भारत की राजनीति में चन्द्रशेखर जी का नाम हमेशा आदर के साथ लिया जाएगा। उन्होंने शुचिता, सिद्धांत और मूल्यों की राजनीति की और अपने इन उसूलों से कभी समझौता नहीं किया। सार्वजनिक जीवन में जैसा कद चन्द्रशेखर का था, वैसा बहुत कम लोगों को प्राप्त होता है। सड़क से संसद तक उनकी स्वीकार्यता बेजोड़ थी। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि चन्द्रशेखर बहुत कम समय के लिए प्रध्ाानमंत्री की कुर्सी पर बैठ सके। यदि वह कुछ और दिनों तक प्रध्ाानमंत्री रहते तो निश्चित रूप से तस्वीर दूसरी होती। खासतौर से उनके कार्यकाल को अयोध्या विवाद का सर्वमान्य हल निकालने की कोशिश के लिए याद रखा जाता है उन्होंने प्रध्ाानमंत्री के पद पर रहते हुए जैसी गंभीर पहल की उससे लग रहा था कि इस जटिल व संवेदनशील समस्या का समाध्ाान निकल आएगा। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका और कुछ अपरिहार्य कारणों से चन्द्रशेखर को प्रध्ाानमंत्री का पद त्यागना पड़ा। मैंने जब राजनीति के बारे में जानना-समझना शुरू किया तो वह 1975 में इमरजेंसी का दौर था। उस कालखंड में पूरा देश काँग्रेस या दूसरे शब्दों में इन्दिरा गाँध्ाी विरोध्ाी लहर से ग्रसित था। गैर काँग्रेसवाद के रूप में 1977 के आम चुनाव से पहले जनता पार्टी का उदय हुआ। कई विपक्षी नेताओं को एक मंच पर लाकर काँग्रेस का मुकाबला करने की रणनीति बनी। इमरजेंसी से आक्रांत देशवासी नया इतिहास लिखने को बेताब थे। उसी दौर में चन्द्रशेखर को देश ने राष्ट्रीय नेता के रूप में पहचाना। जनता पार्टी के वह अध्यक्ष थे। सभी को साथ लेकर चलने का उनका कौशल गजब का था। उनके अथक प्रयासों का ही नतीजा था कि 1977 के चुनाव में जनता पार्टी सत्ता में आ गई। प्रचंड बहुमत से जनता परिवार ने काँग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। उस आम चुनाव के दौरान मैं गोरखपुर में रह कर पढ़ाई कर रहा था। सभी बड़े नेताओं को सुनने की ललक थी। गोरखपुर के महाराणा प्रताप इंटर कालेज के मैदान में चुनावी सभाएं होती थीं। घर के निकट होने की वजह से मैं अटल दिल को छू गई भोजपुरी में बात ध् 237 238 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर बिहारी वाजपेयी, नाना जी देशमुख, चरण सिंह, जगजीवन राम और चन्द्रशेखर को सुनने चला जाता था। जनता पार्टी की लहर से पूरा देश सराबोर था। पहली बार उस चुनाव में चन्द्रशेखर को भाषण देते सुना तो अहसास हुआ कि पूर्वांचल की ध्ारती ने वास्तव में एक निर्विवाद नेता को जन्म दिया है। जिस बलिया जनपद से चन्द्रशेखर आते हैं उससे मेरा भी गहरा जुड़ाव रहा है। मेरे बड़े भाई डाॅ. सत्य प्रकाश सिंह साठ व सत्तर के दशक में बलिया के टाउन डिग्री कालेज में प्रोफेसर थे। मैंने उन्हीं के साथ रह कर अपनी प्रारंभिक शिक्षा शुरू की। इसके अलावा बलिया में मेरा ननिहाल भी है। चन्द्रशेखर जैसे नेता से कभी मुलाकात होगी, यह मैंने कभी नहीं सोचा था। पत्रकारिता जीवन में कदम रखते हुए मैंने रिपोर्टिंग के बजाय संपादकीय (डेस्क पर काम) दायित्व को चुना। डेस्क पर काम करने बालों को रिपोर्टिंग का मौका कभी-कभार ही मिल पाता है। इसलिए नेताओं या नौकरशाहों से मिलना जुलना नहीं हो पाता। लेकिन चन्द्रशेखर जी से मिलने का संयोग बन ही गया। बात 1984 के चुनावों की है। मैंने एक अक्टूबर, 1984 को लखनऊ में नवभारत टाइम्स की संपादकीय टीम में ज्वाइन किया था। प्रध्ाानमंत्री इन्दिरा गाँध्ाी की हत्या के बाद लोकसभा चुनाव घोषित हो गए थे। सारे बड़े नेता ध्ाुआंध्ाार प्रचार में लगे थे। जनता पार्टी में बिखराव शुरू हो गया था। उसी दौरान एक दिन चन्द्रशेखर का संवाददाता सम्मेलन लखनऊ में हुसैनगंज स्थित एक होटल में आयोजित था। इसमें हमारे वरिष्ठ संवाददाता शैलेश को जाना था लेकिन संयोग से यह मौका मेरे हाथ लग गया। हुआ यह कि चन्द्रशेखर जी सयम से नहीं पहुँचे। चूंकि वह होटल जहाँ में रहता था (रायल होटल विध्ाायक निवास) वहाँ से करीब था अतः शैलेश जी ने मुझे वहाँ भेज दिया। चुनाव प्रचार में व्यस्त चन्द्रशेखर रात 11 बजे के बाद जब प्रेस कांफ्रेस के लिए पहुँचे तब तक कई पत्रकार वापस जा चुके थे। बहुत थोड़े लोग रह गए थे। इस नाते चन्द्रशेखर जी से मिलना और भी सरल हो गया। तब सुरक्षा को लेकर इतना तामझाम भी नहीं था। भोजन के दौरान ही अनौपचारिक बातें भी होने लगीं। मैंने अपना परिचय देकर उन्हें बताया कि मैं भी पूर्वांचल (देवरिया जिला) का हूँ। इसके बाद मैंने चरण सिंह को लेकर एक सवाल पूछा तो चन्द्रशेखर जी ने भोजपुरी में उसका जवाब दिया- काहें उनकर (चरण सिंह) नाम लेत बाड़? उस समय चरण सिंह अपनी अलग पार्टी बना कर चन्द्रशेखर से अलग हो गए थे। इसलिए उन्होंने तल्खी भरा जवाब दिया। लेकिन भोजपुरी में बोल कर उन्होंने जो आत्मीयता दिखाई उससे मैं अभिभूत हो गया। आज भी उस क्षण को याद करके मैं रोमांचित हो उठता हूँ। डेस्क का पत्रकार होकर चन्द्रशेखर जैसे नेता से मिलने का मेरा सपना पूरा हो चुका था। उसके बाद उन्हें संसद में बोलते कई बार सुना। यह महसूस किया कि वास्तव में जब चन्द्रशेखर बोलते हैं तो पूरा सदन शान्त होकर उनकी बात सुनता है। उनके बोलने के दौरान शायद ही कभी टोका-टाकी हुई है। उन जैसे नेता की कमी देश को हमेशा खलेगी। (लेखक अमर उजाला के वरिष्ठ पत्रकार हैं)