के बाद लाटूश रोड पर कार्यालय के नाम जो दो कमरे मिले वे जीर्ण-क्षीण अवस्था में थे। लगभग एक वर्ष का समय जो लाटूश रोड पर हमने बिताया उसमें मैंने चन्द्रशेखर जी के उन गुणों को देखा जो किसी आदर्श से अनुप्राणित व्यक्ति में होते हैं। व्यक्तिगत सुख-सुविध्ााओं से बेपरवाह वे बराबर सूबे का दौरा करते, कार्यकर्ताओं से प्रदेश पार्टी को सुचारु रूप से चलाने के लिए सहयोग का आग्रह करते और लखनऊ लौट कर चिट्ठी पत्री भेजते। अनियमित भोजन के कारण उन्हें आंव की शिकायत रहने लगी। वह उनके साथ जीवन भर लगी रही। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि उन्होंने अकेले दम पर पार्टी को नये सिरे से खड़ा कर दिया और उसी के परिणामसवरूप प्रजा सोशलिस्ट पार्टी 1957 के चुनाव में विध्ाान सभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी। कार्यकर्ताओं में उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि वे 1963 तक लगातार प्रतिवर्ष सम्मेलन में पार्टी के महामंत्री चुने जाते रहे। ऐसे भी मौके आये जब नेताओं के एक छोटे से वर्ग ने उन्हें अपदस्थ करने की कोशिश की। परन्तु प्रबल बहुमत से कार्यकर्ताओं ने उन्हें फिर चुन दिया। चन्द्रशेखर जी के व्यक्तित्व का एक पहलू लोगों को हैरत में डालता है। एक ओर उन्हें दिल से प्यार करने वालों की बहुत बड़ी संख्या थी, वहीं कुछ महात्वाकांक्षी लोगों के मन में वह ईष्र्या का भाव भी पैदा करता था। सदैव प्रेरणा देती रहेगी चन्द्रशेखर की जीवनयात्रा ध् 101 102 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर मैं समझता हँू चन्द्रशेखर उन कुछ राजनेताओं में थे जिन्हें प्रायः गलत समझा गया। 1964 में उनके काँग्रेस में प्रवेश और फिर उसमें निहित स्वार्थों के खिलाफ चलाये जाने वाले उनके अभियानों के कारण सुनियोजित ढंग से उनके विरुद्ध अनर्गल बातें फैलाकर लोगों के बीच गलतफहमियों का एक घटाटोप पैदा करने की कोशिश की गई। कितनी ही बार मैंने देखा कि जो लोग जाने-अनजाने उनके विरुद्ध किसी कारण वश अभियान चलाते थोड़े ही दिनों बाद उनके निकट आने पर उनके प्रशंसक बन जाते। स्व. वी.पी. सिंह ने जब बोफोर्स का मुद्दा उठाया तो एक समाचार-पत्र समूह उन्हें स्थापित करने में लगा हुआ था। उस समूह को यह लगा कि शायद चन्द्रशेखर जी उनकी राह में रोड़ा बन सकते हैं। फलतः उस समूह से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों में उन दिनों लगभग प्रतिदिन चन्द्रशेखर जी को कार्टून का विषय बनाया जाता। उन्हें इतने से ही सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने एक दिन समाचार छापा कि भौंडसी आश्रम के भारत यात्रा केन्द्र में अफीम की खेती होती है। चन्द्रशेखर जी के निकट रहने वाले पत्रकार कहते कि वे इसका प्रतिवाद करें। चन्द्रशेखर जी का एक ही उत्तर होता-झूठ के पाँव नहीं होते, देर-सबेर सच्चाई सामने आ ही जायेगी। हुआ भी ऐसा ही। वही सज्जन जो यह सब छापते थे किसी कारणवश चन्द्रशेखर जी के निकट आये और बाद में उनके अनेक अभियानों के साथी हुए। दरअसल उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था। उसमें छिपाव-दुराव जैसा कुछ था ही नहीं। पाठकों को यह जानकर शायद आश्चर्य होगा कि जिन्हें देश के लोग सर्वोच्च आध्यात्मिक पुरुष मानते थे वे लोग चन्द्रशेखर के प्रति आदर का भाव रखते थे। अगर आपको उनके यहाँ चन्द्रास्वामी से भेंट हो सकती थी तो वहीं आपको भगवान राम अवध्ाूत या ऐसे कोई और सन्त भी मिल सकते थे। चन्द्रशेखर जी किसी तरह की औपचारिक पूजा-पाठ नहीं करते थे। लेकिन वह दूसरे की आस्था का आदर करते थे। भगवान राम अवध्ाूत के आग्रह पर उन्होंने भोंड़सी आश्रम में भुनेश्वरी का एक मन्दिर बनवा दिया। इसी तरह एक सज्जन ने कोई मन्नत मान रखी थी और उसकी पूर्ति पर आश्रम में हनुमान जी का एक मन्दिर बनवा दिया था। विशेष अवसरों पर वे वहाँ होने वाले अनुष्ठानों में सम्मिलित होते थे। उनके प्रति सन्तों का आदर इस सीमा तक था कि हरिद्वार में एक सन्त एक भव्य मन्दिर बनवाना चाहते थे। उन्होंने चन्द्रशेखर जी से आग्रह किया कि वे उस मन्दिर का शिलान्यास करें। उन्होंने उनके आग्रह को स्वीकार किया। उस भव्य मन्दिर के प्रवेश-द्वार पर उन के नाम का शिलापट्ट अब भी लगा हुआ है। भारतीय संस्कृति के उच्चतम आदर्शों के वे पोशाक थे और हर ध्ार्म के प्रति उनके मन में आदर था। किसी भी ध्ार्म में वे कट्टरता विरोध्ाी थे। जो लोग यह प्रचार करते थे कि चन्द्र शेखर जी देश के सबसे ध्ानी राजनेता हैं। उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिस भारत-यात्रा ट्रस्ट की सम्पत्ति को वे चन्द्रशेखर की व्यक्तिगत मिल्कियत कहते थे उसके ट्रस्ट में चन्द्रशेखर ने अपने परिवार के किसी सदस्य को साध्ाारण ट्रस्टी तक नहीं बनाया था। आज परिवारवाद और वंशवाद के इस दौर में चन्द्रशेखर ने अपने दोनों पुत्रों को जिस तरह राजनीति से दूर रखा वह दूसरे राजनेताओं के लिए मिसाल है। चुनाव के दिनों में चन्द्रशेखर को प्रचुर ध्ान मिलता था। इसके बावजूद उनकी निस्पृहता बेमिसाल थी। मैंने अत्यन्त निकट से देखा था कि पैसा हाथ में आते ही वे उसे देने के लिए बेचैन हो जाते। उन्होंने पार्टी को मिलने वाले चन्दे का इस्तेमाल अपने लिए कभी नहीं किया। कितनी ही बार मैंने देखा कि पैसा बांटते-बांटते जब खत्म हो जाता और ऐसे उम्मीदवार आ जाते जिन्हें पैसा नहीं मिला था तो वे पैसा उध्ाार लेकर ऐसे उम्मीदवारों को संतुष्ट करते। मेरी जानकारी में यह है कि कई राष्ट्रीयकृत बैंकों के बड़े अध्ािकारी अपनी जिम्मेदारी पर उन्हें लाखों रुपये का कर्ज दे देते थे। उनकी साख सामान्यजन से लेकर बड़े-बड़े अध्ािकारियों के बीच समान रूप से थी। नितान्त अपरिचितों के बीच उनका जो सम्मान था वह किसी भी नेता के लिए ईष्र्या का विषय हो सकता है। एक बार हम लोग आगरा से दिल्ली कार से आ रहे थे। हमारे साथ राज्यसभा के सदस्य दयानन्द सहाय भी थे। रात 10 बज रहा था, दयानन्द जी ने कहा किसी ढाबे में खाना खा लिया जाय। सदैव प्रेरणा देती रहेगी चन्द्रशेखर की जीवनयात्रा ध् 103 104 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर खाना खाकर मैं बाहर बेसिन पर हाथ ध्ाो रहा था। ढाबे का मालिक आया। उसने पूछा कि ‘‘दाढ़ी वाले सज्जन चन्द्रशेखर जी हैं क्या?’’ मैंने हाँ कह दिया। दयानन्द जब पैसा देने गये तो उस ढाबे वाले ने पैसा लेने से इन्कार कर दिया। कहा मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि चन्द्रशेखर जी ने हमारे ढाबे पर खाना खाया। बाद में चन्द्रशेखर जी ने लगभग बिल के बराबर पैसा जो लड़के खाना खिला रहे थे उन्हें दिला दिया। ऐसा अनुभव मुझे दर्जनों बार उनके साथ यात्रा करते हुए हुआ। ऐसे अनुभव तब के हैं जब चन्द्रशेखर जी प्रध्ाान मंत्री नहीं हुए थे। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक और गुजरात से लेकर सुदूर पूरब में छोटे से छोटे गाँव में भी उन्हें देखने वालों की भीड़ लग जाती थी। वे सही मानों में राष्ट्रीय नेता थे। जो लोग उन्हें अपार सम्पत्ति का मालिक समझते थे उन्हें यह जानकर धक्का लगेगा कि ‘यंग इण्डियन’ के मुद्रक का लाखों रुपया आज भी बकाया है तथा उनकी डायरी का अंग्रेजी अनुवाद कम्पोज होकर पड़ा हुआ है और पैसे के अभाव में छप नहीं सका। ‘फक्कड़’ शब्द उन पर सटीक बैठता है। उनका आत्मविश्वास हद दर्जे का था। उसी आत्मविश्वास के चलते काँग्रेस के भीतर वे बड़ी से बड़ी शक्ति से टकरा सके। पहले मोरार जी से और बाद में श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी से। यह इतिहास का क्रूर व्यंग्य ही कहा जायेगा कि जिस इन्दिरा गाँध्ाी के समर्थन में 1969 से 1971 तक उन्होंने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया उन्होंने ही उन्हें 19 महीने आपात्काल में जेल की तन्हाई में रखा। वह केवल एक कारण से कि उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा उनके चुनाव को अवैध्ा घोषित करने के बाद काँग्रेस संसदीय दल की बैठक में श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी के नेतृत्व को अपरिहार्य बताते हुए जो प्रस्ताव आया था उसका अनुमोदन करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था। परन्तु चन्द्रशेखर जी ने कभी अपने उस फैसले पर अफसोस नहीं किया। इसी सन्दर्भ में उनके व्यक्तित्व के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू पर नजर जाती है। पराजित विरोध्ाी को उन्होंने कभी जलील नहीं किया। न उनके प्रति उन्होंने कभी कटुता का व्यवहार ही किया। 1977 के आम चुनाव के बाद जब काँग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और जनता पार्टी सत्ता में आ गयी तो जे.पी. के बाद वही दूसरे व्यक्ति थे जो श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी से अपनी पहल पर मिलने गये और उन्हें सांत्वना दी। ऐसे व्यक्ति राजनीति के क्षेत्र में मुश्किल से मिलते हैं। सैद्धांतिक मतभेदों के बावजूद विरोध्ाी दलों के नेताओं से व्यक्तिगत स्तर पर मध्ाुरता का व्यवहार उनकी विशेषता थी। मित्रों के साथ हद दर्जे तक जाकर मित्रता का निर्वाह करते थे। इसी कारण देश की राजनीति में वे हर दिल अज़ीज थे। घनघोर संकटों के बीच अपनी मान्यताओं के लिए अकेले खड़े होने का गुण उन्हें समकालीन नेताओं से अलग खड़ा करता है। उनकी जीवन यात्रा में ऐसे कई मोड़ आये जब वे राजनीति में अलग-थलग पड़े दिखाई दिये। 1980 तक जनता पार्टी के सभी महत्वपूर्ण नेता पार्टी से अलग हो गये। जनसंघ के अलग होने के बाद कई नेताओं ने सुझाव दिया कि अब जनता पार्टी को भंग कर देना चाहिए। चन्द्रशेखर ने उसका जवाब 1981 में सारनाथ में पार्टी का अभूतपूर्व सम्मेलन करके दिया, जिसमें सारे देश से 1 लाख से अध्ािक प्रतिनिध्ाि और कार्यकर्ता आये। मोरारजी भाई ने बेनिया बाग (वाराणसी) की सभा में स्वीकार किया कि उन्होंने काँग्रेस के बड़े-बड़े अध्ािवेशन देखे थे, लेकिन इतना बड़ा और सुव्यवस्थित सम्मेलन उन्होंने पहले कभी नहीं देखा। उसके बाद उन्होंने अकेले दम पर कन्याकुमारी से राजघाट तक की पदयात्रा की। उसके समर्थन में ऐसा जन-ज्वार उठा जिसकी मिसाल नहीं मिलती। उनके नेतृत्व में जनता पार्टी फिर खड़ी हो गई। कर्नाटक में पद यात्रा के दौरान ही जनता पार्टी की सरकार बनी। पार्टी के बाहर गये बड़े-बड़े नेता फिर पार्टी में वापस आ गये। ऐसा था उनका चमत्कारी नेतृत्व। चन्द्रशेखर बहुत थोड़े समय देश के प्रध्ाान मंत्री रहे। जिन परिस्थितियों में उन्होंने प्रध्ाानमंत्री होना स्वीकार किया वे अत्यन्त संकटपूर्ण थी। आरक्षण के विरोध्ा में युवा आत्मदाह कर रहे थे। 150 से अध्ािक युवा आत्मदाह कर चुके थे। आडवाणी की रथयात्रा के कारण रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के चलते एक दर्जन से अध्ािक शहरों में कफ्र्यू लगा हुआ था। पंजाब में उग्रवाद थमने का नाम नहीं ले रहा था। काँग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी सामने के खतरों को देखते हुए सरकार बनाने को तैयार नहीं थी। पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा लिए गये कर्जों के कारण देश दिवालियेपन के कगार पर था। सदैव प्रेरणा देती रहेगी चन्द्रशेखर की जीवनयात्रा ध् 105 106 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर ऐसे में चन्द्रशेखर साहस के साथ सामने आये। उनके साथ मात्र 55 सांसद थे। तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरमन ने काँग्रेस से यह आश्वासन लेने के बाद चन्द्रशेखर को सरकार बनाने के लिए आमंन्त्रित किया कि वह (काँग्रेस) कम से कम एक वर्ष तक सरकार को अस्थिर नहीं करेगी। इसे चमत्कार ही कहा जायेगा कि प्रध्ाानमंत्री पद सम्हालने के 1 महीने के अन्दर उन्होंने देश की गाड़ी पटरी पर ला दी। लड़कों का आत्मदाह बन्द हो गया। शहरों से कफ्र्यू हट गया। रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद का आन्दोलन चलाने वाले दोनों पक्ष वार्ता की मेज पर आने को तैयार हो गये और पंजाब में उग्रवादियों से वार्ता का नया द्वार खुला। पंजाब विध्ाान सभा के चुनाव की घोषणा हुई देश दिवालिया घोषित होने से बच गया। लन्दन के एक अखबार में उनके एक महीने के कार्यकाल के बाद ही यह छापा कि जवाहर लाल नेहरू के बाद देश की बागडोर सबसे योग्य प्रध्ाान मंत्री के हाथ में है। जिन राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें शपथ दिलायी थी, उन्होंने लिखा कि अगर लोक सभा में चन्द्रशेखर का बहुमत रहा होता तो वे देश के योग्यतम शासकों में गिने जाते। उनके साथ काम करने वाले अध्ािकारियों की यही राय लिपिबद्ध है। जब काँग्रेस की मदद से चन्द्रशेखर ने सरकार बनायी तो उनके कुछ आलोचकों ने इसे सत्तालोलुपता करार दिया। लेकिन प्रध्ाान मंत्री पद पर आंच आते ही जिस तरह उन्होंने प्रध्ाानमंत्री पद से त्यागपत्र दिया उससे उन लोगों के मुँह बन्द हो गये। दरअसल चन्द्रशेखर संसदीय मर्यादाओं के सजग प्रहरी थे। किसी भी कीमत पर वे संवैध्ाानिक पदों की मर्यादा बनाये रखने के कायल थे। संसद में रोज-रोज हल्ले-गुल्ले के दृश्यों से वे दुखी रहते थे। परन्तु एक हाई कोर्ट के जज ने खुली अदालत में संसद को मछली बाजार कहा तो वे तिलमिला उठे और स्पीकर से आग्रह किया कि वे पहल कर संसद के सम्मान की रक्षा करें। प्रध्ाानमंत्री और मुख्य न्यायाध्ाीश की मध्यस्तता से ही वह मामला ठंडा हुआ। उन्हांेने संसदीय जनतन्त्र के उच्चतम आदर्शों को आत्मसात कर लिया था। उन्हें सर्वोत्तम सांसद का सम्मान मिला। जब लोक सभा में पहली बार सदाचार समिति का गठन किया गया तो प्रध्ाानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष दोनों ने ही आग्रह करके उन्हें समिति का अध्यक्ष बनाया। वे उस पद पर आजीवन बने रहे। करुणा, परोपकारिता, अन्याय के विरुद्ध सतत संघर्ष, स्वाभिमान, मर्यादा पालन के प्रति आग्रह तथा सैद्धान्तिक विरोध्ाों के बावजूद वैयक्तिक मित्रता में मध्ाुरता जैसे सद्गुण उनके व्यक्तित्व की पहचान बन गये थे इसी कारण वे सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में ही लोकप्रिय थे। कम लोग जानते हैं कि वे उच्च कोटि के लेखक थे। उनकी साहित्यिक प्रतिभा उनकी जेल डायरी तथा संघर्ष और ‘यंग इण्डियन’ के लेखों में बिखरी पड़ी है। वे बहुमुखी प्रतिभा के ध्ानी थे। वे सही माने में राजनेता नहीं राष्ट्रनायक थे जो राष्ट्रनायक के दीर्घकालिक आदर्शों और हितों को ध्यान में रखकर अपना निर्णय लेते थे। एक अल्पमत सरकार का नेतृत्व करते हुए जब उन्हें इस बात की जानकारी मिली कि तत्कालीन डी.एम.के. सरकार राष्ट्रहित के विरुद्ध काम कर रही है। उन्होंने सारी ध्ामकियों के बावजूद उसे भंग करने में देरी नहीं की। वे बागी बलिया के सच्चे सपूत थे। उनमें वहाँ का स्वाभिमान, अक्खड़पन बड़े से बड़े के सामने न झुकने का साहस परिलक्षित होता था। आज जब चारों ओर सार्वजनिक जीवन में मर्यादा हनन और मर्यादा क्षरण का माहौल है उसमें स्वभावतः चन्द्रशेखर जी की याद आती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आने वाली पीढि़यों और साध्ानहीन युवाओं को उनकी रोमांचकारी जीवनयात्रा सदैव प्रेरणा देती रहेगी। (लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं)