भारतीय राजनीति के अजातशत्रु

नर्वदेश्वर राय  


देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने एक बार कहा था कि चन्द्रशेखर जी किसी बड़ी पार्टी में हों या छोटी, बड़े पद पर हों या छोटे, इसका उतना महत्त्व नहीं है, जितना उनकी उपस्थिति का। उनकी उपस्थिति ही हमारी राजनीतिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करती है। मैं यहाँ राजनीतिक व्यवस्था की बात कर रहा हूँ, राजनीति की नहीं। नरसिंह राव देश के सुलझे राजनेता थे, और उन्होंने नयी दिल्ली के विज्ञान भवन में चन्द्रशेखर जी के 75वें जन्म दिवस के अवसर पर अपनी इस टिप्पणी से बेबाक, दो टूक बात करने और परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने पर कभी-कभी अकेले अपनी राह चल पड़ने वाले नेता के व्यक्तित्व का निचोड़ रखा था। आपको बात अच्छी लगे या बुरी वह अपनी बात कह डालने के आदी थे। उन्होंने राजनीति में अपना लम्बा समय बिताया। कभी दूसरों की सोच में असहमति की आवाज बने, तो कभी सहमति की राह ढूँढ़ने और सबको साथ लेकर जटिल से जटिल समस्या का हल ढूँढने वाले राजनेता। लेकिन हर किसी को अपनी जरूरत महसूस करा देने, पास आने पर सकून हासिल कराने का अनोखा व्यक्तित्व उन्हीं का था जो बरबस बड़े से बड़े राजनेता, कार्यकर्ता को अपनी ओर खींचा करता था। कोई राजनेता सत्ता में हो या सत्ता से बाहर बड़ी से बड़ी समस्या के हल के लिए उन्हें ढूँढ़ा करता था। समाजवादी आंदोलन से निकले और 1964 आते-आते काँग्रेस के साथ आ जाने वाले नेता ने थोड़े ही दिनों में देश की उस समय की सत्तारूढ़ पार्टी में भी अपनी उपस्थिति का एहसास करा दिया था। कांगे्रस के नेतृत्व में सत्तर के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवीयर्स की समाप्ति और अर्थव्यवस्था को आम लोगों से जोड़ने वाले जो थोड़े बहुत कदम उठाये, वह चन्द्रशेखर जी के नेतृत्व में काम करने वाले थोड़े सांसदों की मंडली के दबाव का परिणाम था। दस वर्ष के उनके काँग्रेस के राजनीतिक जीवन में उनकी आवाज को किसी के लिए भी नजरअंदाज करना मुश्किल काम था। काँग्रेस के विभाजन के बाद इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली पार्टी की महासमिति की बैठक दिल्ली में हुई। रात के समय इंदिरा जी के दो निकटस्थ लोगों ने राजनीति प्रस्ताव तैयार किया। सवेरे अधिवेशन स्थल पर झंडा फहराने के बाद इंदिरा जी की निगाहें चन्द्रशेखर जी को ढूंढ़ने लगी। वह पीछे की कतार में थे मुड़कर उनके पास पहुँची, कहा रात को राजनीतिक प्रस्ताव तैयार किया गया था आप उसे देख लें। ऐसे अनेक अवसर आये जब इन्दिरा जी को उनकी सलाह की जरूरत पड़ी। 1980 के जून में जिस दिन संजय गाँध्ाी की मौत हुई वाजपेयी जी और चन्द्रशेखर जी साथ-साथ राम मनोहर लोहिया अस्पताल पहुँचे। वाजपेयी जी ने पहुँचते ही कहा ‘इन्दिरा जी इस समय आपको अध्ािक ध्ौर्य का परिचय देना होगा’ इन्दिरा जी ने उन्हें जवाब नहीं दिया, मुड़कर चन्द्रशेखर जी की ओर देखा और बांह पकड़ कर कमरे के कोने में ले गयीं, कहा- चन्द्रशेखर जी कई दिन से आपसे बात करने की सोच रही थी, असम की स्थिति बहुत खराब है, चन्द्रशेखर जी दिमागी उलझन में फंसे, कहा बाद में बात की जायेगी, इन्दिरा जी का जवाब था, नहीं यह जरूरी है, बाद में पंजाब में स्थिति बिगड़ने पर एक नहीं कई बार इन्दिरा जी को उनकी जरूरत पड़ी और एक बार तो अपने निजी सचिव को उन्हें लाने के लिए भेज दिया। चन्द्रशेखर जी स्वर्ण मन्दिर में सेना भेजने के विरुद्ध थे जब भी इन्दिरा जी से उनकी मुलाकात हुई, उन्होंने इसके विरुद्ध राय दी। स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने का परिणाम उन्होंने देखा, और 30 अक्टूबर 1984 को उनकी हत्या के बाद वह शायद सबसे दुखी व्यक्ति थे, उनके इस दुख को सिख विरोध्ाी दंगों और तत्कालीन सरकार की नाकामी ने अध्ािक बढ़ाया। चन्द्रशेखर जी, इन्दिरा जी और जयप्रकाश जी के टकराव के विरुद्ध थे। वह न तो जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति के पक्षध्ार बन सके और न ही जातिवादी राजनीति के अलम्बरदारों के। उन्होंने इन्दिरा जी और जयप्रकाश जी के बीच समझौता कराने की भी कोशिश की- दोनों को वार्ता के मंच पर ला दिया, सफलता नहीं मिली यह अलग बात थी। इन्दिरा जी के बाद के प्रध्ाानमंत्रियों को भी उनकी जरूरत पड़ी और चाहे वह नरसिंह राव रहे हों या वाजपेयी जी उनके संवाद का सिलसिला बना रहा। नरसिंह राव के समय में तो कई अवसर आये, जब समस्या सुलझाने में मदद की, जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम करा फैसला जब आया तो उन्होंने स्वयं प्रध्ाानमंत्री नरसिंह भारतीय राजनीति के अजातशत्रु ध् 109 110 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर राव को टेलीफोन कर मुख्य न्यायाध्ाीश से बात करने की सलाह दी थी और कहा था कि जरूरत पड़े तो मुझे भी बुला लीजिये। वाजपेयी जी के समय में वह संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान से युद्ध छेड़ देने के खिलाफ थे और इस बारे में संसद में उन्होंने अपनी बेबाक राय दे डाली थी। वाजपेयी जी ने भी टिप्पणी कर दी थी कि चन्द्रशेखर जी का भाषण उन्हें महाभारत के एक चरित्र शल्य की याद दिला रहा है। शल्य कर्ण का सार्थी था लेकिन तारीफ अर्जुन के वाणों की किया करता था। उनके भाषण के दौरान काफी टोका-टोकी भी हुई थी लेकिन नौ महीने सेना को सीमा पर सतर्क स्थिति में रखने के बाद कितनी लड़ाई लड़ी गयी यह देश ने देखा। इराक युद्ध के समय वाजपेयी सरकार जब संसद में प्रस्ताव पास करने को लेकर फंसती नजर आयी, तब मदद के लिए चन्द्रशेखर जी आगे आये। उन्होंने न केवल सोनिया गाँध्ाी बल्कि अन्य नेताओं को भी समझाने और सर्वसम्मत प्रस्ताव तैयार कराने का काम किया। चन्द्रशेखर का लम्बा समय संसद में बीता, वह 1962 से 2007 तक (1984-89 को छोड़) संसद में रहे। उन्होंने संसद में हर विषय पर चर्चा को जीवंत बनाया, सदन में व्यवस्था बनाये रखने और संसद के नियमों तथा परम्पराओं का पालन कराने में मदद की। कई बार तो उन्हें मंत्रियांे तथा वरिष्ठ सांसदों को भी नसीहत देते देखा गया। संसद में बार-बार व्यवध्ाान तथा कार्रवाई में बाध्ाा से बेहद दुःखी हो जाया करते थे। एक बार उन्होंने अपने मित्र वाजपेयी जी को, जब वह प्रध्ाानमंत्री थे इस बारे में गंभीरता से सोचने की सलाह दी थी। सत्ता से दूर रहने तथा दो-दो बार केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की सदस्यता ठुकराने वाले चन्द्रशेखर जी ने देश की उस समय की परिस्थितियों के चलते प्रध्ाानमंत्री का पद स्वीकार किया तो सम्मान के विरुद्ध पाने पर उन्होंने उसे छोड़ने में भी देर नहीं लगायी। उनके इस्तीफे के बाद राजीव गाँध्ाी उनके घर पहुँचे, समझाने की कोशिश की लेकिन अपना असर नहीं डाल सके। राजीव गाँध्ाी बाद में राष्ट्रपति के पास पहुँचे, लेकिन राष्ट्रपति का भी उन्हें यही जवाब था कि आप चन्द्रशेखर जी का स्वभाव नहीं जानते। जिस समय चन्द्रशेखर जी ने देश का नेतृत्व संभाला देश के 90 शहरों में कफ्र्यू लगा था, अयोध्या का विवाद चरम पर था, उन्होंने परिस्थितियों को संभाला और देश को शांत किया। अयोध्या विवाद के दोनों पक्षों को भी उन्होंने बातचीत की मेज पर ला दिया और अगर थोड़ा और समय मिलता तो यह विवाद शायद हमेशा के लिए हल हो जाता। चन्द्रशेखर जी संवेदनशील व्यक्तित्व के ध्ानी थे। दूसरों के दुःख-सुख में शामिल होना उनके स्वभाव में था फिर कोई बड़ा हो या छोटा, वह हर एक का ख्याल रखते थे। इन्दिरा जी 1977 का चुनाव हार गयी थी, चुनाव से पहले उन्होंने दो बार उनसे बात करने की कोशिश भी की लेकिन चन्द्रशेखर जी ने स्वीकार नहीं किया। उनकी पराजय के बाद वह स्वयं उनके निवास पहुँचे और अपनी ओर से उन्हें हर सहयोग का आश्वासन दिया। नरसिंह राव को सजा मिलने के बाद संभवतः वह उनसे भेंट करने वाले पहले राजनेता थे। चन्द्रशेखर जी की मित्रता तथा आपसी संबंध्ा राजनीति की परिध्ाि के ऊपर थे, यही कारण था कि उनके मित्रों और शुभचिन्तकों की संख्या अनगिनत थी, दलगत राजनीति इसमें कभी बाध्ाक नहीं बन सकी। 2007 के मार्च में अपनी तबीयत सुध्ारने पर उन्होंने कुछ मित्रों को दोपहर के खाने पर बुलाया और उनके आमंत्रण पर तत्कालीन प्रध्ाानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गाँध्ाी, अटल बिहारी बाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी, नटवर सिंह, उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चन्द खंडूरी, हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, भजन लाल, ओमप्रकाश चैटाला आदि बहुत राजनेता पहुँच गये। भिन्न-भिन्न मतांतर के लोगों को साथ लाना यह खूब जानते थे और इस दृष्टि से उन्हें अजातशत्रु कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। (लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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