भरी दोपहरी थी। मैं कहीं बाहर से लौटा तो मैंने दो ध्ाुले-ध्ाुले आदमियों को अपने बरामदे में बैठे हुए पाया। मैंने स्कूटर बरामदे में चढ़ाया तो दोनों उठ कर खड़े हो गये। उन्होंने हाथ जोड़े तो मैंने सिर हिला कर उनके नमस्कार का जवाब दिया। ‘कहिए।’ मैंने पूछा। ‘कल हम आपको ले जायेंगे।’ उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के कहा। मैं चुप। कुछ खिसियाया हुआ-सा। ‘पूर्व प्रध्ाानमंत्री जी का आदेश है।’ उन्होंने कहा। ‘कौन पूर्व प्रध्ाानमंत्री जी?’ मुझे थोड़ी चिढ़ हुई। ‘अरे अपने।’ उस आदमी की आवाज के ठाट में पुरुबियापन था। ‘क्या अगवा करके ले जायेंगे?’ मैंने कहा। ‘अरे नहीं जी, हमें जैसा आदेश हुआ वही न करेंगे।’ उनमें से एक ने कहा। दूसरे ने अपनी जेब में हाथ डाल कर कुछ निकाला। वह रेल का सेकेंड ए.सी. का टिकट था। बाक़ायदा मेरा नाम। अन्दाज़ से उम्र। मैं रिटायर हो चुका था यूनिवर्सिटी से, लेकिन उसमें मेरी उम्र 55 वर्ष लिखी हुई थी। बक्सर का टिकट था- मगध्ा एक्सप्रेस से। दूसरे दिन सुबह का। मगध्ा एक्सप्रेस भोर में चार बजे के आस-पास यहाँ आती है। उन दिनों मैं अपने नये घर में झंूसी में रहता था। पत्नी वहाँ, उस किराये के घर में नौकर के साथ। तीनों बच्चे बाहर चले गये थे। पत्नी रेडियो में नौकर थी। उसका दफ्तर उस घर से महज़ आध्ाा किलोमीटर की दूरी पर था। इसलिए वह अभी यहीं रहती थी। मैं रोज दिन ढले आता और रात का खाना खाकर झंूसी निकल जाता। मैंने तुरन्त सोचा कि अगर पूर्व प्रध्ाानमंत्री जी के आदेश का पालन करना है तो आज झंूसी जाना नहीं होगा, क्योंकि स्टेशन इस घर से बहुत पास था। रिक्शा न मिलने पर पैदल जा सकते थे। मगध्ा एक्सप्रेस नौ-साढ़े-नौ बजे के आस-पास बक्सर पहुँचती है। घर (अपने गाँव) जाने के लिए भी अक्सर मैं मगध्ा एक्सप्रेस पकड़ कर ही जाता था। इध्ार कई वर्षों से नहीं गया था। अचानक मुझे सूझा, यह तो अच्छा मौक़ा है, मुफ़्त में घर पहुँच जाऊँगा। मैंने घर का ताला खोला, उन सहानुभावों को पानी-वानी पिलाया और चलने की हामी भर दी। ‘तो कल हम लोग भोरे पहुँच जायेंगे।’ उन्होंने कहा। ‘आप लोग स्टेशन पर ही रहियेगा, हम आ जायेंगे।’ मैंने कहा। ‘लेकिन पूर्व प्रध्ाानमंत्री जी मेरा करेंगे क्या?’ मैंने पलट कर हँसते हुए पूछा। ‘अरे, जो भी करेंगे।’ उनमें से एक ने कहा। ‘केदारो जी चल रहे हैं।’ दूसरे ने कहा। ‘कौन केदारो जी?’ मैंने पूछा। ‘कबी जी। केदारनाथ सिंह।’ मुझे थोड़ी तसल्ली हुई। चलो, कोई तो अपना आदमी है। और केदार जी तो एक बड़े कवि हैं। सासंग रहेगा। जब मैं महन्थ हाई स्कूल, बलिया में पढ़ता था तो वहाँ दो नाम चर्चा में थे। चन्द्रशेखर और गौरीशंकर राय। सारे लड़के चुपचाप इन दोनों के दीवाने थे। कुछ-कुछ ‘दर्शन’ जैसा माहौल रहता था। दोनों लम्बे-लम्बे, खूबसूरत, मर्दाने। जब वे कालेज की सड़क से माल गोदाम की तरफ़ पैदल चलते तो थोड़ी दूरी बना कर हम लड़कों का झुंड पीछे-पीछे चलता था। ध्ानुष की तरह थोड़ी झुकी चन्द्रशेखर की पीठ हमारे आकर्षण का मुख्य कारण थी। इसके विपरीत गौरीशंकर राय तन कर चलते थे और चन्द्रशेखर की अपेक्षा ज्यादा गोरे थे। कभी-कभी चन्द्रशेखर पीछे मुड़ कर, सम्मोहित और उनके पीछे-पीछे चलने वाले विद्यार्थियों को देखते। तब हम लोग निहाल हो जाते। चैड़ा माथा, भरे हुए काले केश, बाद के दिनों की कटी-छैटी दाढ़ी की अपेक्षा कुछ ज़्यादा बड़ी और घनी काली दाढ़ी। पूरा चेहरा ज्योमेट्री के त्रिभुज के तीनों अन्तःकोणों की तरह तिकोना, लम्बा, कुछ-कुछ अजनबी-सा। पुरुष सौन्दर्य के मानकों के विपरीत। हमारी तरफ़ गोलगाल, बबुआनुमा चेहरे सुन्दर माने जाते हैं। हमारा भी सौन्दर्य-बोध्ा कुछ-कुछ वैसा ही था। भोजपुरी सौन्दर्य के मानकों पर चन्द्रशेखर सुन्दर नहीं ठहरते थे, और यही बात चलते उठते-बैठते चन्द्रशेखर के प्रति एक भारतीय राजनीति का अकेला किसान चेहरा ध् 137 138 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर अजीब आकर्षण पैदा करती थी। यह आदमी हमारे पुरुबिया कबीले में किध्ार से घुस आया। ऊँची खड़ी नाक, गाल की दोनों हड्डियाँ ज़रूरत से ज़्यादा उभरी हुई, बड़े-बड़े ख़ूबसूरत, चमकते कान, मोटी-मोटी भौहों के नीचे आयत नयन- एक अजीब सा, अद्वितीय चेहरा था चन्द्रशेखर का, जिसके बारे में सोचना पड़ता था। विचित्र सुन्दर, और मर्दाना और हमेशा हड़बड़ी में हो जैसे। चिढ़ा और कुछ-कुछ गुस्सैल, जैसे कहीं-कुछ ग़लत हो रहा हो। उन दिनों, और बाद के दिनों में भी चन्द्रशेखर को कभी मैंने खुलकर हँसते हुए नहीं देखा। ‘महन्थ हाई स्कूल’ (बाद का ‘सतीशचन्द्र काॅलेज’) में रहते ही चन्द्रशेखर ने अपना पहला अनशन किया। संस्कृत के आचार्य और महान पंडित सीताराम चतुर्वेदी उन दिनों कालेज के प्रिंसिपल थे। अचानक उनको हटा दिया गया और बाहर से अर्थशास्त्र के एक प्रोफेसर डाॅ. कपिल देव उपाध्याय को प्रिंसिपल बना कर बुलाया गया। चन्द्रशेखर पंडित सीताराम चतुर्वेदी के पट्ट-शिष्य थे। बस, क्या था, चन्द्रशेखर सतीशचन्द्र काॅलेज की कार्यकारिणी के इस निर्देश के विरुद्ध आमरण अनशन पर बैठ गये। काॅलेज के मुख्य द्वार के भीतर पेड़ के नीचे एक दरी बिछा कर चन्द्रशेखर लेट गये। पढ़ाई बन्द, लेकिन लड़कों को भगाना असम्भव। आज की तरह उन दिनों बार-बार पुलिस नहीं बुलाई जाती थी। विद्यार्थियों का झुंड चन्द्रशेखर के इर्द-गिर्द एकत्र हो गया। पहली बार वह नारा उठा- ‘चन्द्रशेखर: जि़न्दाबाद। जि़न्दाबाद, जि़न्दाबाद।’ क्यों जि़न्दाबाद, यह छात्रों को भी विशेष कुछ मालूम नहीं था। पं. सीताराम चतुर्वेदी के नाम पर भी कभी-कभी ‘जि़न्दाबाद’ के नारे लगते और डाॅ. कपिलदेव उपाध्याय के नाम पर बीच-बीच में ‘मुर्दाबाद’ के नारे भी। छात्रों के लिए यह एक नये खेल की तरह था। सन् 42 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में हमारा जि़ला (बलिया) 14 दिनों तक अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ाद हो गया था। हमारे यहाँ के लोगों में एक अद्भुत किस्म का भाव और बिना सोचे-समझे आन्दोलन करने, झगड़ा मोल लेने और मारपीट करने की ‘जेनेटिकल’ प्रवृत्ति है। अगर एक नेता मिल जाय तो उसके पीछे पीले बर्र के झुंड की तरह लहराते हुए चल देते हैं और किसी को भी काट लेते हैं। इस तरह के माहौल के ठीक उल्टा चन्द्रशेखर की वह भूख-हड़ताल अजीब किस्म से शान्त थी। क्योंकि चन्द्रशेखर बीच-बीच में उठ कर लड़कों को कड़ी डाँट लगा देते थे। वहाँ इतनी शान्ति रहती थी कि लगता था, कोई संन्यासी है, जो तपस्या में बैठा है। मैंने पहली बार जाना कि अनशन क्या होता है। लड़के आपस में गेट के बाहर निकल कर भुनभुनाते थे- ‘गाँध्ाी जी का चेला है। यह भी तैंतीस दिन का उपवास रखेगा।’ कुछ बदमाश लड़के अक्सर यह अफवाह फैला रहे थे कि ‘रात में चुपके से कुछ खा लेता है। बहरहाल, इस अनशन ने चन्द्रशेखर को एक छात्र से एक बड़े नये नेता के रूप में अचानक ही ढाल दिया। अगर चन्द्रशेखर हाॅस्टल से निकल कर काॅलेज की ओर जा रहे हैं तो बेमतलब छात्रों का एक झुंड उनके पीछे लग लेता था। ‘चन्द्रशेखर, जि़न्दाबाद।’ अचानक उनमें से कोई लड़का पीछे से नारा देता। ‘जि़न्दाबाद-जि़न्दाबाद।’ चन्द्रशेखर को यह सब अच्छा लगता था। पं. सीताराम चतुर्वेदी के लिए किये गये उस अनशन ने चन्द्रशेखर को एक साध्ाारण छात्र से रातों-रात एक नये नेता के रूप में बदल दिया। बाद के दिनों का ‘यंग टर्क।’ सबसे महत्वपूर्ण ‘यंग टर्क।’ यह चन्द्रशेखर के राजनैतिक जीवन की शुरूआत थी। बाद में चन्द्रशेखर आगे की पढ़ाई के लिये इलाहाबाद चले गये। वहाँ उनके बारे में यह बात ख़ूब चली कि चन्द्रशेखर जाड़ों भर इलाहाबादी अमरूद खाकर बिताते थे। मैं बहुत बाद में इलाहाबाद पहुँचा, जब वे पढ़ाई खत्म करके इलाहाबाद से जा चुके थे। वे कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं, यह पता नहीं था। कम से कम मुझे तो बिल्कुल नहीं। राजनीति की हड़बोंग से मुझे वैसे भी चिढ़ रही- हमेशा। मैं एक छोटे किसान परिवार से आता था। पढ़-लिख कर कोई नौकरी पाना प्रमुख उद्देश्य था। ग़रीबी-किसानी में एक अजब-सा सुनसान था। उसमें डटे रहने के लिए एक मज़बूत कद-काठी, शारीरिक रूप से परिश्रमी होने की ज़रूरत थी, और मैं एक निहायत दुबला-पतला, हीन, बार-बार बीमार पड़ने वाला लड़का था। अतः रास्ता एक ही था- इस जीवन से निकल भागो, यह नर्क है। यह जीवन एक हरा-भरा रोमानी स्वर्ग है, जिसके लायक तुम नहीं हो। यह सोच कर में पढ़ाई में मेहनत से लगा रहा। मैं एक छिपा रुस्तम था। घर वाले समझते थे कि यह हमारा बेटा पढ़ने में तेज़ है। यह नौकरी में जायेगा तो कमाई से घर-बार भर देगा। तब हम गाँव भर को लट्ठ लेकर चैलेंज करेंगे, मारपीट करेंगे, मुकदमे लड़ेंगे, घर पक्का बनवायेंगे- क्या-क्या महत्त्वाकांक्षाएँ थीं भारतीय राजनीति का अकेला किसान चेहरा ध् 139 140 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर मेरी पढ़ाई को लेकर। मैंने वही किया लेकिन, मैं गाँव लौटने के लिए नहीं गया था। मैंने अपने पिता की बीमारी में उनकी सेवा के लिए एक साल के लिए पढ़ाई छोड़ी और जब वे नहीं रहे तो मैंने फिर दुबारा पढ़ाई शुरू की। उन दिनों सारे पुरुबिये लड़कों में बनारस की अपेक्षा इलाहाबाद का ‘क्रेज़’ अध्ािक था। अतः अपनी एम.ए. की पढ़ाई के लिए मैं बनारस न जाकर सीध्ो इलाहाबाद आया। जब मैंने दाखि़ला लिया तो चन्द्रशेखर यहाँ से जा चुके थे। और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी छात्र-संघ पर काँग्रेस और फिर लोहियावादियों का बारी-बारी से कब्ज़ा होता रहा था। उसमें मेरी कोई रुचि नहीं थी और मैं चुपचाप अपनी पढ़ाई में लगा रहा। पढ़ाई के बल पर ही मुझे गँवई नरक से बाहर होना था। गाँव एक ठहरी, सड़ी हुई गड़ही की तरह था। वहाँ गन्दगी, बीमारी, मौत, चेचक और हैजे का प्रकोप था। उन गाँवों की सँड़ाध्ा के खि़लाफ चन्द्रशेखर ने भी कोई पहल नहीं की। वे अपनी राष्ट्रीय राजनीति में मुब्तिला रहे। इब्राहिम पट्टी (अपने गाँव) का ज़रूर उन्होंने थोड़ा-बहुत ख़्याल रखा। वहाँ एक अस्पताल भी बना। लेकिन उसके निर्माण का चार्ज भी मेरे प्रारम्भिक गुरु और संन्यासी स्वामी ओंकारानंद के जि़म्मे था, जो मेरे गाँव के सामने दो किलोमीटर दूर, बक्सर-बलिया सड़क के उस पार बँभनौली नामक ग्राम में रहते थे। वे एक क़ट्टावर-खूबसूरत संन्यासी थे, जो न जाने कब और कहाँ से भाग कर संन्यासी बने, बंभनौली में कुटी बनाई और वहीं रहने लगे। बँभनौली अब आध्ो से ज़्यादा ढाही में गंगा में समा गया है। जब 1998 वाले चन्द्रशेखर के चुनाव में मैं गया तो उनसे छुट्टी पाने के बाद मैं बँभनौली गाँव, स्वामी ओंकारानंद की कुटी की खोज में गया। उस पर एक स्थानीय किसान ने कब्ज़ा कर लिया था। मैंने स्वामी जी की उस समृद्ध लायब्रेरी के बारे में पूछ-ताछ की। उसने कुटी का वह बड़ा वाला कमरा दिखाया, जिसमें भूसा भरा हुआ था। किताबें उसी भूसे में भरी हुई थीं। ‘जब अनाज भूसे में बचा रहता है तो किताबें क्यों नहीं।’ उस किसान भाई का तर्क था। ‘बिल्कुल-बिल्कुल’, मैंने कहा और लौट आया। तो स्वामी ओंकारानंद, जो एक निर्विविवाद, निष्कलंक साध्ाु थे, जो चन्द्रशेखर के भक्त थे (या मा. पूर्व प्रध्ाानमंत्री जी उनके भक्त थे) और जिन्होंने इब्राहिम पट्टी के अस्पताल का निर्माण करवाया था, उनकी किताबें, उन्हीं की परित्यक्त कुटी के सबसे बड़े कमरे में भूसे में दबी पड़ी थीं। मैंने लगभग सारे उपनिषद् और पुराण उसी लाइब्रेरी से लाकर पढ़े थे। अगर किताबें लौटाने में देर हो जाती तो स्वामी जी हमारे दरवाजे़ पर टपक पड़ते। वे अक्सर मुझे हल्की-सी डाँट लगाते। बाद के दिनों में जब वे बहुत बूढ़े हो गये थे तो मेरे किराये वाले घर में एक बार मुझे ढूँढ़ते आये थे और मुस्कुराते हुए उन्होंने मेरे बच्चों के सिर पर हाथ रखा था। मैं आज भी नहीं जानता कि वे कौन थे, कहाँ के थे, संन्यासी हुए तो वह तो ठीक है, फिर उन्होंने चन्द्रशेखर के इब्राहिम पट्टी वाले अस्पताल में हाथ क्यों लगाया? अथवा यह झूठ है, उन्होंने ऐसे ही बड़बोली में बलिया में ‘रामराज्य परिषद’ के दफ़्तर में मुझसे यह बात कही, जहाँ वे मुझसे अन्तिम बार मिले थे। उनकी मृत्यु कब और कहाँ और कैसे हुई यह चन्द्रशेखर और उनके अनुयायियों को मालूम होगा। लेकिन उन दिनों बलिया में माहौल यह था कि हर व्यक्ति अपने को चन्द्रशेखर से जोड़ने में गर्वित होता था। और बलिया में झूठ एक सच की आँध्ाी की तरह चलता है। क्या स्वामी ओंकारानंद भी इस आँध्ाी के शिकार थे? क्या उनका भी कहीं दूर-दराज घर-द्वार, बाल-बच्चे, परिवार, कलह और अन्तर्कलह था, जिसे छोड़ कर वे चले आये थे, और चुपके-चुपके जुड़े भी थे। हर संन्यासी की जड़ किसी-न-किसी गृहस्थी में खोदने पर मिल जायेगी। जब मैं ‘उदासी सम्प्रदाय’ की बात सुनता हँ तो मुझे लगता है संन्यासियों के किसी संवर्ग का दुनिया में इससे ख़ूबसूरत और ‘जेनुइन’ नाम नहीं हो सकता। चन्द्रशेखर का वैचारिक-राजनैतिक निर्माण, दरअसल, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव और अशोक मेहता के व्यक्तित्व और विचारों के आलोक में हुआ था। लेकिन राजनीतिक कॅरियर की खोज में वे ध्ाीरे-ध्ाीरे काँग्रेस की ओर झुके। ‘यंक टकर््स’ उन दिनों एक मुहावरा था जो चन्द्रशेखर से लेकर मोहनध्ाारिया और अन्य कई लोगों के लिए प्रयुक्त होता था। इस शब्द-युग्म का कोई इतिहास होगा, जिसे मैं नहीं जानता, लेकिन इनको साथ लेकर ही इन्दिरा गाँध्ाी ने निजलिंगप्पा ग्रुप के त्रिगुट को ध्वस्त कर दिया। चन्द्रशेखर उनमें सबसे प्रमुख थे। ‘यंग टकर््स’ का यह समूह राजनीति में कुछ इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि (मेरा ऐसा ख्याल है) स्वयं श्रीमती गाँध्ाी भी इनसे भीतर ही भीतर ख़ौफ़ खाने लगीं। सहायक की भूमिका में होते हुए भी यह ग्रुप अपनी एक स्वतंत्र इयत्ता बनाता हुआ दिख रहा था। चन्द्रशेखर के गुरु और अभिभावक भारतीय राजनीति का अकेला किसान चेहरा ध् 141 142 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर श्री जयप्रकाश नारायण ने जब दूसरी आज़ादी और सम्पूर्ण क्रांति जैसी बातें समाज और राजनीति के सामने रखनी शुरू कीं तो भीतर ही भीतर ‘यंग टकर््स’ ग्रुप ने जयप्रकाश जी के विचारों का समर्थन किया। ये सब बातें ‘कामराज प्लान’ के बाद की या उसके समानान्तर ध्ाीरे-ध्ाीरे सुलग रहीं थीं, सारे अख़बारी समाचारों के बावजूद, मेरे जैसे आदमी के लिए उसकी तह में जाना और उन पर सटीक टिप्पणी करना मुश्किल है। इन्हीं राजनैतिक अस्तव्यस्ताओं और संभ्रमों या अचानक फूट पड़ने वाले राजनैतिक आघातों की शंकाओं के मद्देनज़र श्रीमती गाँध्ाी ने आपात्काल की घोषणा की और एक ही रात में ये सारे विरोध्ाी और शंकास्पद लोग जे़लों में ठूँस दिये गये। विचारों की स्वतंत्रता और प्रतिरोध्ा की किसी भी आवाज़ को कुचल दिया गया। चन्द्रशेखर सहित सारे ‘यंग टकर््स’ और अन्य विरोध्ाी पार्टियों के तेजस्वी नेताओं और बुद्धिजीवियों को भीतर कर दिया गया। अख़बारों और प्रतिरोध्ाी विचारों की पत्र-पत्रिकाओं पर पाबन्दी लगा दी गयी। उन दिनों अंग्रेज़ी के किसी अख़बार में बाॅक्स के भीतर मोटे टाइप में श्रीमती गाँध्ाी के वक्तव्य की एक पंक्ति पर ध्यान दें तो सारा मामला साफ़ दिखने लगता है। वह वाक्य था- श्डल ंिजीमत ूंे ं ेंपदजए प् ंउ ं चवसपजपबपंदएश् राजनीति में जो सबसे निकट होता है, वही सबसे पहले छुरा भोंकता है। श्रीमती गाँध्ाी को ‘यंग टर्क’ चन्द्रशेखर से यही डर था। दूसरे, वे जयप्रकाश जी के पट्ट शिष्य थे। और जयप्रकाश जी वह व्यक्ति थे, जो अपनी शुद्धता, पवित्रता के लिये सर्वस्वीकृत थे। ‘जिसको कुछ नहीं चाहिए’, ऐसे व्यक्तित्व को भारतीय समाज सिर-आँखों में बिठा कर रखता है और उसके लिए मर-मिटने को तैयार हो जाता है। सम्पूर्ण क्रान्ति का अर्थ ही था, विचारों का नैतिक प्रक्षालन। और वही करने के लिए जयप्रकाश जी ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया था। इसी इलाहाबाद में आपात्काल के ठीक पहले जब हम लोगों ने जयप्रकाश जी को ‘आज की राजनीति’ पर विशेष व्याख्यान के लिए निमंत्रित किया, और जब वो आये तो उन्होंने यह बात कही, कि ‘सम्पूर्ण क्रांति के लिए अगर हथियारबंद लोग भी सामने आते हैं तो मैं उनका हाथ नहीं पकड़ँूगा।’ यह महात्मा गाँध्ाी के सन् 1942 वाले आवाहन (मणि भवन, बम्बई) के ‘करो या मरो’ वाले संदेश का ही अग्रिम चरण था। लेकिन थोड़ा बाद में, अंग्रेजों के जाने के बाद और भारतीय प्रजातंत्र में फैलने वाले प्रदूषण को साफ़ करने के लिये। भारतीय राजनीति का यह नया परिदृश्य था- आपात्काल। और चन्द्रशेखर अपने गुरु समेत सारी पार्टियों के सारे विरोध्ाियों के साथ जेल में थे। आपात्काल हटने के बाद और 77 वाले चुनाव में इन्दिरा गाँध्ाी की भयंकर पराजय के बाद जयप्रकाश जी के प्रयत्नों से जब जनता पार्टी का गठन हुआ तो चन्द्रशेखर को उसका अध्यक्ष बनाया गया। ‘जनता पार्टी’ अपने ढंग की एक अनोखी पार्टी थी। उसमें किसिम-किसिम के विचारों के लोग थे, और उसी तरह केन्द्रीय मंत्रिमंडल में भी एक सतमेझरापन था। अनाजों में तो यह सतमेझरापन चल सकता है, विचारों में नहीं चल सकता। जिस मंत्रिमंडल में मुरार जी देसाई प्रध्ाानमंत्री थे, उसमें श्री लालकृष्ण अडवाणी ‘सूचना और प्रसारण मंत्री’ थे। क्या जयप्रकाश जी ऐसा सोचते थे कि विभिन्न वैचारिक अनुशासनों के लोग एक साथ देशहित में मिल कर काम कर सकेंगे? ऐसी भोलीभाली जि़द् शासन और सत्ता में नहीं चलती। और अन्ततः नहीं ही चली। दो-तीन वर्षों के भीतर ही जयप्रकाश जी का वह ‘यूटोपिया’ बिखर गया और उनके पट्ट-शिष्य चन्द्रशेखर उनके विचारों से निर्मित ‘जनता पार्टी’ को छाती से चिपकाए अकेले रह गये। जेल से छूटने पर जब उनका सितारा बुलन्दी पर था, उसका फ़ायदा उठा कर दिल्ली के एक प्रकाशन-गृह ने उनकी लिखत-पढ़त का एक ‘सेट’ प्रकाशित किया। उसमें चन्द्रशेखर की जेल-डायरी भी थी। तब मैंने उसे और उनके दूसरे साहित्य-खंडों को पढ़ा था। सम्भवतः आपात्काल पर उनकी जेल-डायरी उस वक्त के ऐतिहासिक परिदृश्य को जानने के लिये सर्वोत्तम रचना है। मुझे उनकी भाषा और उनकी अभिव्यक्ति-क्षमता पर गर्व हुआ। मैं उनको एक गुस्सैल, गम्भीर राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में ही जानता था, उनके विचारक रूप से मेरा परिचय उनकी लिखी किताबों से पहली बार हुआ- ख़ास कर उनकी जेल-डायरी के माध्यम से। अब वे सारी किताबें प्रकाशन-बाज़ार में कहीं नहीं दिखतीं। बक्सर स्टेशन पर मैं उतरा तो मेरे लिए पहले से ही एक संदेश था। ‘तुम स्टेशन पर ही रुको, मैं रामसुन्दर दास (पूर्व मुख्यमंत्री-अविभाजित बिहार, 96 वर्ष की उम्र में इसी महीने मृत्यु) के प्रचार में हूँ और थोड़ी देर में लौटता हूँ।’ यह संदेश वहाँ किसने दिया, यह याद नहीं। चन्द्रशेखर अपने लाव-लश्कर के साथ थोड़ी ही देर में पहुँच गये। प्रोग्राम यह था कि बक्सर-बलिया सड़क पर और उसके अगल-बगल जितने भी गाँव है, उनमें प्रचार करते हुए वे बलिया पहुँचेंगे। टाउन-हाल में एक बड़ी सभा होगी और उसके बाद वे दुआबा की ओर भारतीय राजनीति का अकेला किसान चेहरा ध् 143 144 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर निकल जायेंगे। रास्ते में कार में उनसे कुछ बातें हुईं। सड़क के पूरब ओर एक ऊँचा बाँध्ा बन रहा था। यह पूरा इलाका बरसात में गंगा-छोटी सरयू और मँगई के साथ मिल कर एक महासमुद्र का रूप ध्ार लेता था। दुआबा वाले बैरिया-बाँध्ा की तरह ही इस बाँध्ा का निर्माण किया जा रहा था, जिससे गंगा की ढाही से बाँध्ा के पच्छिम ओर का इलाका बच जाय और बक्सर-बलिया सड़क भी बची रहे। मैंने डरते-डरते उनसे दो-तीन बातें कीं। एक तो यह कि नरही तक पीने का पानी, यानी टंकियों और नलों की व्यवस्था हो गई है लेकिन पँचगवाँ (चैरा, कथरिया, इँटहीं, दौलतपुर, पिपरा) में नहीं हुई। इससे ठाकुर लोग नाराज हैं। ‘कितना वोट होगा इन गाँवों का?’ उन्होंने पलट कर मुझसे पूछा। ‘पचास हजार के आस-पास।’ मैंने कहा। ‘इतना कैसे?’ ‘इसके बहुत सारे ‘सेटेलाइट्स’ भी तो हैं।’ मैंने कहा। ‘सेटेलाइट्स क्या?’ उन्होंने आश्चर्य से पूछा। ‘छोटे-छोटे पुरवे। अहीरों, कुर्मियों, चमारों, कोइरियों और सभी निचली जातियों के। और ठाकुर लोग इनको हाॅक कर ले जायेंगे और जहाँ चाहेंगे, वहाँ वोट गिरेगा। उसी वोट से आप जीत सकते हैं, ठाकुरों-भूमिहारों के वोट से नहीं। इस बाँध्ा से उन पुरवों के अध्ािकांश इलाके डूब जायेंगे। ‘छप्पन’ ‘पूरापर’, बड़का खेत, बँभनौली- बहुत सारे हैं। शायद यह बात उनको जंच गई। कोई और भी वजह होगी। बाद में उस बाँध्ा का आइडिया मुल्तवी हो गया। इंजीनियरों ने कह दिया कि यह बाँध्ा अवैज्ञानिक है। एक इलाके को बचाने के लिए दूसरे बहुत सारे इलाकों को गंगा की ढाही में झोंक देना होगा, जैसा कि बैरिया बाँध्ा के दौड़ाने से उसके दूसरी तरफ के सारे उपजाऊ इलाकों और गाँवों का हुआ था। मैंने ज़बान दबाते हुए यह भी कहा कि आपको पँचगवाँ के दोनवारों से माफ़ी माँग लेनी चाहिए। वे तुरन्त टूट जायेंगे। इस प्रस्ताव पर उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से कस के घूरा और कुछ बोले नहीं। यहाँ स्मृति में कुछ विभ्रय है। केदार जी (कवि केदार नाथ सिंह) हमें कहाँ मिले। शायद वे दिल्ली से सीध्ो आ गये थे। उनके लिए भी यह एक सुअवसर था चकिया (दुआबा में उनका गाँव) जाने का। वे अभी भी अक्सर अपने गाँव जाते रहते हैं। दूसरा विभ्रम है, जिसका जिक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा कि चन्द्रशेखर ने आचार्य सीताराम चतुर्वेदी के लिए अपना अनशन कहाँ किया था?- सतीशचन्द्र कालेज परिसर में या टाउन-हाल में? और क्या बरमेश्वर पाण्डे की मृत्यु उस अनशन के दौरान हुई थी या यह बाद की कोई घटना है? एक ध्ाुँध्ालापन है जो बहुत सारी बातों और घटनाओं को इध्ार से उध्ार करता रहता है। बहरहाल टाउन हाल पहुँचने से पहले चन्द्रशेखर पैदल थे सड़क पर। आगे-पीछे भीड़ थी और एक मोटा-थुलथुल गालों वाला आदमी उनके बराबर पर लगातार चल रहा था। अचानक चन्द्रशेखर ने उसे बहुत ज़ोर से डाँटा- ‘हटो यहाँ से। दूर हट के चल।’ उन्होंने अवाज़ उठा कर कहा। वह आदमी पीछे होकर भीड़ में गुम हो गया। पता चला वह एक लोकल छोटा-मोटा गुंडा है और चन्द्रशेखर के साथ दिखना चाहता है। टाउन-हाल खचाखच भरा था। तिल ध्ारने की जगह नहीं थी। मंच के पास तक लोग थे और चन्द्रशेखर की ओर टुकुर-टुकुर ताक रहे थे। बलिया के सारे स्थानीय परिचित, और लगभग सारी जनता ठसाठस भरी थी। आज भी बलिया वालों को यह गर्व है कि हमारे यहाँ से भी कोई प्रध्ाानमंत्री हुआ। इस तरह के विचार वैसे ही हैं जैसे चित्तू पांडे के बारे में हैं, सन् 42 की आज़ादी के बारे में हैं। बलिया के लोग भयंकर अतीतजीवी हैं, जैसे आगे बढ़ने की कोई ज़रूरत ही न हो। सबसे उपजाऊ, जीवंत और संवेदनशील होते हुए भी उनकी यह अतीतजीविता उन्हें यथास्थिति में बनाये रखती है। वे एक अनुगामी समूह की तरह हैं जो उत्तेजित होकर किसी भी ऐरे-गैरे के पीछे चल पड़ने को सदा तैयार रहते हैं। उनका मानसिक शोषण कितना आसान है, मैं कभी-कभी सोचता हूँ। क्या हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जनता का यह भोलापन ही उनकी उन्नति में, उनके सामूहिक विकास में सबसे बड़ा बाध्ाक नहीं है? उस मीटिंग में मैं बहुत ख़राब बोला। और केदारनाथ सिंह बहुत अच्छा बोले। बलिया की और देश की राजनैतिक अवस्था की उनकी इतनी गहरी पकड़ है, यह मैंने पहली बार जाना। या, शायद, उनके लगातार गाँव जाने का असर था। उनका एक पाँव आज भी चकिया (अपने गाँव) में ही रहता है। हमसे फ़ोन पर (या ऐसे भी) बातें करते वक्त वे हमेशा भोजपुरी में बोलते हैं। लेकिन चन्द्रशेखर की वाणी का तेज मैंने पहली बार सुना। उनकी राजनीति की जानकारी और उनके बोलने की भारतीय राजनीति का अकेला किसान चेहरा ध् 145 146 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर कला पर मैं मुग्ध्ा था। आज के राजनैतिक वक्ताओं की तरह वे आवाज़ को भदेस ढंग से उठाने-गिरने और निरर्थक अभिनय या व्यक्तित्व के मिथ्या प्रदर्शन से बिल्कुल अलग एक विद्वान आचार्य की तरह तथ्यों और बातों का जोड़ बैठा रहे थे। वे सबके लिये बोल रहे थे- विद्वानों के लिए भी और सामान्य जन-समाज के लिए भी। यह महारत आज कितने राजनीतियों को हासिल है, मुझे तो नहीं मालूम। मीटिंग के बाद उन्होंने दूसरे दिन सुबह ‘चन्द्रशेखर नगर’ वाले अपने घर पर हमें नाश्ते के लिए आमंत्रित किया। पहले कटहल नाला का पुल पार करने पर बलिया ख़त्म हो जाता था। निकलते ही देहात, सड़क पर दोनों ओर पुराने-घने पेड़। हमारी ओर सड़कों के दोनों ओर लगे इन पंक्तिबद्ध पेड़ों के लिए एक शब्द चलता है- ‘लखराँव’। बहुत दिनों तक मैं व्युतपत्ति शास्त्र की दृष्टि से इसको प्राचीन-नवीन करता रहा। आप दूर से देखिये तो यह पेड़ों का कोई बगीचा नहीं लगता। लगता है, एक हरी-भरी कतार है- दूर तक जाती हुई। ‘लखराँव’ को लेकर इसके संस्कृत रूप की खोज में मैं ‘लक्षराजि’ (लाखों का सौन्दर्य) तक ही पहुँचा। पता नहीं, मैं सही हूँ या नहीं, लेकिन तक कटहल नाले का पुल पार करते ही इस ‘लखराँव’ में हम घुस जाते। सुन्दर-सजीले, हरे-भरे वृक्षों के नीचे दौड़ती हुई ऊबड़-खाबड़, टूटी-फूटी सड़क। तब उध्ार बस्ती नहीं थी। अब वहाँ घनी बस्ती है- चन्द्रशेखर नगर। उसी में चन्द्रशेखर का पुराने शिल्प का, कुछ-कुछ, बर्मी-तिब्बती शिल्प का ‘गोम्पाओं’ की तरह का मकान है। दूसरे दिन सुबह के नाश्ते पर हम गये तो मैंने उस मकान को चारों ओर से घूमघाम कर देखा। उसकी बनावट से चन्द्रशेखर की सौन्दर्य-दृष्टि का पता चलता है। चाहे आर्किटेक्ट कोई भी हो, उसको चन्द्रशेखर ने पसन्द तो किया ही होगा। वहाँ हर कमरे में खादी की सफ़ेद चादरें गद्दों पर बिछी हुई थीं। सारे रख-रखाव में सफ़ेद खादी, दूध्ा-ध्ाुली खादी के विछावन दर्शनीय थे। नाश्ते के बाद सारे लोगों को दुआबा की ओर प्रस्थान करना था। मैंने मना कर दिया। केदार जी गये। मैं घर लौटा। सड़क पर ही हमारा चक है। ट्यूबवेल चल रहा था। मैंने भर-पेट स्नान किया। लोगों से हालचाल लिया। रुका नहीं। जो पहली बस मिली उससे बक्सर स्टेशन। ‘इलेविन अप्’ (अपर इंडिया) के किसी डिब्बे में घुसा। और सबेरे घर। चन्द्रशेखर को देखने समझने का यह पहला और आखिरी अवसर था। इसके बाद जब भी वह मिले, उन्होंने एक ही सवाल दुहराया, ‘कोई काम तो नहीं है? कुछ चाहिए तो नहीं?’ और हर बार मेरा उत्तर नकार में होता। भोंडसी में उन्होंने अपना एक आश्रम भी बनवाया था, जहाँ वे अक्सर विश्राम के लिये जाते थे। नामवर जी और केदार जी अक्सर वहाँ जाते थे, लेकिन मैं कभी नहीं गया। चन्द्रशेखर के पास कोई एक कवि जी भी थे। उनकी कविताएँ (या गीत) चन्द्रशेखर जी को बहुत पसन्द थे। नामवर जी और केदार जी जब भी जाते, उन कवि महोदय का पाठ वे ज़रूर करवाते। पता नहीं वे कहाँ और किस हाल में हैं। और भोंडसी भी बचा या उजड़ गया। अपने अन्तिम दिनों में उन्हें ‘बोन-मैरो का कैंसर’ था। एक बार ‘अपोलो’ के डाॅक्टरों ने उन्हें ऐसी दवा दे दी कि वे 25 घंटों तक सोते रहे थे। यह ख़बर अख़बारों में आयी थी। जगने के बाद, बताते हैं, कि चन्द्रशेखर अपने पुराने अन्दाज़ में बिगड़े थे। भारतीय राजनीति में वह अकेला किसान-चेहरा था। ऊबड़-खाबड़, हड़ीला, खूबसूरत, शान्त और गुस्सैल। और घने रूप में सहज और आत्मीय। जिसे सारनाथ में रहना पसन्द था। और जहाँ वे कभी नहीं रह पाये। (लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे हैं)