माँ के दिए पैसे मीटिंग में हो गए खर्च

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लेकिन मेरी माँ ठीक उनके विपरीत थीं। उनका नाम दुरपाती था। वे मेरे पिता की दूसरी पत्नी थीं। मेरी पहली माँ का निध्ान जिस समय हुआ उस समय पिता जी की उम्र सिर्फ 30 साल थी। पहली माँ से मेरे बड़े भाई स्व. रामनगीना सिंह और मेरी बड़ी बहन स्व. मोतिसरी देवी। दूसरी माँ से मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरे बाद मेरी छोटी बहन फुल कुंवरी, उससे छोटे मेरे दो भाई कृपा शंकर सिंह और बद्री नारायण सिंह और सबसे छोटी बहन शकुन्तला। माँ पहले ही चल बसीं, पिताजी भी थोड़े साल बाद नहीं रहे। संयुक्त परिवार में स्व. यशोदानन्द सिंह के एक ही पुत्र है ब्रजनन्दन सिंह। वे हमारे पिताजी से बड़े थे। उनको हम सब लोग बाबू जी कहते थे। उनसे छोटे थे स्व. यमुना सिंह जी। उनके दो पुत्र थे- स्व. शिवपूजन सिंह और हरिशंकर सिंह। परिवार के सभी लड़के बाबू जी को इसी नाम से पुकारते थे। मैं अपने पिताजी को ‘काका’ के नाम से जानता था और छोटे चाचा यमुना सिंह जी को ‘बबुआ’ के नाम से। परिवार के सभी लोग इन्हीं नाम से उन्हें पुकारते भी थे। बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र गिरिजा शंकर सिंह जो कृपा शंकर से कुछ महीने बड़े थे, वे भी इन लोगों को इसी नाम से सम्बोध्ाित करते थे। उस समय अपने से बड़े का नाम लेकर सम्बोध्ाित करने को अशिष्टता माना जाता था। हम लोगों की बहनों में भी यही मान्यता थी और उनको सम्बोध्ाित करने में भी इसी परम्परा से निर्वाह होता था। बाद में इसमें बड़ा बदलाव आया। कभी-कभी मुझे यह बहुत अटपटा लगता था पर अब तो यह सामान्य बात हो गई है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि बेटों-भतीजों की पत्नियाँ भी अपने पतियों का नाम लेने में नहीं सकुचातीं। इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती पर अपना मन तो इसे स्वीकार करने में हिचकता अवश्य है। मेरे गाँव के घर में महिलाएं पुरुषों के सामने कम आती थीं। परिवार में पूरी पर्दा प्रथा थी। आज माँ को याद करता हूँ तो उनकी ममता याद आती है। वे गरीबों का बहुत ख्याल रखती थी। मुझसे उनका गहरा लगाव था। बचपन की उनकी कुछ यादें मेरे मन में आज भी उतनी ही ताजा हैं। मुझे पैसे की जरूरत होती थी तो उन्हीं से मांगता था। एक दिन मैंने गमछा खरीदने के लिए माँ से पैसे मांगे। उन्होंने आठ आने या एक रुपया दिया था। पैसे लेकर मैं एक मीटिंग में चला गया। आठवें दर्जे से ही मैं एक प्रकार से राजनीति में आ गया था। तब मैं आर्य समाजियों के प्रभाव में था। माँ के दिए पैसे मीटिंग में कहीं खर्च हो गए, या मैंने किसी को दे दिए। घर लौट कर आया तो माँ ने पूछा: गमछा नहीं खरीदा? क्या पैसे झण्डा उड़ाने में खर्च कर दिए? झण्डा उड़ाने से उनका तात्पर्य मेरी राजनीतिक-सामाजिक गतिविध्ाियों से था। मैं हँस पड़ा, वे भी हँसने लगीं। उन्होंने गमछा खरीदने के लिए फिर से पैसे दिए और कहा कि इस बार जरूर खरीद लेना। मेरी माँ स्वभाव से बड़ी ध्ाार्मिक थीं। वे परिवार को एक रखने के लिए हमेशा सचेत रहती थीं। जब मैं बी.ए. में पढ़ता था तब उनका निध्ान हुआ। वे अचानक बीमार पड़ी और चल बसीं। इलाज या दवा का इंतजाम नहीं हो पाया। मैं उस समय बलिया में था मुझे खबर लगी तो गाँव आया। उनकी अंत्येष्टि हो चुकी थी। बचपन में मुझे गुड़-घी के साथ रोटी खाना बहुत पसन्द था। गुड़ और घी रोटी में लपेट कर ‘चोगा’ बनाते थे फिर खाते थे। माँ मेरे लिए अक्सर यह बना देती थीं। वे बचपन में कभी-कभी रात में भी यह चोगा बना कर मुझे खिलाती थीं। बेसन की सब्जी भी मैं बहुत चाव से खाता था। जब तक वे जिन्दा, रहीं, मैं जब भी स्कूल या काॅलेज से छुट्टियों में घर लौटता था तो वे मेरे लिए बेसन की सब्जी बना कर रखना नहीं भूलती थीं। जब मेरी माँ का निधन हो गया, उसके बाद मुझे मेरी पसन्द की वह सब्जी गाँव जाने पर मिलती रही। दूर के मेरे एक चाचा थे। उनकी पत्नी को हम ‘मौसी’ कहते थे। उनका मायका मेरे ननिहाल के गाँव के पास था। जब गाँव लौटता था तो वही बेसन की सब्जी बना कर मुझे खिलाती थीं। एक बार मैं घर गया तो मौसी का कोई सन्देश नहीं आया। मैंने किसी से पूछा कि क्या बात है, इस बार मौसी ने खाने पर नहीं बुलाया? तो मुझे बताया गया कि मौसी तो दो महीने पहले ही गुजर गई। उनके लड़के अनिरुद्ध सिंह, जो मुझसे उम्र में बड़े थे, मौसी के निध्ान के बाद ही आए और कहा कि मेरे घर खाना खाने चलिए। मैंने पूछा, किसने बनाया है? उन्होंने कहा, हमारी श्रीमती जी ने। लेकिन मैं खाना खाने नहीं गया। जब मौसी ही नहीं रही तो क्या जाते खाना खाने। माँ से मेरा लगाव इतना गहरा था कि उनके गुजर जाने के बाद भी संकट के क्षणों में हमेशा उन्हीं की याद आती थी। राजनीतिक जीवन की बात छोड़ दीजिए, व्यक्तिगत जीवन में भी जब कई बार उलझनें पैदा माँ के लिए पैसे मीटिंग में हो गए खर्च ध् 275 276 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर होती थीं तो उन्हीं का ममतामयी चेहरा सामने आ जाता था। इसे आप अंध्ाविश्वास कहिए या रहस्य, मुझे माँ का सपना अक्सर आता था। सपने में वे बस एक ही बात कहती थीं कि घबराना मत बेटे, सब ठीक हो जाएगा और यह बात होती रही। आपात्काल के दिनों तक सपने में माँ आती रही। उसके बाद इस तरह का सपना नहीं देखा। úùलेकिन मेरी माँ ठीक उनके विपरीत थीं। उनका नाम दुरपाती था। वे मेरे पिता की दूसरी पत्नी थीं। मेरी पहली माँ का निध्ान जिस समय हुआ उस समय पिता जी की उम्र सिर्फ 30 साल थी। पहली माँ से मेरे बड़े भाई स्व. रामनगीना सिंह और मेरी बड़ी बहन स्व. मोतिसरी देवी। दूसरी माँ से मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरे बाद मेरी छोटी बहन फुल कुंवरी, उससे छोटे मेरे दो भाई कृपा शंकर सिंह और बद्री नारायण सिंह और सबसे छोटी बहन शकुन्तला। माँ पहले ही चल बसीं, पिताजी भी थोड़े साल बाद नहीं रहे। संयुक्त परिवार में स्व. यशोदानन्द सिंह के एक ही पुत्र है ब्रजनन्दन सिंह। वे हमारे पिताजी से बड़े थे। उनको हम सब लोग बाबू जी कहते थे। उनसे छोटे थे स्व. यमुना सिंह जी। उनके दो पुत्र थे- स्व. शिवपूजन सिंह और हरिशंकर सिंह। परिवार के सभी लड़के बाबू जी को इसी नाम से पुकारते थे। मैं अपने पिताजी को ‘काका’ के नाम से जानता था और छोटे चाचा यमुना सिंह जी को ‘बबुआ’ के नाम से। परिवार के सभी लोग इन्हीं नाम से उन्हें पुकारते भी थे। बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र गिरिजा शंकर सिंह जो कृपा शंकर से कुछ महीने बड़े थे, वे भी इन लोगों को इसी नाम से सम्बोध्ाित करते थे। उस समय अपने से बड़े का नाम लेकर सम्बोध्ाित करने को अशिष्टता माना जाता था। हम लोगों की बहनों में भी यही मान्यता थी और उनको सम्बोध्ाित करने में भी इसी परम्परा से निर्वाह होता था। बाद में इसमें बड़ा बदलाव आया। कभी-कभी मुझे यह बहुत अटपटा लगता था पर अब तो यह सामान्य बात हो गई है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि बेटों-भतीजों की पत्नियाँ भी अपने पतियों का नाम लेने में नहीं सकुचातीं। इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती पर अपना मन तो इसे स्वीकार करने में हिचकता अवश्य है। मेरे गाँव के घर में महिलाएं पुरुषों के सामने कम आती थीं। परिवार में पूरी पर्दा प्रथा थी। आज माँ को याद करता हूँ तो उनकी ममता याद आती है। वे गरीबों का बहुत ख्याल रखती थी। मुझसे उनका गहरा लगाव था। बचपन की उनकी कुछ यादें मेरे मन में आज भी उतनी ही ताजा हैं। मुझे पैसे की जरूरत होती थी तो उन्हीं से मांगता था। एक दिन मैंने गमछा खरीदने के लिए माँ से पैसे मांगे। उन्होंने आठ आने या एक रुपया दिया था। पैसे लेकर मैं एक मीटिंग में चला गया। आठवें दर्जे से ही मैं एक प्रकार से राजनीति में आ गया था। तब मैं आर्य समाजियों के प्रभाव में था। माँ के दिए पैसे मीटिंग में कहीं खर्च हो गए, या मैंने किसी को दे दिए। घर लौट कर आया तो माँ ने पूछा: गमछा नहीं खरीदा? क्या पैसे झण्डा उड़ाने में खर्च कर दिए? झण्डा उड़ाने से उनका तात्पर्य मेरी राजनीतिक-सामाजिक गतिविध्ाियों से था। मैं हँस पड़ा, वे भी हँसने लगीं। उन्होंने गमछा खरीदने के लिए फिर से पैसे दिए और कहा कि इस बार जरूर खरीद लेना। मेरी माँ स्वभाव से बड़ी ध्ाार्मिक थीं। वे परिवार को एक रखने के लिए हमेशा सचेत रहती थीं। जब मैं बी.ए. में पढ़ता था तब उनका निध्ान हुआ। वे अचानक बीमार पड़ी और चल बसीं। इलाज या दवा का इंतजाम नहीं हो पाया। मैं उस समय बलिया में था मुझे खबर लगी तो गाँव आया। उनकी अंत्येष्टि हो चुकी थी। बचपन में मुझे गुड़-घी के साथ रोटी खाना बहुत पसन्द था। गुड़ और घी रोटी में लपेट कर ‘चोगा’ बनाते थे फिर खाते थे। माँ मेरे लिए अक्सर यह बना देती थीं। वे बचपन में कभी-कभी रात में भी यह चोगा बना कर मुझे खिलाती थीं। बेसन की सब्जी भी मैं बहुत चाव से खाता था। जब तक वे जिन्दा, रहीं, मैं जब भी स्कूल या काॅलेज से छुट्टियों में घर लौटता था तो वे मेरे लिए बेसन की सब्जी बना कर रखना नहीं भूलती थीं। जब मेरी माँ का निधन हो गया, उसके बाद मुझे मेरी पसन्द की वह सब्जी गाँव जाने पर मिलती रही। दूर के मेरे एक चाचा थे। उनकी पत्नी को हम ‘मौसी’ कहते थे। उनका मायका मेरे ननिहाल के गाँव के पास था। जब गाँव लौटता था तो वही बेसन की सब्जी बना कर मुझे खिलाती थीं। एक बार मैं घर गया तो मौसी का कोई सन्देश नहीं आया। मैंने किसी से पूछा कि क्या बात है, इस बार मौसी ने खाने पर नहीं बुलाया? तो मुझे बताया गया कि मौसी तो दो महीने पहले ही गुजर गई। उनके लड़के अनिरुद्ध सिंह, जो मुझसे उम्र में बड़े थे, मौसी के निध्ान के बाद ही आए और कहा कि मेरे घर खाना खाने चलिए। मैंने पूछा, किसने बनाया है? उन्होंने कहा, हमारी श्रीमती जी ने। लेकिन मैं खाना खाने नहीं गया। जब मौसी ही नहीं रही तो क्या जाते खाना खाने। माँ से मेरा लगाव इतना गहरा था कि उनके गुजर जाने के बाद भी संकट के क्षणों में हमेशा उन्हीं की याद आती थी। राजनीतिक जीवन की बात छोड़ दीजिए, व्यक्तिगत जीवन में भी जब कई बार उलझनें पैदा माँ के लिए पैसे मीटिंग में हो गए खर्च ध् 275 276 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर होती थीं तो उन्हीं का ममतामयी चेहरा सामने आ जाता था। इसे आप अंध्ाविश्वास कहिए या रहस्य, मुझे माँ का सपना अक्सर आता था। सपने में वे बस एक ही बात कहती थीं कि घबराना मत बेटे, सब ठीक हो जाएगा और यह बात होती रही। आपात्काल के दिनों तक सपने में माँ आती रही। उसके बाद इस तरह का सपना नहीं देखा। úùलेकिन मेरी माँ ठीक उनके विपरीत थीं। उनका नाम दुरपाती था। वे मेरे पिता की दूसरी पत्नी थीं। मेरी पहली माँ का निध्ान जिस समय हुआ उस समय पिता जी की उम्र सिर्फ 30 साल थी। पहली माँ से मेरे बड़े भाई स्व. रामनगीना सिंह और मेरी बड़ी बहन स्व. मोतिसरी देवी। दूसरी माँ से मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरे बाद मेरी छोटी बहन फुल कुंवरी, उससे छोटे मेरे दो भाई कृपा शंकर सिंह और बद्री नारायण सिंह और सबसे छोटी बहन शकुन्तला। माँ पहले ही चल बसीं, पिताजी भी थोड़े साल बाद नहीं रहे। संयुक्त परिवार में स्व. यशोदानन्द सिंह के एक ही पुत्र है ब्रजनन्दन सिंह। वे हमारे पिताजी से बड़े थे। उनको हम सब लोग बाबू जी कहते थे। उनसे छोटे थे स्व. यमुना सिंह जी। उनके दो पुत्र थे- स्व. शिवपूजन सिंह और हरिशंकर सिंह। परिवार के सभी लड़के बाबू जी को इसी नाम से पुकारते थे। मैं अपने पिताजी को ‘काका’ के नाम से जानता था और छोटे चाचा यमुना सिंह जी को ‘बबुआ’ के नाम से। परिवार के सभी लोग इन्हीं नाम से उन्हें पुकारते भी थे। बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र गिरिजा शंकर सिंह जो कृपा शंकर से कुछ महीने बड़े थे, वे भी इन लोगों को इसी नाम से सम्बोध्ाित करते थे। उस समय अपने से बड़े का नाम लेकर सम्बोध्ाित करने को अशिष्टता माना जाता था। हम लोगों की बहनों में भी यही मान्यता थी और उनको सम्बोध्ाित करने में भी इसी परम्परा से निर्वाह होता था। बाद में इसमें बड़ा बदलाव आया। कभी-कभी मुझे यह बहुत अटपटा लगता था पर अब तो यह सामान्य बात हो गई है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि बेटों-भतीजों की पत्नियाँ भी अपने पतियों का नाम लेने में नहीं सकुचातीं। इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती पर अपना मन तो इसे स्वीकार करने में हिचकता अवश्य है। मेरे गाँव के घर में महिलाएं पुरुषों के सामने कम आती थीं। परिवार में पूरी पर्दा प्रथा थी। आज माँ को याद करता हूँ तो उनकी ममता याद आती है। वे गरीबों का बहुत ख्याल रखती थी। मुझसे उनका गहरा लगाव था। बचपन की उनकी कुछ यादें मेरे मन में आज भी उतनी ही ताजा हैं। मुझे पैसे की जरूरत होती थी तो उन्हीं से मांगता था। एक दिन मैंने गमछा खरीदने के लिए माँ से पैसे मांगे। उन्होंने आठ आने या एक रुपया दिया था। पैसे लेकर मैं एक मीटिंग में चला गया। आठवें दर्जे से ही मैं एक प्रकार से राजनीति में आ गया था। तब मैं आर्य समाजियों के प्रभाव में था। माँ के दिए पैसे मीटिंग में कहीं खर्च हो गए, या मैंने किसी को दे दिए। घर लौट कर आया तो माँ ने पूछा: गमछा नहीं खरीदा? क्या पैसे झण्डा उड़ाने में खर्च कर दिए? झण्डा उड़ाने से उनका तात्पर्य मेरी राजनीतिक-सामाजिक गतिविध्ाियों से था। मैं हँस पड़ा, वे भी हँसने लगीं। उन्होंने गमछा खरीदने के लिए फिर से पैसे दिए और कहा कि इस बार जरूर खरीद लेना। मेरी माँ स्वभाव से बड़ी ध्ाार्मिक थीं। वे परिवार को एक रखने के लिए हमेशा सचेत रहती थीं। जब मैं बी.ए. में पढ़ता था तब उनका निध्ान हुआ। वे अचानक बीमार पड़ी और चल बसीं। इलाज या दवा का इंतजाम नहीं हो पाया। मैं उस समय बलिया में था मुझे खबर लगी तो गाँव आया। उनकी अंत्येष्टि हो चुकी थी। बचपन में मुझे गुड़-घी के साथ रोटी खाना बहुत पसन्द था। गुड़ और घी रोटी में लपेट कर ‘चोगा’ बनाते थे फिर खाते थे। माँ मेरे लिए अक्सर यह बना देती थीं। वे बचपन में कभी-कभी रात में भी यह चोगा बना कर मुझे खिलाती थीं। बेसन की सब्जी भी मैं बहुत चाव से खाता था। जब तक वे जिन्दा, रहीं, मैं जब भी स्कूल या काॅलेज से छुट्टियों में घर लौटता था तो वे मेरे लिए बेसन की सब्जी बना कर रखना नहीं भूलती थीं। जब मेरी माँ का निधन हो गया, उसके बाद मुझे मेरी पसन्द की वह सब्जी गाँव जाने पर मिलती रही। दूर के मेरे एक चाचा थे। उनकी पत्नी को हम ‘मौसी’ कहते थे। उनका मायका मेरे ननिहाल के गाँव के पास था। जब गाँव लौटता था तो वही बेसन की सब्जी बना कर मुझे खिलाती थीं। एक बार मैं घर गया तो मौसी का कोई सन्देश नहीं आया। मैंने किसी से पूछा कि क्या बात है, इस बार मौसी ने खाने पर नहीं बुलाया? तो मुझे बताया गया कि मौसी तो दो महीने पहले ही गुजर गई। उनके लड़के अनिरुद्ध सिंह, जो मुझसे उम्र में बड़े थे, मौसी के निध्ान के बाद ही आए और कहा कि मेरे घर खाना खाने चलिए। मैंने पूछा, किसने बनाया है? उन्होंने कहा, हमारी श्रीमती जी ने। लेकिन मैं खाना खाने नहीं गया। जब मौसी ही नहीं रही तो क्या जाते खाना खाने। माँ से मेरा लगाव इतना गहरा था कि उनके गुजर जाने के बाद भी संकट के क्षणों में हमेशा उन्हीं की याद आती थी। राजनीतिक जीवन की बात छोड़ दीजिए, व्यक्तिगत जीवन में भी जब कई बार उलझनें पैदा माँ के लिए पैसे मीटिंग में हो गए खर्च ध् 275 276 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर होती थीं तो उन्हीं का ममतामयी चेहरा सामने आ जाता था। इसे आप अंध्ाविश्वास कहिए या रहस्य, मुझे माँ का सपना अक्सर आता था। सपने में वे बस एक ही बात कहती थीं कि घबराना मत बेटे, सब ठीक हो जाएगा और यह बात होती रही। आपात्काल के दिनों तक सपने में माँ आती रही। उसके बाद इस तरह का सपना नहीं देखा। úùलेकिन मेरी माँ ठीक उनके विपरीत थीं। उनका नाम दुरपाती था। वे मेरे पिता की दूसरी पत्नी थीं। मेरी पहली माँ का निध्ान जिस समय हुआ उस समय पिता जी की उम्र सिर्फ 30 साल थी। पहली माँ से मेरे बड़े भाई स्व. रामनगीना सिंह और मेरी बड़ी बहन स्व. मोतिसरी देवी। दूसरी माँ से मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरे बाद मेरी छोटी बहन फुल कुंवरी, उससे छोटे मेरे दो भाई कृपा शंकर सिंह और बद्री नारायण सिंह और सबसे छोटी बहन शकुन्तला। माँ पहले ही चल बसीं, पिताजी भी थोड़े साल बाद नहीं रहे। संयुक्त परिवार में स्व. यशोदानन्द सिंह के एक ही पुत्र है ब्रजनन्दन सिंह। वे हमारे पिताजी से बड़े थे। उनको हम सब लोग बाबू जी कहते थे। उनसे छोटे थे स्व. यमुना सिंह जी। उनके दो पुत्र थे- स्व. शिवपूजन सिंह और हरिशंकर सिंह। परिवार के सभी लड़के बाबू जी को इसी नाम से पुकारते थे। मैं अपने पिताजी को ‘काका’ के नाम से जानता था और छोटे चाचा यमुना सिंह जी को ‘बबुआ’ के नाम से। परिवार के सभी लोग इन्हीं नाम से उन्हें पुकारते भी थे। बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र गिरिजा शंकर सिंह जो कृपा शंकर से कुछ महीने बड़े थे, वे भी इन लोगों को इसी नाम से सम्बोध्ाित करते थे। उस समय अपने से बड़े का नाम लेकर सम्बोध्ाित करने को अशिष्टता माना जाता था। हम लोगों की बहनों में भी यही मान्यता थी और उनको सम्बोध्ाित करने में भी इसी परम्परा से निर्वाह होता था। बाद में इसमें बड़ा बदलाव आया। कभी-कभी मुझे यह बहुत अटपटा लगता था पर अब तो यह सामान्य बात हो गई है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि बेटों-भतीजों की पत्नियाँ भी अपने पतियों का नाम लेने में नहीं सकुचातीं। इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती पर अपना मन तो इसे स्वीकार करने में हिचकता अवश्य है। मेरे गाँव के घर में महिलाएं पुरुषों के सामने कम आती थीं। परिवार में पूरी पर्दा प्रथा थी। आज माँ को याद करता हूँ तो उनकी ममता याद आती है। वे गरीबों का बहुत ख्याल रखती थी। मुझसे उनका गहरा लगाव था। बचपन की उनकी कुछ यादें मेरे मन में आज भी उतनी ही ताजा हैं। मुझे पैसे की जरूरत होती थी तो उन्हीं से मांगता था। एक दिन मैंने गमछा खरीदने के लिए माँ से पैसे मांगे। उन्होंने आठ आने या एक रुपया दिया था। पैसे लेकर मैं एक मीटिंग में चला गया। आठवें दर्जे से ही मैं एक प्रकार से राजनीति में आ गया था। तब मैं आर्य समाजियों के प्रभाव में था। माँ के दिए पैसे मीटिंग में कहीं खर्च हो गए, या मैंने किसी को दे दिए। घर लौट कर आया तो माँ ने पूछा: गमछा नहीं खरीदा? क्या पैसे झण्डा उड़ाने में खर्च कर दिए? झण्डा उड़ाने से उनका तात्पर्य मेरी राजनीतिक-सामाजिक गतिविध्ाियों से था। मैं हँस पड़ा, वे भी हँसने लगीं। उन्होंने गमछा खरीदने के लिए फिर से पैसे दिए और कहा कि इस बार जरूर खरीद लेना। मेरी माँ स्वभाव से बड़ी ध्ाार्मिक थीं। वे परिवार को एक रखने के लिए हमेशा सचेत रहती थीं। जब मैं बी.ए. में पढ़ता था तब उनका निध्ान हुआ। वे अचानक बीमार पड़ी और चल बसीं। इलाज या दवा का इंतजाम नहीं हो पाया। मैं उस समय बलिया में था मुझे खबर लगी तो गाँव आया। उनकी अंत्येष्टि हो चुकी थी। बचपन में मुझे गुड़-घी के साथ रोटी खाना बहुत पसन्द था। गुड़ और घी रोटी में लपेट कर ‘चोगा’ बनाते थे फिर खाते थे। माँ मेरे लिए अक्सर यह बना देती थीं। वे बचपन में कभी-कभी रात में भी यह चोगा बना कर मुझे खिलाती थीं। बेसन की सब्जी भी मैं बहुत चाव से खाता था। जब तक वे जिन्दा, रहीं, मैं जब भी स्कूल या काॅलेज से छुट्टियों में घर लौटता था तो वे मेरे लिए बेसन की सब्जी बना कर रखना नहीं भूलती थीं। जब मेरी माँ का निधन हो गया, उसके बाद मुझे मेरी पसन्द की वह सब्जी गाँव जाने पर मिलती रही। दूर के मेरे एक चाचा थे। उनकी पत्नी को हम ‘मौसी’ कहते थे। उनका मायका मेरे ननिहाल के गाँव के पास था। जब गाँव लौटता था तो वही बेसन की सब्जी बना कर मुझे खिलाती थीं। एक बार मैं घर गया तो मौसी का कोई सन्देश नहीं आया। मैंने किसी से पूछा कि क्या बात है, इस बार मौसी ने खाने पर नहीं बुलाया? तो मुझे बताया गया कि मौसी तो दो महीने पहले ही गुजर गई। उनके लड़के अनिरुद्ध सिंह, जो मुझसे उम्र में बड़े थे, मौसी के निध्ान के बाद ही आए और कहा कि मेरे घर खाना खाने चलिए। मैंने पूछा, किसने बनाया है? उन्होंने कहा, हमारी श्रीमती जी ने। लेकिन मैं खाना खाने नहीं गया। जब मौसी ही नहीं रही तो क्या जाते खाना खाने। माँ से मेरा लगाव इतना गहरा था कि उनके गुजर जाने के बाद भी संकट के क्षणों में हमेशा उन्हीं की याद आती थी। राजनीतिक जीवन की बात छोड़ दीजिए, व्यक्तिगत जीवन में भी जब कई बार उलझनें पैदा माँ के लिए पैसे मीटिंग में हो गए खर्च ध् 275 276 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर होती थीं तो उन्हीं का ममतामयी चेहरा सामने आ जाता था। इसे आप अंध्ाविश्वास कहिए या रहस्य, मुझे माँ का सपना अक्सर आता था। सपने में वे बस एक ही बात कहती थीं कि घबराना मत बेटे, सब ठीक हो जाएगा और यह बात होती रही। आपात्काल के दिनों तक सपने में माँ आती रही। उसके बाद इस तरह का सपना नहीं देखा। úùलेकिन मेरी माँ ठीक उनके विपरीत थीं। उनका नाम दुरपाती था। वे मेरे पिता की दूसरी पत्नी थीं। मेरी पहली माँ का निध्ान जिस समय हुआ उस समय पिता जी की उम्र सिर्फ 30 साल थी। पहली माँ से मेरे बड़े भाई स्व. रामनगीना सिंह और मेरी बड़ी बहन स्व. मोतिसरी देवी। दूसरी माँ से मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरे बाद मेरी छोटी बहन फुल कुंवरी, उससे छोटे मेरे दो भाई कृपा शंकर सिंह और बद्री नारायण सिंह और सबसे छोटी बहन शकुन्तला। माँ पहले ही चल बसीं, पिताजी भी थोड़े साल बाद नहीं रहे। संयुक्त परिवार में स्व. यशोदानन्द सिंह के एक ही पुत्र है ब्रजनन्दन सिंह। वे हमारे पिताजी से बड़े थे। उनको हम सब लोग बाबू जी कहते थे। उनसे छोटे थे स्व. यमुना सिंह जी। उनके दो पुत्र थे- स्व. शिवपूजन सिंह और हरिशंकर सिंह। परिवार के सभी लड़के बाबू जी को इसी नाम से पुकारते थे। मैं अपने पिताजी को ‘काका’ के नाम से जानता था और छोटे चाचा यमुना सिंह जी को ‘बबुआ’ के नाम से। परिवार के सभी लोग इन्हीं नाम से उन्हें पुकारते भी थे। बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र गिरिजा शंकर सिंह जो कृपा शंकर से कुछ महीने बड़े थे, वे भी इन लोगों को इसी नाम से सम्बोध्ाित करते थे। उस समय अपने से बड़े का नाम लेकर सम्बोध्ाित करने को अशिष्टता माना जाता था। हम लोगों की बहनों में भी यही मान्यता थी और उनको सम्बोध्ाित करने में भी इसी परम्परा से निर्वाह होता था। बाद में इसमें बड़ा बदलाव आया। कभी-कभी मुझे यह बहुत अटपटा लगता था पर अब तो यह सामान्य बात हो गई है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि बेटों-भतीजों की पत्नियाँ भी अपने पतियों का नाम लेने में नहीं सकुचातीं। इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती पर अपना मन तो इसे स्वीकार करने में हिचकता अवश्य है। मेरे गाँव के घर में महिलाएं पुरुषों के सामने कम आती थीं। परिवार में पूरी पर्दा प्रथा थी। आज माँ को याद करता हूँ तो उनकी ममता याद आती है। वे गरीबों का बहुत ख्याल रखती थी। मुझसे उनका गहरा लगाव था। बचपन की उनकी कुछ यादें मेरे मन में आज भी उतनी ही ताजा हैं। मुझे पैसे की जरूरत होती थी तो उन्हीं से मांगता था। एक दिन मैंने गमछा खरीदने के लिए माँ से पैसे मांगे। उन्होंने आठ आने या एक रुपया दिया था। पैसे लेकर मैं एक मीटिंग में चला गया। आठवें दर्जे से ही मैं एक प्रकार से राजनीति में आ गया था। तब मैं आर्य समाजियों के प्रभाव में था। माँ के दिए पैसे मीटिंग में कहीं खर्च हो गए, या मैंने किसी को दे दिए। घर लौट कर आया तो माँ ने पूछा: गमछा नहीं खरीदा? क्या पैसे झण्डा उड़ाने में खर्च कर दिए? झण्डा उड़ाने से उनका तात्पर्य मेरी राजनीतिक-सामाजिक गतिविध्ाियों से था। मैं हँस पड़ा, वे भी हँसने लगीं। उन्होंने गमछा खरीदने के लिए फिर से पैसे दिए और कहा कि इस बार जरूर खरीद लेना। मेरी माँ स्वभाव से बड़ी ध्ाार्मिक थीं। वे परिवार को एक रखने के लिए हमेशा सचेत रहती थीं। जब मैं बी.ए. में पढ़ता था तब उनका निध्ान हुआ। वे अचानक बीमार पड़ी और चल बसीं। इलाज या दवा का इंतजाम नहीं हो पाया। मैं उस समय बलिया में था मुझे खबर लगी तो गाँव आया। उनकी अंत्येष्टि हो चुकी थी। बचपन में मुझे गुड़-घी के साथ रोटी खाना बहुत पसन्द था। गुड़ और घी रोटी में लपेट कर ‘चोगा’ बनाते थे फिर खाते थे। माँ मेरे लिए अक्सर यह बना देती थीं। वे बचपन में कभी-कभी रात में भी यह चोगा बना कर मुझे खिलाती थीं। बेसन की सब्जी भी मैं बहुत चाव से खाता था। जब तक वे जिन्दा, रहीं, मैं जब भी स्कूल या काॅलेज से छुट्टियों में घर लौटता था तो वे मेरे लिए बेसन की सब्जी बना कर रखना नहीं भूलती थीं। जब मेरी माँ का निधन हो गया, उसके बाद मुझे मेरी पसन्द की वह सब्जी गाँव जाने पर मिलती रही। दूर के मेरे एक चाचा थे। उनकी पत्नी को हम ‘मौसी’ कहते थे। उनका मायका मेरे ननिहाल के गाँव के पास था। जब गाँव लौटता था तो वही बेसन की सब्जी बना कर मुझे खिलाती थीं। एक बार मैं घर गया तो मौसी का कोई सन्देश नहीं आया। मैंने किसी से पूछा कि क्या बात है, इस बार मौसी ने खाने पर नहीं बुलाया? 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प्रतिपुष्टि