समाजवादी नेता, देश के पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के बारे में पूरी किताब लिखी जा सकती है, वह वाकई हमारे पूर्वांचल की माटी में पैदा हुए सिद्धांतनिष्ठ ‘राष्ट्रपुरुष’ और उससे भी अध्ािक एक राजनेता (स्टेट्समैन) थे। उनके साथ हमारा जुड़ाव कई रूप में कई स्तरों पर था, एक पड़ोसी, पिता के मित्र, युवजन, राजनीतिक कार्यकर्ता और पत्रकार के रूप में भी हम उनके साथ जुड़े रहे, वह हमारे पड़ोसी थे, बलिया जिले में उनका पैतृक गाँव इब्राहिम पट्टी, मऊ (तत्कालीन आजमढ़) जिले में स्थित हमारे गाँव कठघराशंकर, मधुबन से तकरीबन (चार-पाँच किमी दूर) है, उनके गाँव की चारदीवारी से सटे सुल्तानीपुर-उसुरी गाँव हमारे नत्थपुर (अब मधुबन) विधानसभा क्षेत्र के अंदर आते हैं। हमारे पिता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाजवादी नेता एवं पूर्व विध्ाायक विष्णुदेव उम्र में उनके छह-सात साल बड़े होने के बावजूद चन्द्रशेखर जी के मित्र और सहयोगी थे, समाजवादी आन्दोलन में दोनों लम्बे समय तक साथ थे, हालांकि सोशलिस्ट पार्टी के विभाजन के बाद पिता जी डाॅ. लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी में थे और चन्द्रशेखर जी प्रजा समाजवादी पार्टी के बड़े नेता थे। 1962 में वह प्रजा समाजवादी पार्टी के टिकट पर ही पहली बार राज्यसभा का सदस्य बने थे। हालाँकि दो साल बाद ही वह उस समय के बड़े प्रजा समाजवादी नेता अशोक मेहता और बाबू गेंदा सिंह के साथ काँग्रेस में चले गए और 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीतने तक लगातार काँग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने रहे। चन्द्रशेखर जी के काँग्रेस में चले जाने के बाद तो उनकी और पिता जी की राजनीतिक राहें कतई जुदा हो गई थीं, लेकिन उनके आपसी संबंध हमेशा करीबी बने रहे। यदा-कदा हमारे घर उनका आना-जाना रहता था। 1977 में आपात्काल के गर्भ से निकली जनता पार्टी के गठन के बाद एक बार फिर वे लोग एक साथ हुए लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब 1977 के विधानसभा चुनाव में पिताजी का टिकट काट कर एक पूर्व काँग्रेसी को टिकट देने के उनके फैसले के विरुद्ध हम बागी भी हो गए थे। चन्द्रशेखर जी को हम बचपन से ही एक क्रांतिकारी समाजवादी नेता के रूप में जानते थे। युवा तुर्क के रूप में पहचान बनाने वाली उनकी दाढ़ी हमें बचपन से ही बहुत प्रभावित और आकर्षित करती थी। जब हम अपने शहीद इंटरकालेज, मधुबन में छात्र राजनीति में सक्रिय हो रहे थे, चन्द्रशेखर जी राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा नाम था। हम उन पर गर्व करते थे कि हमारे इलाके के हैं, कारण चाहे पारिवारिक पृष्ठभूमि रही हो अथवा समाजवादी नेता और चिन्तक डाॅ. राममनोहर लोहिया के साहित्य और विचारों को पढ़ कर समाजवादी राजनीति के प्रति बढ़ता आकर्षण हमने समाजवादी युवजन सभा के जरिए छात्र-युवा राजनीति में प्रवेश किया था। तब हालांकि चन्द्रशेखर जी काँग्रेस में थे लेकिन उस समय भी संसद से लेकर सड़क तक उनके बेबाक बयान और खासतौर से उनका जुझारू व्यक्तित्व हमें बहुत प्रभावित और प्रेरित करता था, जिस तरह उन्होंने सत्तारूढ़ दल में रहते हुए राज्यसभा सदस्य के रूप में उस समय के सत्ता पोषित और संरक्षित सबसे बड़े औद्योगिक घराने से टक्कर ली, उसका पर्दाफाश किया, वह अपने आप में अद्वितीय था। काँग्रेस में उन्हें इंडिकेट यानी तत्कालीन और सर्व शक्तिमान कही जाने वाली प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के बेहद करीबी माना जाता था। इंडिकेट और सिंडिकेट के रूप में काँग्रेस के विभाजन के बाद वह इन्दिरा काँग्रेस के बड़े और मुखर नेताओं में गिने जाते थे। उस समय काँग्रेस में दो गुट बहुत प्रखर थे। एक पूर्व समाजवादियों का गुट था जिसमें चन्द्रशेखर जी, रामधन, मोहन धारिया, कृष्णकांत और शेर सिंह जैसे लोग थे तो दूसरी तरफ मोहन कुमार मंगलम, चन्द्रजीत यादव, के.आर. गणेश जैसे पूर्व कम्युनिस्ट नेताओं का गुट था। इसी गुट में उस समय देश में सीमित तानाशाही की वकालत करने वाले शशिभूषण बाजपेयी भी थे। बाद के दिनों में इन्दिरा गांधी और उनकी एकाधिकारवादी राजनीति के प्रति चन्द्रशेखर एवं काँग्रेस में उनके साथियों का अंदरूनी दुराव बढ़ने लगा था। उस समय संभवतः इन्दिरा गांधी की इच्छा के विरुद्ध चुनाव लड़ कर काँग्रेस कार्यसमिति में आने वाले चन्द्रशेखर पहले ही नेता थे। सत्तर के शुरुआती दशक में गुजरात, बिहार के छात्र-युवा सही मायने में राजनेता थे चन्द्रशेखर ध् 169 170 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर आन्दोलनों के क्रम में जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति आन्दोलन ने जोर पकड़ना शुरू किया और इन्दिरा गांधी से लेकर उस समय काँग्रेस में सक्रिय कम्युनिस्ट नेता जे.पी. को सीआइए का एजेंट तक कहने में ‘राष्ट्रीय गर्व’ महसूस कर रहे थे। चन्द्रशेखर और उनके साथियों की सोच इससे अलग थी। उन्होंने इन्दिरा गांधी को सलाह दी थी कि उन्हें जे.पी. से टकराव मोल लेने और उनके बारे में अपशब्द कहने के बजाय उनसे बात करनी चाहिए लेकिन सत्ता के अहंकार में चूर इन्दिरा गांधी ने उनकी एक न सुनी। एक बार तो हमने किसी सभा में चन्द्रशेखर को गुस्से में यह कहते भी सुना था कि ‘‘जेपी की राष्ट्रभक्ति पर सवाल उठाने वालों को शायद नहीं पता कि जिस समय इन्दिरा जी डोली चढ़ रही थीं, जयप्रकाश देश की आजादी के लिये अंग्रेजी राज से जूझते हुए जेल काट रहे थे।’’ यह देश का और संभवतः इन्दिरा जी का भी दुर्भाग्य ही था कि उन्होंने चन्द्रशेखर की सुनने के बजाय जेपी, तत्कालीन विपक्ष और उनके नेतृत्व में चल रहे जनान्दोलन को दबाने की गरज से देश को आपात्काल के हवाले कर दिया। जे.पी. और विपक्ष के अन्य शीर्ष नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ ही चन्द्रशेखर जैसे काँग्रेस में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे पूर्व समाजवादी नेताओं को भी मीसा और डीआईआर कानूनों के तहत जेलों में डाल दिया गया। चन्द्रशेखर जी के प्रति हमारे मन में आदर और सम्मान कुछ और बढ़ गया। उस समय हम इलाहाबाद में ईविंग क्रिश्चियन काॅलेज (इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध) में कला स्नातक के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उस समय मधुलिमिए और जार्ज फर्नांडिस हमारे राजनीतिक आदर्श थे। आपात्काल लगने के बाद हम अपने गाँव गए थे। पिता जी भूमिगत हो गए थे। संभवतः 5 जुलाई, 1975 को मधुबन में जार्ज फर्नांडिस के साप्ताहिक पत्र ‘प्रतिपक्ष’ के साथ मुझे और कुछ देर बाद ही इलाके के प्रमुख समाजवादी नेता राम अधीन सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। थाने में पहुँचने पर पता चला कि हमारे दो-तीन और साथी-रामबदन यादव और इंद्रमणि मौर्य भी गिरफ्तार कर लिए गए थे। 15 अगस्त को मधुबन में लगने वाले शहीद मेले में धरना-प्रदर्शन के साथ पिताजी ने भी अपने तकरीबन दो-तीन दर्जन कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तारी दी थी। कुछ महीने जेल काटने के बाद हम परीक्षा देने के नाम पर पेराल पर और बाद में जमानत पर छूट कर बाहर आए तो फिर जेल लौटकर नहीं गए। भूमिगत होकर इलाहाबाद, वाराणसी, दिल्ली आदि शहरों में घूमते, आपात्काल के विरुद्ध समाचार, साहित्य प्रकाशित करते-बांटते सक्रिय रहे। इलाहाबाद के घर पर पुलिस की दबिश पड़ी लेकिन हम बच कर निकल भागे, बदले में दोनों बड़े भाइयों को रात थाने में गुजारनी पड़ी। आपात्काल के अन्तिम दिनों में हुए लोकसभा चुनावों में विपक्ष के तमाम नेताओं-उम्मीदवारों के साथ हमारे चन्द्रशेखर जी भी विजेता के रूप में उभर कर आए। उनकी जेल डायरी बड़ी प्रेरक रही। चन्द्रशेखर जी के बारे में एक बात बड़ी मशहूर रही कि वह दोस्ती और दुश्मनी एक समान निभाते थे। अगर आप उनके मित्र हैं तो वह आपके लिए किसी भी स्तर तक जाकर कुछ भी करने-करवाने के लिए तैयार रहते और अगर आपने उनसे विरोध मोल लिया तो वह आपको माफ करने वाले भी नहीं थे। उनकी दोस्ती-दुश्मनी का एक प्रसंग हमारे साथ भी जुड़ा है। इस एक प्रसंग ने महान पदयात्री कहलाने से पहले चन्द्रशेखर जी की पहचान साइकिल यात्री के रूप में बनाई थी। आपात्काल समाप्त और लोकसभा का चुनाव होने वाला था। तिहाड़ जेल में बंद जार्ज फर्नांडिस ने संदेश भिजवाया कि पिताजी को घोसी से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहिए। लेकिन राजनीतिक कार्यक्षेत्र एक-दो विधानसभा क्षेत्रों तक ही सीमित रहने और पैसों के अभाव को कारण बताते हुए पिताजी ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। हालांकि उस चुनाव में चली जनता लहर में जनता पार्टी के टिकट पर जो भी चुनाव लड़ा, भारी मतों से जीत गया था। हमारे यहाँ घोसी से भी स्वतंत्रता सेनानी बाबू शिवराम राय भारी मतों से चुनाव जीत गए थे, हालांकि हमारे यहाँ उनकी राजनीतिक सक्रियता शून्य के बराबर ही थी। कुछ ही महीनों बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव भी घोषित हो गए। पिताजी उस समय प्रदेश जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड के सदस्य थे। यानी टिकट बांटने वाले लोगों में से वह भी एक थे। उन्हें और हम सबको भी पक्का यकीन था कि नत्थूपुर से उन्हें ही उम्मीदवार बनाया जाएगा। जहाँ तक मुझे याद आता है 21 मई, 1977 को हम बलिया जिले में हुसैनपुर गाँव से अपनी सही मायने में राजनेता थे चन्द्रशेखर ध् 171 172 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर बारात लेकर वापस लौट रहे थे। संयोग अथवा दुर्योग से उसी दिन उत्तर प्रदेश के लिए जनता पार्टी के उम्मीदवारों की सूची जारी हुई थी। बिल्थरा रोड में मिले ‘आज’ अखबार में सूची देखी तो उसमें पिता जी का नाम नहीं था। उनकी जगह कुछ ही दिनों पहले काँग्रेस छोड़ कर जनता पार्टी में शामिल हुए हमारे परंपरागत विरोधी विधायक जगदीश मिश्र का नाम देख हम और हमसे अधिक इलाके के लोग आग बबूला हो गए। हमारी बारात के गाँव पहुँचने तक मधुबन में हमारे हजारों समर्थकों का जमावड़ा हो गया था। सभी लोगों ने एक स्वर से कहना शुरू किया कि नेताजी (विष्णुदेव) के साथ बड़ी ज्यादती हुई है। इसका जवाब देना होगा अन्यथा वे लोग पिता जी का साथ छोड़ काँग्रेस के साथ चले जाएंगे। फैसला गलत था कि सही, उस समय सोचने का वक्त नहीं था। हम लोग भी जज्बाती हो गए और पिता जी जनता पार्टी से बगावत कर चुनाव लड़ गए। चन्द्रशेखर जी ने इसका बुरा माना। उन्होंने मध्ाु (लिमए) जी के जरिए मुझे कहलवा भेजा कि विष्णुदेव जी को रिटायर हो जाना यानी चुनाव मैदान से बाहर हो जाना चाहिए। यह भी कि जगदीश मिश्र को सिटिंग गेटिंग के फार्मूले के तहत टिकट मिला है। विष्णुदेव जी को विध्ाान परिषद में ले लिया जाएगा। लेकिन उस समय हम लोग चुनाव जीतने की स्थिति और समर्थकों के दबाव में शायद कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे। पिता जी चुनाव मैदान में डटे रहे। इसका चन्द्रशेखर जी ने बहुत बुरा माना। चुनाव के अन्तिम दिनों में चुनाव प्रचार की समय सीमा समाप्त होने के दिन वह अपने गाँव इब्राहिम पट्टी आए। उन्हें मधुबन में आकर सभा करनी थी। इब्राहिम पट्टी से मधुबन की दूरी वैसे तो चार-पाँच किमी की ही है लेकिन उस समय रास्ते में एक नाले पर पुल नहीं होने के कारण कार-गाड़ी से पहुँचने में काफी समय लग सकता था। चन्द्रशेखर जी ने साइकिल की सवारी की और मध्ाुबन पहुँच गए। जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनकी उस साइकिल यात्रा की तस्वीर उस समय दुनिया भर के अखबारों में बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित हुई थीं। लेकिन मधुबन पहुँचने तक चुनाव प्रचार का समय समाप्त हो गया था। बाद में चन्द्रशेखर जी और रामधन जी कई गाँवों में गए और कहा कि नत्थूपुर से जनता पार्टी के उम्मीदवार की जीत-हार उनकी जीत-हार होगी। हमें चुनाव जिता रहे लोगों में से कुछ लोगों को लगा कि चन्द्रशेखर जी की प्रतिष्ठा को ठेस नहीं लगनी चाहिए और इस तरह हम लोग चुनाव हार गए। जगदीश मिश्र बहुत कम मतों से चुनाव जीत गए। उन्हें, पिताजी और काँग्रेस के उम्मीदवार राजकुमार राय को मिले मतों का अंतर बहुत कम था। लेकिन चन्द्रशेखर जी के साथ हमारे रिश्तों में तनाव स्थाई नहीं रहा। 1985 के विधानसभा चुनाव में पिता जी उत्तर प्रदेश में खस्ताहाल जनता पार्टी के उम्मीदवार थे। वह जीतने की स्थिति में थे लेकिन चन्द्रशेखर जी ने उनकी जीत सुनिश्चित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। आर्थिक मदद करने के साथ ही उन्होंने कई सभाएँ कीं और पिता जी के लिए वोट माँगे। मुझे याद है कि उस चुनाव में पूर्वी उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी के कई उम्मीदवार जीतने की स्थिति में थे, हमने चन्द्रशेखर जी से कहा था कि वह कुछ समय इन क्षेत्रों में दे दें और कुछ संसाधन भी पहुँचवा दें तो कई सीटें निकल सकती हैं। मुझे याद है कि उस समय चन्द्रशेखर जी ने कुछ भावुक होते हुए कहा था, ‘‘तू अपने बाप के जिता ल, हमरी खातिर सबसे बड़ी खुशी इहे होई।’’ पिता जी भारी मतों के अंतर से जीते थे। इससे पहले संभवतः 1978-79 से ही हम निजी रूप से सक्रिय राजनीति से अलग होकर पूर्णकालिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हो गए थे। बाद के दिनों में चुनावी राजनीति से हमारा सरोकार पिता जी के चुनाव अभियान की कमान संभालने तक ही सीमित रहने लगा था। एक सजग पत्रकार के रूप में भी चन्द्रशेखर जी के साथ हमारा जुड़ाव लगातार बना रहा। जिस तरह से उन्होंने 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में ‘आॅपरेशन ब्लू स्टार’ और उसके बाद ही हुई तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की उनके दो सुरक्षा गार्डों के द्वारा कर दी गई हत्या और उसके बाद देश भर में हुए सिख विरोधी दंगों के समय राजनीतिक स्टैंड लिया था, उसने हमें उन पर गर्व करने का एक और कारण दे दिया था। मुझे याद है उनका भाषण जिसमें वह कहते थे कि ‘दो सिरफिरों के अपराध का बदला क्या उनकी पूरी कौम से लिया जाएगा।’ उनके इस स्टैंड की भारी कीमत उन्हें अपने बलिया संसदीय क्षेत्र में मिली चुनावी हार के रूप में चुकानी पड़ी थी। 1977 से लोकसभा का चुनाव जीतते आ रहे चन्द्रशेखर की यह पहली चुनावी हार थी। उसके बाद के सभी लोकसभा चुनाव सही मायने में राजनेता थे चन्द्रशेखर ध् 173 174 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर वह बलिया से ही लगातार जीतते रहे। अगर 1984 का चुनाव भी वह जीत जाते तो संसदीय चुनावों के इतिहास में उनके नाम एक अलग तरह का रिकार्ड दर्ज होता लेकिन चन्द्रशेखर जी ने चुनावी हार-जीत के फेर में पड़े बगैर अपने सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया। उनका संसदीय जीवन भी बेमिसाल रहा। सदन में उनके समर्थकों की संख्या चाहे जितनी भी हो, अपने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप और बेबाक बयानी से वह सब पर भारी पड़ते थे। उनकी इसी संसदीय सक्रियता के कारण उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसदों की श्रेणी में भी शुमार किया गया। चन्द्रशेखर जी एक मायने में अन्य समाजवादी नेताओं से कुछ अलग थे। डाॅ. लोहिया ने समाजवादी राजनीति के लिए वोट, फावड़ा और जेल यानी चुनाव, रचना और संघर्ष के रूप में तीन हथियार दिए थे। प्रायः सभी समाजवादी नेता वोट और जेल पर तो अमल करते थे लेकिन रचना के काम में नहीं लगते थे। शायद यह भी एक कारण है कि आज कई नामध्ाारी समाजवादी सरकारें होने के बावजूद देश में समाजवाद की कोई पाठशाला नहीं बन सकी। चन्द्रशेखर इस मामले में कुछ अलग थे। वह वोट और फावड़ा को प्रमुखता देते थे। आन्दोलन और संघर्ष के हिमायती नहीं थे। उन्होंने देश और देशवासियों की दशा-दुर्दशा को समझने के लिए भारत (पद) यात्रा की। बाद में उन्होंने देश के कई हिस्सों में भारत यात्रा ट्रस्ट के नाम से भारत यात्रा आश्रम बनवाए। दिल्ली में समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव के नाम पर पुलिस मुख्यालय से सटे नरेंद्र निकेतन बनवाया। दिल्ली से सटे हरियाणा के भोंडसी (भुवनेश्वरी) की जंगली-पथरीली जमीन को एक खूबसूरत आश्रम की शक्ल देने में उनके योगदान की चर्चा जितनी भी की जाए कम ही होगी। हमने खुद उन्हें कई अवसरों पर वहाँ शारीरिक श्रम करते देखा था। हालांकि बाद के दिनों में यह आश्रम किन्हीं कारणों से विवादों के केन्द्र के रूप में भी चर्चित हुआ। उनकी भारत यात्रा के दौरान कुछ दूर तक हम भी उनके सहयात्री रहे। 1985-86 से लेकर 1990 तक हम बिहार की राजध्ाानी पटना में साप्ताहिक ‘रविवार’ के संवाददाता थे। वह समय बिहार की राजनीति में काफी उथल-पुथल का था। चन्द्रशेखर जी का अक्सर बिहार आना और इसके ग्रामीण इलाकों में जाने का कार्यक्रम बनता रहता था। अध्ािकतर कार्यक्रमों में हम उनके साथ रहते। हमारे साथ अक्सर पीटीआई के संवाददाता लोकपाल सेठी भी रहते थे। नेताओं में उस समय यशवंत सिन्हा, रघुनाथ झा, हरिकिशोर सिंह, सूर्यदेव सिंह, सुबोध्ाकांत सहाय और राजीव प्रताप रूडी तथा विक्रम कुँवर भी अक्सर उनकी यात्राओं में साथ रहते थे। ध्ानबाद हो अथवा सीतामढ़ी या फिर भागलपुर या फिर बिहार के अन्य दूर दराज के इलाकों में चन्द्रशेखर जी की सभाओं के क्रम में हमेशा वह एक गंवई भदेस नेता की भूमिका में नजर आते थे। बातचीत का लहजा प्रायः देसी और भोजपुरी ही रहता था। कितने ही मौकों पर हम रास्ते में ढाबे में चारपाई पर बैठ कर उनके साथ चाय पीते और खाना भी खाते। लेकिन अपनी सभाओं में वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा भी जरूर करते थे। उनमें एक गजब का गुण और दिखता था, कार में बैठने के कुछ ही देर बाद वह झपकी लेने लगते लेकिन मौके पर पहुँचने से पहले ही वह जग जाते और मुँह पोंछ कर भाषण के लिए तैयार हो जाते। कई बार लोकपाल सेठी उनसे सभा शुरू होने से पहले ही पूछ लेते, ‘नेता जी कितने मिनट।’ चन्द्रशेखर जी मुस्करा देते। हमने एक बार सेठी से पूछा कि इस तरह के सवाल क्यों करते हो। उनका जवाब था कि चन्द्रशेखर जी के भाषण उन्हें मिनिट के हिसाब से रट से गए हैं। इसलिए जब कभी भाषण नहीं भी सुनना हो, कहीं तफरीह पर जाना हो तो मिनिट के हिसाब से उनका भाषण लिख कर प्रसारित करने में कोई दिक्कत नहीं होती और फिर अगर उन्होंने कोई नई बात कहीं कही हो तो उसका उल्लेख भी वह कर देते थे। नब्बे के दशक की शुरुआत में हम दिल्ली आ गए थे। हमने जनता दल की सरकार बनते-बिगड़ते और गिरने के साथ ही चन्द्रशेखर जी के नेतृत्व में काँग्रेस के सहयोग से उनकी समाजवादी जनता पार्टी की सरकार बनते और गिरते भी करीबे से देखा था। चन्द्रशेखर जी की राजनीतिक इच्छाशक्ति कितनी गजब की थी कि जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और देश का प्रध्ाानमंत्री बनने से पहले वह कभी किसी सरकार-संगठन में मंत्री-महामंत्री नहीं बने थे। संसद की कार्यवाही कवर करने और खासतौर से इसके केन्द्रीय कक्ष में बैठने की सुविध्ाा मिलने के बाद चन्द्रशेखर जी को और करीब से देखने-जानने और सीखने का मौका मिला। वह जब भी मिलते, ‘कुछ खइब?’ जरूर पूछते। हाल समाचार पूछने के क्रम में वह यह भी जरूर पूछते कि किसी तरह की परेशानी तो नहीं है। ना में जवाब सुनने पर वह मुस्करा देते थे। उनके सही मायने में राजनेता थे चन्द्रशेखर ध् 175 176 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर बारे में यह भी मशहूर था कि वह हर किसी की वक्त-जरूरत पर हर तरह की मदद जरूर करते थे। हम उनके प्रशंसक और समर्थक थे लेकिन, उनके कृपापात्र कभी नहीं बन सके। शायद इसके लिए भी हमारी एक स्वभावगत कमी ही जिम्मेदार कही जा सकती है कि जब कभी हमारे करीबी लोग सत्तारूढ़ और प्रभावशाली, कुछ करने की स्थिति में हुए हम उनसे दूर ही रहे। और शायद इसलिए भी कि हमें उनकी कृपा की जरूरत भी नहीं रही। (लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं)