चन्द्रशेखर: दिशाबोधक राजनीति के दस्तावेज

ओमप्रकाश  


चन्द्रशेखर जी के सम्बन्ध में लिखना जितना आसान है, उतना ही कठिन। भारत के राजनीतिक क्षितिज पर चन्द्रशेखर जी जैसा व्यक्तित्व कभी-कभी उभरता है और संघर्ष से सत्ता के शीर्ष पद तक पहुँच कर अपनी एक अलग पहचान बनाता है। उनके जीवन का वामय, समाजवादी चिंतन धारा को यथार्थ जामा पहनाने में कभी-कभी अकेले हो जाना, लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में दलीय प्रतिबद्धता के विपरीत खड़ा होना, विषम परिस्थिति में भी अपने विचारों पर अडिग रहना, छात्र-युवा राजनीति को दिशा-दशा देने में कभी पीछे नहीं हटना, दलीय राजनीति की मर्यादाओं को दरकिनार करने की बिना पर भी मुल्क के सामयिक संघर्षों में अपनी अलग दृष्टि के साथ खड़ा हो जाना, परिवर्तनवादी आन्दोलनों से मुल्क के भविष्य को तलाशना, युवातुर्क नेता के रूप में अपनी पहचान बढ़ाने वाले चन्द्रशेखर जी का आजीवन युवकों के संघर्षों में शिरकत करते रहना, समय के थपेड़ों से टकराने में भी कभी पीछे नहीं रहना, हर राष्ट्रीय घटनाओं में अपने अलग दार्शनिक बोध का एहसास करना और ऐसी घटनाओं पर दीर्घकालिक राजनीति के दिशाबोधक की तरह अपना विचार रखना आदि अनेक ऐसे पक्ष हैं, जिनका मूल्यांकन चन्द्रशेखर जी के व्यक्तित्व को रेखांकित करने के लिये आवश्यक है। मैंने अपने राजनीतिक जीवन के शैशवकाल से चन्द्रशेखर जी को जिस रूप में देखा और समझा है, उसमें मुझे चन्द्रशेखर जी मूल्यों के लिये अग्रबलिदानी के रूप में दिखाई पड़ते हैं। मूल्यों के लिये अग्रबलिदान का गौरव भी अग्रपूजा का ही गौरव है, इसलिये उनके अग्रबलिदान को देश की युवा पीढ़ी, युवाओं के लिये बलिदान के गौरव के रूप में स्वीकार करती है। मानवता के महासमुद्र में चन्द्रशेखर जी के भीतर न केवल राष्ट्रीय फलक पर विभिन्न संस्कृतियों, विभिन्न धर्मों एवं विभिन्न जातियों के लिये सत्कार और सम्मान था, अपितु दुनियाँ की सम्पूर्ण मानवता के लिये भी उनके भीतर मानवता का सागर हिचकोले लेता दिखाई पड़ता है। वह केवल इसी के पोषक नहीं थे कि मानवता के महासागर में गंगा, यमुना, गोदावरी का ही पानी गिरे बल्कि नील, बोल्गा, न्हाईन, टेम्स, मिसिसिपी अॅमेझीन आदि का भी पानी शामिल हो, इसीलिये मानवीय संवेदना से जुड़े युगांतरकारी परिवर्तन सूचित करने वाले राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों में चन्द्रशेखरजी अपने दलीय बहुमत के दबाव को भी अस्वीकार कर कूद पड़ते थे। 1974 में गुजरात आन्दोलन के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में परिवर्तन की आहट देने वाले छात्र-आन्दोलन के समर्थन में सत्ताधारी दल में रहते हुए भी कूद पड़े और सत्ता की दीर्घा से सीधे जेल का वरण करने में एक क्षण के लिये भी नहीं हिचके। असीम यातनाओं के बाद भी न केवल उस क्रांति के समर्थक रहे बल्कि अपने विचारों, संघर्षों और मूल्यों के प्रति समर्पण के कारण सम्पूर्ण क्रांति का ध्वजवाहक बनकर उभरे और 1977 में जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। श्रद्धेय चन्द्रशेखर जी में जहाँ युवा जोश, वैचारिक होश, परिवर्तन की असीम आकांक्षा के असंख्य दृष्टांत दिखाई पड़ते हैं, वहीं उनके भीतर पवित्र राष्ट्रनीति और पवित्र लोकनीति पर चलने का समर्पण भी दिखाई पड़ता है। देश के किसी कोने में चल रहे छात्र-युवा आन्दोलनों में न केवल शामिल हो जाते थे बल्कि उस आन्दोलन के मूल्यों से भटकते, दिशाहीन होते छात्रों-नौजवानों को वैचारिक होश का एहसास कराने के लिये कभी-कभी स्वभाव की कठोरता की झलक दिखाकर भी रास्ते से भटकने नहीं देते थे। काशी हिन्दू विश्विद्यालय के छात्र-आन्दोलन में जब मैं और मेरे साथ के अनेक छात्र और छात्र-नेता पुलिस जुल्म के शिकार हुए थे, तब चन्द्रशेखर जी भारत के पहले राष्ट्रीय नेता थे जो उस आन्दोलन को सार्थक दिशा देने के लिये छात्र-आन्दोलन के मंच पर आ गये। तत्कालीन कुलपति द्वारा विश्वविद्यालय परिसर में सभा करने की इज़ाजत से इंकार करने पर विश्वविद्यालय के सिंह द्वार पर न केवल सभा कर आन्दोलन का समर्थन किया बल्कि विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन के जुल्म के खिलाफ प्रतिकार की कठोर भाषा का इस्तेमाल करने में भी नहीं हिचके। छात्रों, नौजवानों में उन्हें अटूट विश्वास था। उनके भीतर जीवन का वास्तविक मूल्य उन्हें दिखाई पड़ता था। यहीं नहीं दलीय राजनीति भी जब कुत्सित आवरण के सहारे सामाजिक संघर्षों की पृष्ठ-भूमि तैयार करने में जुटने लगती थी, तब भी चन्द्रशेखर जी उन पर प्रहार करने से नहीं चूकते थे। उनकी अवधाराण थी कि जीवन के मूल्य अवांतर प्रेरणाओं से पैदा नहीं होते वरन् चन्द्रशेखर: दिशाबोधक राजनीति के दस्तावेज ध् 149 150 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर अवांतर कारणों से जीवन के मूल्य पर विकार आ जाता है। जीवन के प्रधान मूल्य जीवन की प्रवृत्ति का हिस्सा हैं। राष्ट्रीय घटनाक्रमों को देखने और उन पर प्रतिक्रिया देने में भी सस्ती लोकप्रियता की परवाह नहीं करते थे। स्वर्ण मन्दिर आपरेशन से लेकर बाबरी मस्जिद अथवा राम मन्दिर के निर्माण की लड़ाई में भी अपने अलग दृष्टिकोण को उजागर कर तत्कालीन राजनीति और शासन पर उंगली उठाने से पीछे नहीं हटे क्योंकि उन आन्दोलनों में अथवा प्रायोजित घटनाओं में जीवन का मूल्य नहीं था बल्कि जीवन मूल्यों पर कुत्सित आवरण चढ़ाने का प्रयास था। श्रद्धेय चन्द्रशेखर जी की यह अवधारणा भी उनके जीवन मूल्यों को रेखांकित करने के दृष्टिकोण की साक्षी है कि कोई व्यक्ति अपने आप में पूर्ण विराम नहीं होता, सभी अर्द्ध विराम होते हैं। आप हैं तब भी दुनियाँ है और आप नहीं रहेंगे तब भी दुनियाँ रहेगी। यह ठीक है कि हर वीर पुरुष संसार का इतिहास बनाता है, यह सत्य है, लेकिन आंशिक सत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि संसार के इतिहास का निर्माण वीर पुरुषों की सतत् शृंखला का इतिहास है, इसीलिये चन्द्रशेखर जी व्यक्ति विरोधी नहीं थे, यही कारण था कि किसी मसले पर जिसका विरोध करते थे, उसी के साथ किसी अन्य मसले पर पक्षधर भी दिखाई पड़ते थे। अगर प्रतिकार करते भी थे तो बुराई, पाप अथवा दोष का करते थे और शायद यही जीवन मूल्यों के लिये प्रतिकार का मौलिक सिद्धांत भी है। एक अहिंसात्मक प्रतिकार, प्रतिरोध, सत्याग्रह का उत्तर ही यह है कि दुनियाँ में हमारा प्रतिपक्ष कोई नहीं है। सभी हमारे स्वजन हैं। हम प्रतिकार बुराई का करते हैं, पाप का करते हैं, दोष का करते हैं, व्यक्ति का नहीं। प्रखर गाँधीवादी, आचार्य नरेन्द्रदेव के आँगन के भूषण, आजाद भारत के सबसे महान पदयात्री श्रद्धेय चन्द्रशेखर जी अपने कृतित्व से हर क्षण यह दर्शाते रहे कि उनका सामाजिक जीवन निरुपाधिक सम्बन्धों का पोषक है। उनकी जीवन यात्रा के विभिन्न दौर यह दर्शाने के लिये काफी हैं कि राजनीति, धर्म, अर्थ इत्यादि के कारण जो सम्बन्ध बनते हैं, वे औपचारिक सम्बन्ध हैं, सामाजिकता के लिये निरुपाधिक सम्बन्धों की आवश्यकता है। हर तरह के लोगों से सम्बन्ध रखने वाले चन्द्रशेखर जी समय-समय पर अपने निरुपाधिक सम्बन्धों को अपनी गतिविधि अथवा सामयिक प्रतिक्रिया के माध्यम से अभिव्यक्त भी कर दिया करते थे। स्वर्ण मन्दिर आपरेशन के समय देश के दूसरे नेताओं से अलग आपरेशन को दुर्भाग्यपूर्ण की संज्ञा देने के बाद चन्द्रशेखर जी को काफी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा था, उस समय भी वह अपने विचारों पर कायम रहे। इसके दो कारण मुझे नजर आते हैं- एक तो उस समय उनके विचारों का विरोध करने वाले सांस्कृतिक बिलगाव के आइने में अपनी राजनीतिक तस्वीर देख रहे थे। संभवतः उन्हें नहीं मालूम था कि मनुष्य के किसी एकाध गुण का विकास तो एकांत में संभव है, लेकिन उसके चारित्रय का विकास कोलाहल में ही संभव है। हमारी संस्कृति अलग है, इसलिये हम औरों के साथ नहीं रह सकते, ऐसा मानना संस्कृति का द्योतक नहीं संस्कृति के अभाव का द्योतक है। सज्जनता और दुर्जनता की कोई जाति नहीं है, कोई धर्म नहीं है और दूसरा कारण चन्द्रशेखर जी के जीवन-दर्शन से जुड़ा है। चन्द्रशेखर जी के जीवन के मूलतः दो पक्ष अद्वितीय रूप में गहरे तल से जुड़े थे। एक मानवता, दूसरी पौरुषता। और अगर ठीक से मूल्यांकित किया जाय तो संभवतः इन्हीं दो गुणों से अहिंसा बनी है। अहिंसा विवशता का अस्त्र नहीं है बल्कि शस्त्र निरपेक्षता वीरता का आयुध है। स्वर्ण मन्दिर की तत्कालीन हिंसक गतिविधियों के लिये शस्त्र निरपेक्षता के सिद्धांत पर कोई पहल नहीं की गई और चन्द्रशेखर जी के बयान पर अनर्गल प्रतिक्रिया व्यक्त की गई जबकि बाद के दिनों में देश को दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा। चन्द्रशेखर जी के दो गुणों की मिसाल प्रधानमंत्री बनने के समय के परिवेश से भी ली जा सकती है। जब चन्द्रशेखर जी प्रधानमंत्री बने, उस समय देश के अनेक शहरों में कफ्र्यू था, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद बहुत कम समय में चन्द्रशेखर जी ने देश के विषाक्त वातावरण की धारा बदल दी। परिवेश सामान्य हो गया। यह भी उनके मानवता और पौरुषता के कारण ही संभव हो सका था। चन्द्रशेखर जी अपनी पूरी जीवन-यात्रा में कभी भी वैसे संघर्षों के पक्षधर नहीं हुए जो सामाजिक विभेद अथवा विद्वेष की बुनियाद से ताल्लुक रखते थे। चन्द्रशेखर जी न केवल एक राजनेता थे बल्कि एक लेखक, पत्रकार और स्वस्थ विचारक थे। ‘यंग इंडियन’ के संपादक रहे चन्द्रशेखर जी सामयिक सवालों पर जहाँ अपनी लेखनी को धार देते नजर आते हैं, वहीं दूसरी तरफ मुल्क के नौजवानों में हुँकार भरते नजर आते हैं। चन्द्रशेखर जी को खास सीमा में केन्द्रित करना बेमानी होगी। ऐसी मान्यता है कि मनुष्य के तीन संस्करण हुए। जो पहला संस्करण आया, उसने कहा कि- श्प् ंउ ूींज प् मिमसश् मैं जो कुछ सोचता हूँ, वही मैं हूँ। जो दूसरा संस्करण आया, उसने कहा कि- श्प् ंउ ूींज प् कवश् यानी मेरी कृति से मुझे जानो। मैं जो सोचता हूँ, वह नहीं हूँ। मेरा जो चन्द्रशेखर: दिशाबोधक राजनीति के दस्तावेज ध् 151 152 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर आचरण है, वह मैं हूँ। और जो तीसरा संस्करण आया उसने कहा कि- श्प् ंउ ूींज प् चवेेमेश् यानी मेरे पास जितना संग्रह है वह मैं हूँ। मनुष्य का पहला संस्करण दार्शनिक संस्करण था, दूसरा नैतिक और तीसरा पूँजीवादी संस्करण था। मेरी दृष्टि में चन्द्रशेखर जी में पहले और दूसरे संस्करण का समन्वय था। कुल मिलाकर अपने संपूर्ण व्यक्तित्व में चन्द्रशेखर जी दिशाबोधक राजनीति के अपने-आप में एक मानक दस्तावेज थे। (लेखक उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन मंत्री हैं)

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