चन्द्रशेखर को मैंने पहली बार करीब से देखा था 1972 में। वह सेंट एंड्रयूज कालेज, गोरखपुर के छासंघ के उद्घाटन समारोह में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित थे। सेंट एंड्रयूज कालेज के तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष आद्या दुबे के निमंत्रण पर मैं भी इस समारोह में शामिल हुआ था। यहीं चन्द्रशेखर जी को पहली बार सुना तो जाना कि शालीन शब्दों और छोटे-छोटे वाक्यों के बल पर भी गंभीर बातें ओजस्वी व प्रभावी तरीके से कहीं जा सकती हैं। केवल मेरे नहीं, मेरे जैसे बहुत से लोगों के अग्रज रविंद्र सिंह उस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश की छात्र युवा राजनीति में युवा शक्ति का पर्याय बन कर उभर चुके थे। गोरखपुर विश्वविद्यालय के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के साथ ही उनकी ध्ामक वाया लखनऊ देश की छात्र युवा राजनीति में सुनी जाने लगी थी। उन्हें चन्द्रशेखर जी का असीम स्नेह प्राप्त था। इसलिये समय-समय पर वाया रविंद्र सिंह इस स्नेह का मैं भी भागीदार होता रहता था। सियासी तौर पर चन्द्रशेखर जी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के समय से ही गोरखपुर से जुड़े थे। पारिवारिक तौर पर भी उनका नाता काफी पुराना था। उनकी बहन की शादी इसी जिले के गगहा गाँव में हुई थी। इसलिए उनका इस जिले से गहरा लगाव था। वह जिले की सभी स्थितियों व परिस्थितियों से भलीभांति अवगत थे। हिन्दी और अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ होने के बावजूद वह मेरे जैसे लोगों से भोजपुरी में बात करते थे। इसे लेकर कहते थे कि प्रतिभा और ज्ञान की सम्पन्नता होनी चाहिए। जब कभी अवसर मिले तो उसका ठीक से प्रस्तुतिकरण होना चाहिए। इसका बेवजह प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। तब मुझे बोध्ा होता कि बिड़ला जैसे समूह से टकराने वाला, देश में युवा तुर्क की पहचान हासिल करने वाला, श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी की मर्जी के विपरीत खड़े होकर काँग्रेस कार्यसमिति का चुनाव जीतने वाला, बाहर से चट्टान की तरह दिखने वाला यह बड़ा आदमी भीतर से फूल की तरह कोमल है। चन्द्रशेखर जी केवल भोजपुरी नहीं, आम भोजपुरी लोगों की तरह गायों के चन्द्रशेखर: बाहर से चट्टान और भीतर से फूल ध् 209 210 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर शौकीन थे। उनके घर में तरह-तरह की गायें रहती थीं जिनकी देख-रेख में वह खुद रुचि लेते थे। वह बाग-बगीचे और फूलों के भी प्रेमी थे। उनका पर्यावरण प्रेम उनके दैनिक जीवन में भी दिखता था। व्यस्ततम क्षणों में भी वह इन सब चीजों के लिए समय निकाल लेते थे। आमतौर पर देखा जाता है कि सियासी दुनिया में पहली पांत में पहुँच जाने वाले लोग अपने पुराने पथ को भूल जाते हैं। याद दिलाने पर भी संघर्ष-काल की तकलीफों या उस पथ पर साथ चले लोगों को याद नहीं करना चाहते हैं। दलीय अंतर होने पर तो ओछा व्यवहार भी कर जाते हैं पर चन्द्रशेखर जी ठीक इसके विपरीत थे। उन्हें सब कुछ याद रहता था। वह सबकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते थे। बहुत बार तो वह दूसरों की पीड़ा की चक्कर में अपनी पीड़ा प्रकट ही नहीं होने देते थे। उनसे मिल कर हर किसी को बोध्ा होता था कि वह किसी अपने आत्मीय से मिल रहा है। चन्द्रशेखर जी के इस व्यवहार का मैं भी कायल था। यह वक्त था देश में छात्र युवा आन्दोलन के उभार का। गुजरात में चिमन भाई पटेल की सरकार खराब चावल परोसे जाने को लेकर प्रारम्भ हुए छात्र युवा आन्दोलन की भेंट चढ़ चुकी थी। बिहार में मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ छात्र-युवा के साथ बिहार का जनमानस भी बोलने लगा था। दिल्ली में भी छात्र युवा सड़क पर उतर श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी से इस्तीफे की मांग करने लगे थे। इसे लेकर दिल्ली में हुई एक रैली में एक बड़े जत्थे के साथ मैं भी दिल्ली आया था। चन्द्रशेखर जी से लगाव के कारण अपने जत्थे के साथ ही मैं भी उनके आवास पर गया तो देखा कि वहाँ तो छात्र युवाओं का मजमा लगा है। खासतौर से गोरखपुर, देविरया, बलिया, बनारस, गाजीपुर, आजमगढ़ के छात्र-युवाओं का। चन्द्रशेखर जी उस समय राज्यसभा के सदस्य थे। वह काँग्रेस के बड़े नेता था और उनके आवास पर काँग्रेस विरोध्ाी रैली में शामिल लोगों का जमावड़ा। थोड़ा आश्चर्यजनक लगा लेकिन उससे भी आश्चर्यजनक लगा चन्द्रशेखर जी का उन लोगों के प्रति अपनेपन का व्यवहार। यही नहीं, इनमें से अध्ािसंख्य लोग मान रहे थे कि चन्द्रशेखर जी उनके ही हैं। तब मुझे बोध्ा हुआ कि चन्द्रशेखर जी का यह स्नेह केवल मेरे लिए नहीं है, बहुत लोगों के लिए है। खासतौर से उन सभी लोगों के लिए है जो देश में लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्था की स्थापना में यकीन रखते हैं। इसी दौरान पटना में हुए प्रदर्शन में जयप्रकाश नारायण जी घायल हो गए। पहले से ही सामाजिक परिवर्तन और लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्था में यकीन रखने वाले चन्द्रशेखर जी इस घटना के बाद तो सीध्ो-सीध्ो मुखर हो गए और बोलने लगे कि जयप्रकाश जी संत हैं, जो सरकार ऐसे संत का उत्पीड़न करेगी, उसका नाश हो जाएगा। इसी बीच समाजवादी नेता राजनारायण जी की ओर से दाखिल याचिका में इलाहाबाद उच्च नयायालय का फैसला आ गया कि श्रीमती गाँध्ाी का चुनाव अवैध्ा है। दिल्ली में जयप्रकाश नारायण ने अध्ािकारियों, कर्मचारियों के साथ सेना और पुलिस के जवानों से भी अपील कर दी कि श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी तानाशाह हो गयी हैं। वे लोग उनके आदेश को न माने। देश का माहौल पूरी तरह से श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी और उनकी काँग्रेस के विपरीत हो गया था। इससे भयभीत श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी ने 25 जून, 1975 को देश पर आपात्काल थोप दिया। जयप्रकाश जी और चन्द्रशेखर जी जैसे लोग जेल में डाल दिए गए। जेल के दौरान भी चन्द्रशेखर जी का नाता गोरखपुर से नहीं टूटा। वह जिन कुछ लोगों को जेल में याद करते थे या पत्र लिखते थे, उनमें हमारे नेता रविंद्र सिंह भी होते थे। चन्द्रशेखर जी की जेल डायरी में भी रविंद्र सिंह झा जिक्र उनके स्नेह का दस्तावेजी प्रमाण है। श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी और उनकी काँग्रेस को उनकी करतूतों का फल मिला। 1977 के लोकसभा चुनाव में पूरे उत्तर भारत से काँग्रेस का सफाया हो गया। दिल्ली में जनता पार्टी के सरकार बनी तो चन्द्रशेखर जी को मिला जनता पार्टी का नेतृत्व। बतौर जनता पार्टी अध्यक्ष उन्होंने जिन एक सैकड़ा नवजवानों को विध्ाानसभा का टिकट दिया उसमें रविंद्र सिंह भी थे। वह जीते और कौड़ीराम से विध्ाायक बन गए। इस दौरान क्यूबा में हो रहे अंतर्राष्ट्रीय युवा सम्मेलन में भाग लेने के लिए उन्हें चन्द्रशेखर जी ने क्यूबा भेजा। इस सम्मेलन में गए लोगों के अनुसार रविंद्र सिंह ने हिन्दी में किए गए अपने ओजस्वी भाषण से सबको प्रभावित किया। वह अभी कुछ होते कि गोरखपुर स्टेशन पर घात लगा कर समाजवादी विरोध्ाी तत्वों के इशारे पर अपराध्ाियों ने उन्हें गोली से भून दिया। बुरी तरह जख्मी रविंद्र सिंह को इलाज के लिए दिल्ली ले जाना था। इसके लिए हेलीकाप्टर की जरूरत थी। श्री रामनरेश यादव जी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे लेकिन उन्होंने अपने ही विध्ाायक की जान बचाने के लिए हेलीकाप्टर नहीं मुहैया कराया तो चन्द्रशेखर जी ने बिहार सरकार से यह सुविध्ाा मुहैया कराने के लिए कहा। बिहार सरकार के मंत्री मिथलेश सिंह हेलीकाप्टर लेकर आए भी लेकिन तब तक छात्र युवा चन्द्रशेखर: बाहर से चट्टान और भीतर से फूल ध् 211 212 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर राजनीति के अपराजेय योद्धा रविंद्र सिह के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। चन्द्रशेखर जी इस हत्या और राज्य सरकार के इस व्यवहार को लेकर बहुत दुःखी थे। उन्होंने रविंद्र सिंह की मौत को अपनी व्यक्तिगत क्षति बताया और उनकी पत्नी श्रीमती गौरी देवी को उनकी जगह विध्ाानसभा का टिकट दिलवाया और उनके चुनाव में विशेष ध्यान दिया। वह जीती और कौड़ीराम से विध्ाायक बनीं। रविंद्र सिंह मेरे लिए केवल नेता नहीं थे। बड़े भाई थे और मित्र भी। उनके निध्ान से पूर्वी उत्तर प्रदेश ने अपना एक सजग सपूत खो दिया। उनके प्रति मेरा लगाव किस हद तक था, इसे मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता। इसे केवल महसूस कर सकता हूँ। इसलिए उनके प्रति चन्द्रशेखर जी को स्नेह मैं कभी नहीं भूल पाया। उनके निध्ान के बाद भी मेरा चन्द्रशेखर जी के प्रति लगाव बना रहा। इसी प्रेम के तहत ही एक बार भोड़सी आश्रम गया तो वहाँ अटल बिहारी बाजपेयी और कांशीराम भी मौजूद थे। किसी मसले पर तीनों नेताओं में बातचीत हो रही थी। वर्तमान में किसी नेता के यहाँ के इस विराट कद के दो नेता बात करने को चले जाएं तो पूरा इलाका किले में बदल जाएगा। लेकिन, भोड़सी आश्रम में बातचीत के कक्ष के अलावा सब कुछ खुला था, केवल मेरे लिए नहीं, सबके लिए। चन्द्रशेखर जी के जीवन में बनावटीपन तो था ही नहीं। वह जैसे युवा तुर्क के रूप में मिलते थे, वैसे ही प्रध्ाानमंत्री बनने के बाद भी। वह प्रध्ाानमंत्री बनने के बाद भी मेरे जैसे लोगों के लिए भी उपलब्ध्ा थे अपनी प्रिय लिट्टी चोखा के साथ। गाँव-गिरांव और अपनों लोगों से उनका जुड़ाव इतना गहरा था कि प्रध्ाानमंत्री होने के बाद अपने पुराने जानने वालों के यहाँ लिट्टी-चोखा खाने चले जाते थे, जात-पांत और संप्रदाय से ऊपर उठ कर। गोरखपुर का होने के नाते जात-पांत और संप्रदाय के जहर को मैं ठीक से जानता हूँ। इसका विरोध्ाी हूँ। इसलिए इसका नुकसान भी भोग रहा हूँ। मुझे पता है कि जातिगत आध्ाार पर क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ शीघ्र पूरे हो जाते हैं। यह भी जानता हूँ कि साम्प्रदायिकता भड़का कर विध्ाायक और सांसद बनना आसान होता है। लेकिन, यह भी जानता हूँ कि यह बीमारी राष्ट्र और राष्ट्रीय भावना के लिए कैंसर के समान है। फिर भी बड़े-बड़े नेताओं को भी इस बुराई की चपेट में देखता हूँ, इसका लाभ उठाते देखता हूँ जो तकलीफ होती है। इस मामले में चन्द्रशेखर जी से सीख लेने की जरूरत है। उन्होंने कभी अपने नाम के साथ जात का उल्लेख नहीं किया। उत्तर प्रदेश में जौनपुर के ओमप्रकाश श्रीवास्तव, आजमगढ़ के पद्यमाकर लाल, लखनऊ के पतित पावन अवस्थी और सहसवान के सैयद सगीर अहमद उनके करीबी लोगों में थे। केवल जात के सवाल पर नहीं, साम्प्रदायिकता के सवाल पर भी उनकी स्पष्ट दृष्टि थी। साम्प्रदायिकता चाहे हिन्दू समाज की हो या मुस्लिम समाज की, वह उसका विरोध्ा करते थे। इसकी वजह से उन्हें 1984 का चुनाव भी हारना पड़ा लेकिन वह अपने पथ से नहीं डिगे। जात और संप्रदाय के सवाल पर आज की सियासत को चन्द्रशेखर जी प्रेरणा लेनी चाहिए। वह राष्ट्रीय सवालों पर समझौता नहीं करते थे। अपने अल्पकाल के प्रध्ाानमंत्रित्व काल में उग्रवाद के सवाल पर बर्खास्त कर उन्होंने बोध्ा करा दिया कि कुछ करने के लिए बहुमत की नहीं, इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। इस इच्छाशक्ति के बल पर ही चन्द्रशेखर किसी सरकार के मंत्री या संत्री नहीं, सीध्ो-सीध्ो प्रध्ाानमंत्री बने। उनके राजनीतिक जीवन का सफर समाजवाद से प्रारम्भ हुआ और उसी की स्थापना के लिए वह संघर्ष करते हुए संसार को अलविदा हो गए। आज चन्द्रशेखर जी हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके आदर्श हमारे बीच हैं। वर्तमान को इन आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए, इन पर चलना चाहिए, भारत को विश्व का एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के लिए। (लेखक गोरखपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष और पूर्व विध्ाायक रविंद्र सिंह के मित्र रहे हैं)