चन्द्रशेखर: ‘एकला चलो रे’ के पथिक

मिथिलेश कुमार सिंह  


चन्द्रशेखर का जीवन विभिन्नता में बीता था। वे एक अत्यंत पिछड़े किन्तु संघर्षशील इलाके के गरीब घर में जन्मे थे, किन्तु अपने संघर्ष, अध्यवसाय, लगन और ईमानदारी के बल पर भारत के सर्वोच्च स्थान पर पहुँचे थे। उन्होंने अपना राजनैतिक जीवन बलिया में एक छात्रनेता के रूप में शुरू किया। इलाहाबाद से राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया। वहीं उनकी मुलाकात समाजवादी दल के अध्यक्ष आचार्य नरेन्द्र देव से हुई और आचार्य जी ने उन्हें समाजवाद के लिए कार्य करने को प्रेरित किया, जिसे सहर्ष स्वीकार कर चन्द्रशेखर ने बलिया जिला समाजवादी कार्यालय का प्रभार ले लिया। 1954 तक वे बलिया में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के जिला मंत्री रहे। 1955 में भारणकोर के मसले पर पार्टी दो फाड़ हो गयी और उत्तर प्रदेश के लगभग सारे बड़े नेता लोहिया जी के साथ पार्टी से अलग हो गये। चन्द्रशेखर लखनऊ बुला लिये गये और उन्हें प्रसोपा के संयुक्त सचिव की जिम्मेदारी दी गयी। सन 1957 में चन्द्रशेखर प्रसोपा के महामंत्री चुन लिये गये। इसके बाद चन्द्रशेखर ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। सन् 1962 में वे उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सदस्य चुने गये। उन दिनों भारतीय राजनीति पर वामपंथियों खास कर समाजवादियों का काफी प्रभाव था। गाँव-गाँव में उसके कार्यकत्र्ता कार्यरत थे। वे गाँव का अभिन्न अंग बन कर काम करते थे। उस समय पंडित नेहरू जी एक चतुर राजनीतिज्ञ थे। वे हर स्थिति में समाजवादी दल को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने सन् 1953-54 में एक प्रयास किया था, दल के अस्तित्व के विलोपन का। जयप्रकाश को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर समाजवादियों की ध्ाार को कुंठित करना उनका उद्देश्य था। किन्तु समाजवादियों ने उनके समक्ष 14 सूत्रीय कार्यक्रम रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। बात आई-गयी हो गयी। किन्तु पंडित जी भीतर ही भीतर जाल बुनते रहे। सन् 1963 के भुवनेश्वर के अध्ािवेशन में उन्होंने अपने दल का लक्ष्य समाजवादी समाज का निर्माण निधर््ाारित किया, और काफी जोर-शोर से यह भ्रम पैदा किया कि काँग्रेस ने समाजवाद के सिद्धांतों को अपना लिया है। अतः अलग समाजवादी दल की क्या आवश्यकता? उन्होंने समाजवादियों को काँग्रेस में आने की अपील की और इसी क्रम में समाजवादी दल के बड़े नेता अशोक मेहता को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया। श्री मेहता ने बिना पार्टी से अनुमति प्राप्त किये उपाध्यक्ष का पद स्वीकार भी कर लिया और उसी मुद्दे पर पार्टी टूट गयी। यद्यपि अधिकांश बड़े नेता प्रजा सोशलिस्ट पार्टी छोड़ कर काँग्रस में नहीं गये, किन्तु अशोक मेहता के साथ चन्द्रशेखर ने काँग्रेस पार्टी की सदस्यता स्वीकार कर ली। किन्तु जो एक बार समाजवाद के हमाम में सुरुचिपूर्वक आत्मसात कर लेता है उसके जीवन में या व्यवहार में समाजवाद की गंध्ा विद्यमान रहती है। चन्द्रशेखर काँग्रेस में जाकर भी समाजवादी ही बने रहे। अपने मूल्यों से किसी लाभ के लिए उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू का दबदबा इतना था कि संसद के बाहर और भीतर कुछ नेताओं को जो उनके समकक्ष थे, और महिमा और मर्यादा में उनसे कम नहीं थे, कोई भी काँग्रेसी सांसद नेहरू के खिलाफ एक शब्द भी बोलने की हिम्मत नहीं करता था। किन्तु नवयुवक चन्द्रशेखर संसद में पंडित नेहरू के विरोध्ा में बोलने में कोई संकोच नहीं करते थे। पंडित जी और लाल बहादुर शास्त्री के देहावसान के बाद जब इन्दिरा जी प्रध्ाानमंत्री बनी तो चन्द्रशेखर और उनके युवातुर्क सहयोगियों को उनसे बड़ी आशाएँ थीं, किन्तु थोड़े ही दिनों के बाद उन्हें ऐसा एहसास हुआ कि उनकी अपेक्षाएँ गलत थीं। चन्द्रशेखर सत्ता के केन्द्रीकरण के हमेशा खिलाफ थे। उन दिनों काँग्रेस के पुराने नेता मोरारजी देसाई के नेतृत्व में इकट्ठे होकर काँग्रेस पर अपना वर्चस्व कायम करना चाहते थे। इसलिए चन्द्रशेखर को इन्दिरा जी का समर्थन देना अपरिहार्य बन गया था। 1969 में काँग्रेस के विभाजन के बाद वे काँग्रेस कार्यसमिति के सदस्य चुने गये, जो इन्दिरा जी को नापसंद था क्योंकि अपने पिता के ही समान समाजवाद का नारा उनके लिए वस्तुतः मुखौटा भर ही था। 1971 के चुनाव के बाद चन्द्रशेखर का इन्दिरा जी से मोह भंग होना प्रारंभ हो गया। 1972 में जब इन्दिरा जी ने टाटा जैसे उद्योगपतियों को सार्वजनिक उद्यमों में स्थान देना प्रारंभ किया तो चन्द्रशेखर चुप नहीं रहे, मुखर विरोध्ा किया। किन्तु बंगलादेश की सफलता के बाद इन्दिरा जी स्वयं को इतना लोकप्रिय और प्रभावशाली समझने लगीं कि उनके भीतर छिपा अध्ािनायकवादी तत्व प्रकट होने लगा। उन्होंने अपने सारे वायदे भुला दिये। इसी समय साम्यवादियों के एक धड़े ने उनको घेर लिया, और परिणामतः चन्द्रशेखर: ‘एकला चलो रे’ के पथिक ध् 157 158 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर जी को यह अहसास हो गया कि समाजवाद का जो सपना उन जैसे लोगों की आंखों में पल रहा था, उसका इन्दिरा जी के लिए कोई महत्व नहीं रखता। इन्दिरा जी चन्द्रशेखर की मुखर विरोधी बन गयीं। यह बात शिमला काँग्रेस में हुए केन्द्रीय चुनाव समिति में स्पष्ट हो गयी, जब पार्टी आलाकमान ने उन्हें कार्यसमिति का सदस्य नहीं बनाना चाहा। चन्द्रशेखर ने इन्दिरा जी की इच्छा के विरुद्ध कार्यसमिति का चुनाव लड़ा, और भारी बहुमत से विजयी हुए। और तब से चन्द्रशेखर की गिनती घोषित असंतुष्टों के बीच होने लगी। सन् 1974 में जे.पी. की अगुआई में बिहार आन्दोलन प्रारंभ हुआ और जेपी. का पुराना क्रांतिकारी रूप प्रकट हुआ। इस बार उनके साथ न केवल पुराने समाजवादी साथी थे, अपितु सर्वोदय के दो तिहाई कार्यकर्ता और नेता भी थे। विनोबा भावे जी ने लाख चाहा कि जे.पी. 1974 आन्दोलन से विमुख रहें- यहाँ तक कि उन्होंने आपात्काल को अनुशासन पर्व तक कह डाला- किन्तु जे.पीउनसे सहमत नहीं हुए। चन्द्रशेखर भीतर ही भीतर जे.पी. के साथ थे। जे.पीउनके आदर्श नेता अभी भी थे। चन्द्रशेखर ने चाहा कि इन्दिरा जी जे.पी. से समझौता कर लें, उनकी मांगें मान लें, किन्तु इन्दिरा जी और उनके लग्गू-भग्गू यह क्यों मानने लगे। उन्होंने जय प्रकाश को फासिस्ट घोषित कर दिया और ऐसा भी वक्त आया जब जे.पी. के साथ चन्द्रशेखर भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिये गये। 26 जून 1975 से 11 जनवरी 1977 तक चन्द्रशेखर ने जेल में बिताए, बिल्कुल अकेले, किसी अन्य कैदी से मिलने-जुलने की मनाही। मनोबल तोड़ने की सारी कोशिश, किन्तु मनोबल टूटने के बजाय और मजबूत होता गया- लोकतंत्र की रक्षा के लिए समाजवादी समाज के निर्माण के लिए दृढ़ता बढ़ती गयी। अन्ततः जे.पी. के निर्देश पर काँग्रेस विरोधी सभी लोकतांत्रिक दल इकट्ठे हुए, और जनता पार्टी का निर्माण हुआ। चन्द्रशेखर उसके अध्यक्ष बने। विभिन्न आचार-विचार और दृष्टि वाले तथा सत्ता की आकांक्षाओं में आकंठ डूबे बूढ़े राजनीतिज्ञ और आकांक्षा पर निगाह न रख पाने के कारण अन्ततः बिखर गये। जनता पार्टी टूट गयी। फिर बैताल डाल पर। जनता पार्टी का केवल पिंजरा मात्र रह गया। जिसके संरक्षक चन्द्रशेखर बने रहे। एक नये संघर्ष की शुरुआत हुई। 1989 में एक प्रयोग फिर हुआ और परिणामस्वरूप विश्वनाथ प्रताप सिंह अकस्मात इस देश के प्रधानमंत्री बन गये। छद्मपूर्वक जिस तरह उनका चुनाव हुआ वह अलोकतांत्रिक था। चन्द्रशेखर को यह तरीका नापसंद था। उन्होंने अपनी अप्रसन्ता छिपाई भी नहीं। देश की भावाकुल जनता विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रवाह में बह रही थी। ‘‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है’’ का नारा लगा रही थी। उसे चन्द्रशेखर का व्यवहार उस समय अच्छा नहीं लगा। किन्तु परिस्थितियों ने बाद में यह प्रमाणित कर दिया कि चन्द्रशेखर ही ठीक थे। अन्ततः चन्द्रशेखर भी चरण सिंह के समान भारत के प्रधानमंत्री के पद पर आरूढ़ हुए, किन्तु दोनों में एक फर्क था। चरण सिंह ने संसद का सामना नहीं किया। चन्द्रशेखर ने डट कर किया, निर्भय भाव से किया और जिनके सहयोग से प्रधानमंत्री बने थे, उनका दबाव भी स्वीकार नहीं किया, इस्तीफा देना मंजूर किया। चन्द्रशेखर एक निडर गैर-समझौतावादी लोकतंत्र में गंभीरता से विश्वास करने वाले समाजवादी आस्थाओं वाले व्यक्ति थे। वे ही एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने वैश्वीकरण मुक्त व्यापार विश्व व्यापार संगठन आदि के बढ़ते शिकंजे के बीच भारत की भावी आर्थिक गुलामी के अंदेशों को ठीक से समझाया था और इसके भावी दुष्परिणाम की चेतावनी दी थी। देश के कोने-कोने में घूम कर उन्होंने इसके खिलाफ अलख जगाने का प्रयास किया। लोग उनकी बात की गंभीरता को समझने लगे। स्पष्ट एवं उचित बोलने में उन्होंने कभी कोई संकोच नहीं किया। चाहे कश्मीर का मामला हो या पूर्वोत्तर राज्यों का या बाबरी मस्जिद का या हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का। वे किसी को अच्छा लगे या बुरा अपना विचार ठेठ लहजे में प्रगट करने में कभी नहीं हिचके। हवा के प्रवाह में कभी नहीं बहे। धारा के विरुद्ध चलने में कोई हिचक नहीं थी उन्हें। लक्ष्य ठीक चाहिए, धारा की क्या परवाह। चन्द्रशेखर एक अक्खड़ व्यक्ति थे। नीतियों से किसी प्रकार समझौता न करने वाले स्पष्टवादी, ठेठ हिन्दुस्तानी। चन्द्रशेखर अपने पंथ पर निडर भाव से एकला चलने के आग्रही थे। कवि गुरू रवीन्द्र नाथ ठाकुर की पंक्तियों के आग्रही........... एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे जोदि तोमार डाक सुने केऊ ना आशे तोबू जोदि तोमार डाक सुने केऊ ना आशे तोबू जोदि तोमार डाक सुने केऊ ना आशे तोबू एकला चलो रे। चन्द्रशेखर: ‘एकला चलो रे’ के पथिक ध् 159 160 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर ऐसे व्यक्ति, आज की राजनीति में अब नहीं है- शायद कभी हों, कौन कह सकता है? उन्हें शतशत प्रणाम। (लेखक जे.पी. सेनानी सम्मान योजना सलाहकार परिषद्, बिहार के अध्यक्ष

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