दिल्ली के कोटला रोड पर स्थित बाल भवन अपने में एक अनूठी तथा महत्वपूर्ण संस्था है। यहाँ 14 नवम्बर को प्रध्ाानमंत्री के आने की परम्परा अनेक दशकों तक चलती रही। 1990 में प्रध्ाानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को भी आमंत्रित किया गया। मैं तब बाल भवन सोसाइटी आॅफ इंडिया का अध्यक्ष था। प्रध्ाानमंत्री की स्वीकृति आ चुकी थी। मगर तभी सत्ता परिवर्तन हो गया। 10 नवम्बर 1990 को चन्द्रशेखर देश के प्रध्ाानमंत्री बने। असमंजस की स्थिति थी, फिर भी स्थिति को स्पष्ट करते हुए उन्हें पत्र भेजा गया- इस अनुरोध्ा के साथ कि वे आयें, अवश्य आयें। हमें सुखद आश्चर्य हुआ जब तीसरे दिन उनकी स्वीकृति आ गई। प्रध्ाानमंत्री के रूप में यह उनका पहला समारोह था। वे समय से आये, मैंने तथा मेरे सहयोगियो ने बच्चों को आगे रखते हुए उनका स्वागत किया। मीडिया आमन्त्रित नहीं था मगर उपस्थित था। मैंने देखा कि उन्होंने बच्चों को पीछे कर प्रध्ाानमंत्री को घेरकर प्रश्नों की झड़ी लगा दी, वे रुककर जवाब देने लगे, मुझे अच्छा नहीं लगा, और मैंने- मैं ग्यारह साल बड़े शैक्षिक संस्थान का प्राचार्य रहा था- लगभग अध्ािकारपूर्ण ढंग से कहा- ‘‘प्रध्ाानमंत्री जी, यह समय बच्चों का है, मीडिया का नहंी वे तो आपके पास पहुँचते ही रहेंगे, बच्चों का समय इन्हें देना न्यायसंगत नहीं है।’’ वे रुके, मेरी तरफ देखा और मीडिया वालों को कहा- प्रोफेसर राजपूत ठीक कह रहे हैं, अब आप लोग बच्चों को आने दें। और वे सब हट गये, वह निर्देश कुछ इस ‘‘टोन’’ में था कि उसका पालन करने में क्षणमात्र का विलम्ब सम्भव नहीं था। उनके शब्द एक व्यक्ति के नहंीं, एक व्यक्तित्व की व्यावहारिक राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता तथा सम्मान की अभिव्यक्ति होते थे। कार्यक्रम आगे बढ़ा, सबसे पहले हम उन्हें नये बने ‘‘साइंस पार्क’’ में ले गये। वहाँ 48 प्रदर्श खुले आसमान के नीचे लगाये गये थे। बच्चे आयें, खेलें, स्वयं समझें कि उसमें विज्ञान कहाँ है। चन्द्रशेखर जी हर जगह प्रश्न पूछ रहे थे, रुचि ले रहे थे, 3-4 प्रदर्श देखने के बाद रुक गये, बोले- यह तो नया तथा अद्भुत लगता है, किसने बनाया है, कितने दिन में बना है? अनिल बोर्डिया- जो भारत सरकार के शिक्षा सचिव थे- ने मेरी ओर इशारा किया और प्रशंसा में कुछ शब्द कहे। मैंने वैसा पार्क भोपाल में क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान में भी बनाया था। वहाँ के एक तकनीकी अध्यापक हरविंदर सिंह को मैंने बुलाकर तीन महीने बाल भवन में रखा था। उन्होंने बाल भवन के कर्मचारियों का उत्साहपूर्ण सहयोग लेकर यह अद्भुत संरचना कर दी थी। मैंने हरविंदर सिंह को आगे कर कहा- सब कुछ इन्होंने तीन महीने में किया है। ‘‘मैं बलिया में एक स्थल पर निर्माण करा रहा हँू। क्या वहाँ आप ऐसा ही निर्माण कर सकेंगें’’ उन्होंने सीध्ो हरविंदर सिंह से पूछा। उत्तर अपेक्षित था: आपका आदेश होगा तो अवश्य बन जायेगा। प्रध्ाानमंत्री के चेहरे, हावभाव से लग रहा था कि कितनी जल्दी में हैं वे। मुझसे बोले- क्या सच में यह हो सकेगा, क्या-क्या जरूरतें होंगी? मैंने संक्षेप में बताया, विश्वास दिलाया और उन्हें आगे के कार्यक्रम के लिए प्रत्यनपूर्वक वहाँ से दूसरी ओर ले गया। तीसरे-चैथे दिन उनका फोन बोर्डिंया जी के पास आया- बाद में हर पन्द्रह-बीस दिन में आता रहा। बलिया में कार्यवाही हुई, 15 एकड़ जमीन दे दी गई, कलेक्टर ने मुझसे कई बार बात की। मैंने एक प्रोजेक्ट बनाया, एक ग्रामीण क्षेत्र के लिए यानी बलिया और एक पहाड़ी क्षेत्र में। दो करोड़ का प्रावध्ाान किया गया। इस सब में ही वह समय आ गया जब उन्होंने 6 मार्च 1991 को प्रध्ाानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। फिर वही हुआ जिसमें सत्ता परिवर्तन के साथ अपने को परिवर्तित करने में नौकरशाही पारंगत है। चन्द्रशेखर तपे हुए राजनेता थे, वे जानते थे कि उनकी सरकार का आध्ाार सुदृढ़ नहीं है, उनके पास अध्ािक समय नहीं है, वे जल्दी में थे। शिक्षा के महत्व को वे जानते थे। केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड-सेन्ट्रल एडवाइजरी बोर्ड आॅफ एजुकेशन- कैब की फाइल पर उन्होंने लिखा था इतने अध्ािक सदस्यों वाली संस्था ठोस व सार्थक विचार-विमर्श कैसे कर सकती है, इसे सीमित या संगठित बनाया जाए। वह आज भी लागू नहीं हुआ है- यह विडम्बना है। मैंने लगभग पन्द्रह वर्ष तक संसद की आफीसर्स गैलरी में समय-समय पर जाकर कार्यवाही देखी है। अध्यापकों को ऐसा सामान्यतः जो अनुशासन प्रिय होता है, वह भारत के आदरणीय सांसद नहीं मानते हैं बीच में टोकना, कटाक्ष करना, ध्यान न देना व्यावध्ाान डालना सामान्यतः हर समय वहाँ देखा जा सकता है। ऐसे वातावरण में जब बहस कई बार तल्ख हो जाती थी, शोर-शराबा बढ़ जाता था तब चन्द्रशेखर जी अपने स्थान से उठते थे- शोर उसी तेजी से चन्द्रशेखर: साहस, शौर्य एवं संवेदना के प्रतीक ध् 183 184 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर थम जाता था। उनके बोलने पर हर तरह से सभी को उन्हें ध्यानपूर्वक सुनते देखा जाता था। वे जो कहते थे कई बार अप्रत्याशित लग सकता था मगर जो उन्हें जानते और समझते थे उन्हें विश्वास था कि यह राष्ट्रहित में ही होगा, बड़े एवं विस्तृत पटल पर विश्लेषण के बाद का निष्कर्ष ही होगा। वे लोग जो ‘युवा तुर्क’ शब्द की उत्पत्ति से परिचित होंगे अच्छी तरह जानते हैं कि उन्होंने इन्दिरा गाँध्ाी के दुस्साहस को चुनौती देने का जोखिम उठाया, सिद्धांतों पर डटे रहने का उदाहरण प्रस्तुत किया तथा उस परम्परा का निर्वाह किया जहाँ देश तथा देशाहित में जीवन में हर कष्ट तथा पीड़ा सहने को तैयार रहता है व्यक्ति। विश्वविद्यालय में युवा नेता, राजनीतिक जीवन के प्रारम्भिक जीवन में प्रखरता तथा जो उचित लगे उसे कहना और फिर परिपक्व राजनेता के रूप में राष्ट्र का सम्मान तथा आदर पाना उनके जीवन की पूर्णता के दर्शाते हैं। 24 नवम्बर, 2000 को डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने ‘‘स्कूल शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा’’ का विमोचन किया। यह पण्डित नेहरू का जन्मदिन था तथा उसी अवसर पर इन्दिरा गाँध्ाी द्वारा बहुत पहले प्रारम्भ किये गये ‘‘सामुदायिक गायन’’ का आयोजन भी किया गया जिसमें दस हजार बच्चों ने एक साथ मिलकर दस भारतीय भाषाओं के गीत गाये। विमोचित दस्तावेज पर, अध्ािकांश बिना पढ़े और समझे, दलगत आध्ाार पर देश में बड़ी बहस छिड़ी। संसद में 14 घण्टे बहस हुई, 8 घण्टे लोकसभा में तथा 6 घण्टे राज्यसभा में। मुख्य संस्तुतियाँ जिन पर प्रहार किया गया, यह थी: सब ध्ार्मों के मूल तत्व बच्चों को बतायें, समानताएं जाने बच्चे और जहाँ-जहाँ अन्तर है उनका आदर करना सीखें। यह स्पष्ट किया गया था कि पूजा पद्धतियों इत्यादि को शामिल नहीं किया जायेगा, मूल्यों की शिक्षा को महत्ता मिलेगी, संस्कृत एक महत्वपूर्ण भाषा है, वैदिक गणित गणना कौशलों को बढ़ाने में सहायक होता है। कुछ उत्साही सांसदों ने मेरा नाम लेकर मुझे बर्खास्त करने की मांग की। मैं सही स्थिति समझाने को आठ-दस बड़े राजनेताओं से मिला, जो लिखा गया था वह पढ़ाया और पूछा कि गलती कहाँ है? सभी ने- बिना अपवाद-माना कि विरोध केवल राजनीतिक है, उसमें तर्क या तथ्य आवश्यक नहीं है, ‘‘आप अच्छा काम कर रहे हैं, करते रहें, राजनीति में जो हो रहा है, उससे चिन्तित न हों’’। ऐसा कहने वाले सांसद संसद तथा मीडिया में मेरे कार्य का विरोध्ा करते थे, मुझे ‘भगवाकरण’ बढ़ाने में भागीदारी मानते थे। मैं एक दिन समय लेकर चन्द्रशेखर जी के पास गया- पूरी तैयारी कर के गया था। मैंने उन्हें कई स्थानों पर पुरानी किताबों के पैराग्राफ दिखाये, जो हमने कहा था, वह भी दिखाया, उन्होंने लगभग 35-40 मिनट दिये फिर बोले मैं इसे ले जाऊँगा, पढ़ूँगा तथा आवश्यकता होगी तो आप से फिर चर्चा करूँगा। चलते समय बोले- मैंने आपके लेख पढ़े हैं तथा टीवी पर आपको अपना पक्ष देते हुए देखा है, हिम्मत बनाये रखिये। अगले दिन 9ः30 बजे उनका फोन आया, उन्होंने कुछ प्रश्न पूँछे, लगा उन्होंने ध्यानपूर्वक सब पढ़ा था। मैंने उत्तर दिये, मन को बड़ा अच्छा लगा। अपनी व्यस्तता में उन्होंने समय निकाला, पढ़ा तथा स्पष्टीकरण मांगे। यह उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता तथा कर्मठता का उदाहरण था। लगभग मध्यान्ह दो बजे मानव संसाध्ान विकास मंत्री डाॅ. मुरली मनोहर जोशी का फोन आया: ‘‘तुमने क्या जादू किया, आज चन्द्रशेखर जी ने प्रश्नकाल के बाद उठकर वक्तव्य दिया और कहा कि सारा नये पाठ्यक्रम का विरोध्ा नासमझी का उदाहरण है, जिसे भगवाकरण कहा जा रहा है वह राष्ट्रहित में है, उन दस्तावेजों में कुछ भी ऐसा नहीं है जो सेक्यूलरिज्म के विरुद्ध हो। बच्चों का सब ध्ार्मो के मूल सिद्धांत जानना भाईचारा बढ़ायेगा। यह सेक्युलरिज्म को आध्ाार देगा। ऐसा कहने का साहस केवल चन्द्रशेखर ही कर सकते थे। 12 दिसम्बर, 2002 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय में यही कहा- सारी संस्तुतियाँ देशहित में हैं, इन्हें तो 50 साल पहले लागू किया जाना चाहिए था। चन्द्रशेखर के संसद में दिए गये उस बयान ने मुझे अपूर्व आत्मविश्वास प्रदान किया। आज भी उन्हीं संस्तुतियों को जन-जन में पहुँचाने का कार्य कर रहा हँू। उन्होंने देश भर में युवाओं को प्रेरणा दी, राजनीति में साहस तथा शौर्य का उदाहरण प्रस्तुत किया। बेबाकी से जो ठीक लगे उसे कह सकने की शक्ति उन्होंने- अन्तर्निहित कर ली थी। राष्ट्र उनके लिए सर्वप्रिय तथा सर्वोपरि था, युवाओं पर उन्हें विश्वास था युवाओं का उन पर विश्वास सदैव बना रहा। भारत के उज्ज्वल भविष्य पर वे आश्वस्त थे। देश, देशवासी तथा राष्ट्र के प्रति समर्पित व्यक्ति सदा उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे। (लेखक एनसीईआरटी, नई दिल्ली के निदेशक रहे हैं)