पढ़ने के लिए रोज पैदल जाता था दस किलोमीटर

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जिन्दगी की पहली घटना जो मुझे याद है, वह सन् 1934 की है। उसी साल भूकम्प आया था। 1934 में सात वर्ष की उम्र में मैं पहली बार स्कूल गया। उसके पहले ननिहाल में था एक मंुशी दयाशंकर जी थें वे मुझे पकड़कर स्कूल ले गए थे। वह जिन्दगी का पहला दृश्य है, जो मुझे याद है। दूसरी घटना भूकम्प से जुड़ी है। मेरे गाँव को भूकम्प का मामूली झटका लगा था। मैं सुनता था कि दूसरी जगहों पर बहुत लोग मरे हैं। मुंशी दयाशंकर मुझे पहली बार जिस स्कूल में ले गए थे वह इब्राहिम पट्टी का पुराना प्राइमरी स्कूल था। मेरे बड़े भाई साहब ने भी वहाँ पढ़ाई की थी। वह स्कूल चैथे दर्जे तक था। उस समय दर्जा चार तक ही प्राइमरी स्कूल होता था। दर्जा पाँच में पढ़ने के लिए मैं भीमपुरा गया। प्राइमरी स्कूल में मेरे पहले शिक्षक वंशीध्ार मिश्र थे, जिन्हें हम मोटका पंडित जी कहते थे। उन्होंने मुझे वर्णमाला सिखाई। बाबू परमेश्वर सिंह उसी स्कूल में प्रध्ाानाध्यापक थे। वे मेरी पट्टीदारी के ही थे। स्कूल के ही नहीं बल्कि सारे गाँव और इलाके के लड़के उनका बहुत सम्मान करते थे। उनके पुत्र देवेन्द्रनाथ सिंह (रामसूरत सिंह) मेरे सहपाठी थे। बड़े हँसमुख व्यक्ति थे। अब वे नहीं रहे। लेकिन आरम्भिक शिक्षकों में जिनका प्रभाव मेरे ऊपर सबसे ज्यादा पड़ा, वे काशीनाथ मिश्र थे। स्कूल से उनका घर 4-5 किलोमीटर दूर था। हम लोगों को दर्जा चार में पढ़ाते थे। 5 बजे छुट्टी करके अपने घर जाते थे। 8 बजे रात में स्कूल लौट कर फिर से हमें पढ़ाते थे। इस तरह लालटेन की ध्ाीमी रोशनी में मेरी पढ़ाई की शुरुआत हुई। पढ़ाई में मेरी काफी रुचि थी। प्राइमरी स्कूल में मैं पढ़ने में सबसे अच्छा था। प्राइमरी के बाद मिडिल स्कूल भीमपुरा का मेरे घर से 10-11 किलोमीटर दूर था। मैं रोज पैदल यह दूरी तय करता था। सवेरे या रात का बना बासी खाना खाकर स्कूल जाता था। दिन में खाने के लिए चना-चबेना साथ में ले जाता था। उन्हें भड़भूजे के यहाँ भुजवाता था। वहीं मेरा दोपहर का भोजन था। घर लाटते हुए शाम हो जाती थी। उस समय के मेरे सहपाठियों में ऋषिदेव सिंह, देवेन्द्रनाथ सिंह तथा बुद्धू शाह थे। पढ़ने के लिए रोज पैदल जाता था दस किलोमीटर ध् 277 278 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर ऋषिदेव सिंह हम लोगों से बड़े थे। कक्षा में भी आगे। पढ़ाई में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनके पिता प्रसिद्ध नारायण सिंह मेरे गाँव के सबसे बड़े जमींदार थे। उनका स्वभाव मनमौजी किस्म का था। देवेन्द्र जी की रुचि पढ़ाई में बहुत कम थी। दूरी की वजह से हमें स्कूल पहुँचने में अक्सर देर हो जाती थी। ऋषिदेव सिंह हमें सलाह देते थे कि अब तो देर हो गई, जाएंगे तो बहुत मार पड़ेगी। इसलिए अक्सर हम लोग भीमपुरा के पास एक बगीचे में बैठ जाते थे। वहाँ दिन भर खेलते और शाम को घर लौट आते थे। साथ में लाए हुए चावल और चना चिडि़यों को खिला देते थे। घर आकर कहते थे कि स्कूल से आ रहे हैं। इस तरह की बहाने बाजी में 8-10 दिन बीत गए। मैंने सोचा कि अगर रोज-रोज स्कूल नहीं जाऊंगा तो पढ़ूंगा कैसे? ऋषिदेव जी ने मुझे डराया कि इतने दिन बाद जाओगे तो सजा मिलेगी। इस पर मैंने उनसे कहा कि अब चाहे सजा ही क्यों न मिले लेकिन मैं तो स्कूल जाऊंगा। उसके बाद मैं स्कूल जाने लगा। लेकिन ऋषिदेव जी ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। मिडिल स्कूल जाने का हमारा रास्ता एक पगडंडी भर था। अगर देर हो जाती तो इस पगडंडी पर दौड़ते हुए मैं स्कूल पहुँचता था। मेरे पास जूते नहीं थे। रास्ते में एक फरही नाला था। इसमें बरसात के दिनों में पानी भर जाता था। रास्ता रुक जाने के बाद बरसात में 10-15 दिन हम स्कूल के बोर्डिंग हाउस में ही रह जाते थे। उन दिनों की एक पीड़ा मैं कभी भुला नहीं सका। मेरी जांघ में एक फोड़ा हो गया। सारी जांघ फूल कर लाल हो गई। बीच में एक उभरी हुई जगह के अन्दर असहनीय दर्द था। गाँव में कोई डाॅक्टर नहीं था। पास के गाँव में एक पंडित रछपाल तिवारी थे। वे जर्राह थे। सर्जरी करते थे। उनको बुलाया गया। देखते ही उन्होंने कहा सारी जांघ मवाद से भरी है। इसे निकालना होगा। एक चीरा लगाना पड़ेगा। बिना कोई सावध्ाानी बरते दो लोगों ने मेरे हाथ पकड़े और दो ने पैर। नाई के छुरे से उन्होंने चीरा लगा दिया। केवल एक ही सावध्ाानी बरती कि छुरे को नीम के पत्तों के साथ उबाल लिया था और बाद में एक महीने तक साफ कपड़े को नीम की पत्तियों के साथ उबाल कर घाव में डालते रहे। घाव अन्दर से भरता गया और फोड़ा ठीक हो गया। उस समय जांघ में जो जगह खराब हो गई थी, उसका एक भाग आज भी गहरा है। उस समय मैं पैर मोड़ कर ही रखे रहता था, उसे सीध्ाा करने में डेढ़ महीना लगा। उपचार में केवल सुअर के तेल की मालिश ध्ाूप में करनी होती थी। बाद में मेरे छोटे भाई बद्रीनारायण को भी यही रोग हुआ पर उस समय हालात बदल गए थे। उनका आॅपरेशन बलिया के अस्पताल में हुआ। मैं उस समय इलाहाबाद में पढ़ता था। उसे देखने बलिया आया। कुल चार-पाँच रुपये का व्यय। पर परिवार के कुछ लोग इससे दुःखी हुए। ऐसी थी वह बेबसी, एक अभाव की जिन्दगी। भीमपुरा स्कूल में हमारे शिक्षक भी रहते थे। इस स्कूल में पाँचवीं-छठी और सातवीं करने के बाद यहीं से मैंने अंग्रेजी मंे भी मिडिल की परीक्षा दी। उसके बाद मैंने मऊ के डी.ए.वी. हाई स्कूल में सातवीं क्लास में दाखिला लिया। आठवीं तक वहाँ पढ़ा। डी.ए.वी. में नौवीं नहीं थीं। इसलिए नौवीं-दसवीं जीवनराम हाईस्कूल से करनी पड़ी। मऊ में मैं अपने चाचा यमुना सिंह के मित्र पं. जटाशंकर पाण्डेय के साथ रहा। वे वहाँ एक प्राइमरी स्कूल मंे शिक्षक थे। वहीं वे रहते भी थे। इसी स्कूल से मैंने 1945 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। उन दिनों मेरे बड़े भाई रामनगीना सिंह रंगून में रहते थे। वहाँ कोई नौकरी करते होंगे। 20-25 रुपये वेतन रहा होगा। वे बहुत थोड़ा पैसा ही घर भेज पाते थे। उसी से काम चलता था।

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