चन्द्रशेखर: आमजन की खास आवाज़

मेजर डाॅ. हिमांशु  


एक कामरेड, एक शाश्वत विद्रोही-युवा तुर्क, एक सतत् पदयात्री, आम आदमी की खास आवाज, राष्ट्रीय विवेक की दो टूक अभिव्यक्ति, एक विचारक, एक संत, ....एक स्नेही बुजुर्ग जिसे गर्व से देखते हुए हम जवान और हमें जवान करता हुआ वो घर का बड़ा अमरत्व में लीन हुआ। अभी यह महत्वपूर्ण नहीं कि हम चन्द्रशेखर जी के अर्जुन, एकलव्य, अभिमन्यु क्या हैं, बल्कि महत्ता इस बात की है कि चन्द्रशेखर जी कभी भी एकलव्य का अंगूठा काटने वाले द्रोणाचार्य नहीं रहे। वो मर्यादा से बंध्ो, दायित्व का भारी बोझ बिना शिकायत-शिकवे के उठाने वाले भीष्म पितामह हैं। वो एक माली हैं। जिन्हें पौधे लगाना पसन्द है, उन्हें खाद-पानी देना भी। यदि उनके किरदार की किसी सांस्कृतिक मिथक से समुचित तुलना संभव है तो भोले शंकर से। भोले शंकर समाजवाली। भोले की बारात की तरह चन्द्रशेखर जी के अपनों में राजनीति और समाज के देव-दानव, यक्ष-किन्नर, सांप-बिच्छू, संत-सपेरे सबका समायोजन मिलेगा। उनके दरबार में रावण, कुबेर, इन्द्र, गणेश, भस्मासुर सब मिलेंगे। लंका बसाते या जलाते, कैलाश पूजते या उखाड़ते। वो क्रोधी हैं निष्ठुर नहीं। वे गुणवत्ता को महत्व देते हैं पर ईष्र्या और गलाकाट प्रतिस्पर्धा उनका स्वभाव नहीं है। वो अडि़यल-हठी हैं, अव्यावहारिक अमर्यादित नहीं। भृगु मुनि की परम्परा में, बलिया की मिट्टी की तामीर के अनुरूप, सत्ता-प्रतिष्ठान को कभी भी लात मारने की काबलियत रखने वाला एक निर्मोही शाश्वत विद्रोही। इस शाश्वत विद्रोही की बेचैनी को जो लोग राजनैतिक चन्द्रशेखर: आमजन की खास आवाज़ ध् 217 218 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर महत्वाकांक्षा जनित मानते हैं उन्हें कबीरदास जी के इस दोहे की ओर ध्यान देना चाहिये। सुखिया जग-संसार है, खावे अरु सोवे, दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे। यह एक संवेदनशील, मानवीय गुणों से भरपूर बौद्धिक की बेचैनी है। आचार्य नरेन्द्र देव जी के कहने पर पी.एच.डी. छोड़ कर गुरु शिष्य की परम्परा का निर्वाह कर रहे चन्द्रशेखर जी को यह राष्ट्र निर्माण और कमजोर की लड़ाई में जुटने के कारण कहीं राजकुमार सिद्धार्थ (महात्मा बुद्ध) की परम्परा में खड़ा करती है। ये बेचैनी संक्रामक भी हैं। चन्द्रशेखर जी जब काँग्रेस वर्किंग कमेटी का चुनाव इन्दिरा जी की इच्छा के विरुद्ध जीतते हैं तो सुभाष चन्द्र बोस की याद दिलाते हैं। इन्दिरा जी के मंत्रिमंडल में शामिल होने के बजाय वे जय प्रकाश नारायण जी के आवाहन पर आपात्काल के विरुद्ध सीध्ो 19 महीने जेल जाते हैं, तो राजपूती आन में महाराणा प्रताप के समान जमीन पर सोते और घास की रोटी खाते दिखते हैं। लम्बी कठिन लड़ाइयों के बाद खुद पद न लेकर मित्रों को पद दिलाते चन्द्रशेखर जी, लंका विजय के बाद राजपाट विभीषण को सौंपते मर्यादा पुरुषोत्तम की परम्परा का निर्वाह करते हैं। 1977 में समुद्र मंथन के बाद जहाँ बड़े से बड़े अन्य नेता जनता पार्टी सरकार में देवताओं की तरह रत्नों की बंदरबाट में मशगूल दिखते हैं, वहीं चन्द्रशेखर जी स्वनाम धन्य विषपान करते हैं। सत्ता की जोड़-तोड़ से दूर 1983 में चन्द्रशेखर जब 4200 किमी. की भारत यात्रा पैदल करते हैं तो उनमें बुद्ध और गांधी की छवि झलकती है। दरअसल चन्द्रशेखर संतों और सत्ता को जोड़ने वाले वशिष्ठ और विश्वामित्र, भीष्म, गांधी, जे.पी. की परम्परा की कड़ी हैं। यूं भी यह देश सत्ताधीशों से ज्यादा फकीरों का दीवाना है। एक साधारण परिवार से, जीवन में बिना किसी पद पर रहे सीधे प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाला यह प्रबल इच्छाशक्ति का स्वाभिमानी व्यक्ति कवि रहीम में अटूट विश्वास रखता है- मान सहित विष खायके शम्भु भये जगदीश, बिना मान अमृत पीयो, राहु कटायो शीश। कुछ महीने की काँग्रेस समर्थित सरकार बनाने से उनके कुछ अपने भी निराश हुए। उस समय की देश की परिस्थितियों के संदर्भ में देखा जाये तो जनहित में नीलकंठ होने को हमेशा तैयार चन्द्रशेखर जी के लिए यही उपयुक्त और स्वाभाविक था। कुछ लोग अपनी छवि चमकाने के लिए राष्ट्र, समाज और संगठन के हितों को दांव पर लगा देते हैं और कुछ राष्ट्र, समाज और संगठन के हितों के लिए अपनी छवि की भी परवाह नहीं करते। चन्द्रशेखर जी दूसरे प्रकार के हैं। कुछ महीने की सरकार ने जातिवाद और साम्प्रदायिकता से जल रहे देश में ठण्डे पानी का काम किया। उनके बढ़ते कद से आशंकित कुछ लोगों के उकसाने पर, राजीव गांधी जैसे सज्जन व्यक्ति दबाव बनाने के लिए दो हरियाणा पुलिस कांस्टेबिल प्रकरण जैसा हल्का व्यवहार कर बैठे तो प्रधानमंत्री पद की गरिमा अक्षुण्ण रखते हुए, चन्द्रशेखर जी ने समझौते और सौदेबाजी के बजाए तुरन्त राष्ट्रपति जी को इस्तीफा देना श्रयेष्कर समझा। पुनः शपथ की भी पेशकश की गयी। इस्तीफे कई प्रधानमंत्रियों ने दिये पर मान मनुव्वल के बाद भी इस्तीफा वापस न लेने वाले अकेले चन्द्रशेखर हैं। चाह गई, चिन्ता गई, मनुवा बेपरवाह, जा को कछु न चाहिये, वो शाहन का शाह। खुद चन्द्रशेखर जी और उन्हें करीब से जानने वाले यह जानते हैं। चन्द्रशेखर जी के गलत आंकलन का मलाल राजीव गांधी जी को जरूर रहा होगा और खाँटी राजनीति की फक्कड़मस्ती का सबक भी उन्होंने चन्द्रशेखर जी से सीख लिया होगा। इसी वजह से चन्द्रशेखर जी को मित्रों की कभी-कमी नहीं रही। पर इसका कारण भी मित्र बनाने की कला से ज्यादा मित्रता निभाने का उनका माद्दा है। मित्रता के दायित्व निर्वहन में वे विवादास्पद या संदिग्ध्ा होने तक का जोखिम उठा लेते हैं। कई तथाकथित मित्रों द्वारा वो कई बार, बार-बार ठगे गये पर वो मित्रता धर्म से डिगते नहीं दिखते। उनके मित्र और प्रशंसक समाज के हर वर्ग, क्षेत्र, देश व दलों में बिखरे पड़े हैं। देवगौड़ा, शरद पवार, भैरो सिंह शेखावत, ओम प्रकाश चैटाला, मुलायम सिंह व लालू यादव जैसे विस्तृत प्रभामण्डल वाले चन्द्रशेखर स्व. इन्दिरा गांधी से कांशीराम जी तक के सम्मानित रहे हैं। अपनी किताब में पूर्व राष्ट्रपति वैंकेटरमन उन्हें सर्वश्रेष्ठ आंकते हैं। कई साहित्यकार उनके राजनीति में जाने को साहित्य की क्षति मानते हैं। विपरीत परिस्थितियों में अकेला पड़ने पर ऐकला चलो रे, की हिम्मत रखने चन्द्रशेखर: आमजन की खास आवाज़ ध् 219 220 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर वाले चन्द्रशेखर जी अच्छे वक्त में सब कुछ भूलकर, सबको साथ रखने का कर्तव्यबोध रखते हैं। यही उनकी ताकत है और राजनीति में कमजोरी भी जिसके चलते वो बार-बार इस्तेमाल होते हैं, जानते-बूझते। जानते-बूझते ही अपनी विलक्षण राजनैतिक समझ के बावजूद चन्द्रशेखर जी अपने सियासी जीवन में अनेक बार साफगोई का जोखिम उठाते हैं। कभी आम आदमी की खास आवाज बन कर तो कभी राष्ट्रीय विवेक की दो टूक अभिव्यक्ति के रूप में। साठ के दशक में जहाँ वो राजे-रजवाड़ों, पूँजीपतियों और सिंडिकेट के खुर्राट नेताओं से समाजवाद के लिए उलझते हैं, तो 70 के दशक में देश और पार्टी में लोकतंत्र के दमन की पहचान बन चुकी इन्दिरा गाँध्ाी को चुनौती देते हैं। असम आपरेशन, ब्लू स्टार, नेपाल, बोफोर्स, कश्मीर, पंजाब, उदारीकरण, भूमंडलीकरण, विनिवेश, स्वदेशी और अमरीका के संबंध्ा में चन्द्रशेखर जी से जहाँ आज 10-20 साल बाद सब सहमत दिखाई देते हैं, जब तब उनकी साफगोई से उपजी तत्कालिक व स्वार्थी नासमझ नेताओं द्वारा प्रायोजित जनता की नाराजगी उनके खाते में राजनीतिक नुकसान दर्ज कराती ही रही है। मण्डल और मन्दिर की राजनीति के लाभ के लोभ का संवरण कर पाने वाले संभवतः वे अकेले नेता हैं। जेल के बागीचे और भोंडसी आश्रम के वीराने बंजर को खुद फावड़ा-तसला लेकर, हरा-भरा कर वे उसका श्रेय तक नहीं लेते, न ही भोंडसी आश्रम को लेकर किये गये कुप्रचार की सफाई देते हैं। भुगतान असंतुलन के गंभीर आर्थिक संकट में सोना गिरवी रखने जैसे आलोकप्रिय फैसले से पीछे नहीं हटते। नेताओं के नेता, विशेषज्ञों के विशेषज्ञ, पारदर्शिता और साफगोई के मुरीद, भारतीय राजनीति के अजातशत्रु चन्द्रशेखर जी किसी चन्द्रास्वामी या सूर्यदेव सिंह के अपने परिचय से कभी नहीं मुकरते और भैरोसिंह शेखावत या नाना जी देखमुश से उनकी मित्रता धर्मनिरपेक्ष दलों में उनकी साख कम नहीं करती। वे 90 के दशक में डब्ल्यूटीओ के डंकल प्रस्तावों के विरुद्ध, राष्ट्रहित में आरएसएस के विरुद्ध, राष्ट्रहित में आरएसएस के स्वदेशी अभियान में सहयोग से नहीं हिचकते। सदन की गरिमा के रक्षार्थ वो संसद में प्रध्ाानमंत्री को भी डांट सकते हैं। किसी से भी जेल तक मिलने जा सकते हैं। न्याय पालिका को अति सक्रियता के लिए चेता सकते हैं। धर्म गुरुओं को राजनीति में हस्तक्षेप न करने की सलाह दे सकते हैं। निर्भीकता से, बिना नफे-नुकसान की परवाह किये। यह वो भारतीय राजनीति का अकेला घर है जहाँ सब आ सकते हैं। जिस विचार को अभिव्यक्त करने की हिम्मत, शक्तिपीठों और सत्ता प्रतिष्ठानों पर काबिज लोग नहीं कर पाते, उसकी गुजारिश भारतीय राजनीति के इस शेर में की जाती है। वह है चन्द्रशेखर होने का महत्व। यह राष्ट्रीय विवेक की दो टूक अभिव्यक्ति का अवसान है। एक युगान्त। महर्षि दधीचि की हड्डियों से बने बज्र का इस्तेमाल बहुत बार इन्द्र की सत्ता को स्थिर करने के लिए हुआ है। साढ़े तीन साल तक कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जीर्णशीर्ण हो चले बुजुर्ग को देखना तक दुःखदायी था पर वो वज्र उपलब्ध या यही बड़ा साहस देने वाला था। देश के सर्वोच्च प्रजातांत्रिक पद पर पहुँचना इस विलक्षण यात्री की कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। यह टीस चन्द्रशेखर जी को जानने वाले उनके शिष्यों, अनुयायियों, प्रशंसकों व मित्रों को हमेशा सालती रहेगी। जीते जी उनकी प्रतिभा को समुचित अवसर न मिलने से संभव है इतिहास उन्हें उनके विराट व्यक्तित्व के अनुरूप स्थान न दे सके। यह चन्द्रशेखर जी का दुर्भाग्य है। यदि उन्हें समुचित अवसर मिला होता तो देश बहुत सारी जिन समस्याओं से त्रस्त है, संभवतः उनसे मुक्त होता। यह देश का दुर्भाग्य है। ‘चन्द्रशेखर के अपने’ जहाँ भी हैं इस टीस को मिटाने का सार्थक प्रयास करें। विद्वेष और विभाजन की राजनीति के इस दौर में समन्वयवादी, व्यावहारिक राजनीति की चन्द्रशेखरवादी शैली की विरासत को जरूरी है भारतीय राजनीति और समाज संस्थागत रूप दे। राजीव गांधी की हत्या हो जाने पर चन्द्रशेखर जी ने दूरदर्शन व आल इण्डिया रेडियो पर शोक-संदेश रिकार्ड कराया। देशवासियों से अपील। राजीव गांधी के शव रखने-दर्शन की व्यवस्था की एक-एक जानकारी ली। कितने ‘हेड आॅफ स्टेट’ (राज्याध्यक्ष) आ रहे हैं, उनकी अगवानी से लेकर ठहरने तक का जायजा। पूरी रात लगभग इसी तरह गुजर गयी। इसी बीच दिल्ली उपराज्यपाल (तब मार्कण्डेय सिंह उपराज्यपाल थे) के यहाँ से सूचना (या अफवाह) आयी चन्द्रशेखर: आमजन की खास आवाज़ ध् 221 222 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर कि जमुना पार से भांगड़ा करते हुए 250-300 लोगों के राजीव गांधी के संस्कार-स्थल तक जाने की चर्चा है। प्रध्ाानमंत्री के यहाँ से निर्देश गया कि ऐसी भीड़ को गिरफ्तार करो। पुलिस पीटे, फिर इन्हें जेल में डाले। फिर सूचना आयी कि 200-250 लोग तीन मूर्ति पर जमा हैं। राजीव गांधी का शव रखने के सवाल पर विवाद है। प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने थल सेनाध्यक्ष (तब शायद रोड्रिग्स थे) को फोन किया। कहा, सुनिश्चित करिये कि वहाँ से भीड़ हटा दी जाये। लोग न मानें, तो लाठीचार्ज। हिंसा हो, तो फ्लैग मार्च और गोली चलवायें। थल सेनाध्यक्ष ने कहा, बिल्कुल ठीक, सर! पूछा, कि सर! इन कामों में ‘सिविल एडमिनिस्ट्रेशन’ अड़चन डालेगा। (कानून-व्यवस्था वैसे भी राज्यों के मामले हैं) तो? चन्द्रशेखर ने कहा, ‘आइ एम द हाइएस्ट सिविल अथारिटी आफ दिस कंट्री’। में निर्देश दे रहा हूँ। ब्लैंक पेपर लाइये दस्तखत कर देता हूँ। अफसर अभिभूत। सर! इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। सब नियंत्रित हो जायेगा और कहीं देश में कोई गड़बड़ी नहीं हुई। यह थी सिर्फ 50 सांसदों के बल पर प्रधानमंत्री बने व्यक्ति की शासकीय दक्षता-क्षमता। सरकार गिर चुकी थी और एक चरण चुनाव हो चुके थे। फिर भी व्यक्ति का इकबाल! राजसत्ता के जीवंत होने का एहसास। वही चन्द्रशेखर सिक्खों के खिलाफ इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद दंगों में और उससे पहले पंजाब समस्या पर राष्ट्रीय विवेक की आवाज थे। सिक्ख पंथ और मार्शल सिक्खों की अद्भुत समझ रखने वाले चन्द्रशेखर की आपरेशन ब्ल्यू स्टार के खिलाफ उनकी चेतावनी भरी बातें, भविष्यवक्ता की टिप्पणी हो गयीं। देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। और इन सवालों को साफ-साफ कहने के कारण सरकारी तंत्र ने उनके संसदीय चुनाव में ‘बलिया के भिंडरववाले’ के नारे लगवा कर उन्हें चुनाव हरवाने का काम किया। (लेखक आम आदमी पार्टी के नेता हैं)

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