गाँधी जी का नाम 1940 में सुना

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उन्हीं दिनों मैं आर्यसमाज के गहरे सम्पर्क में आया। मऊ का आर्यसमाज मन्दिर काफी सजग और सचेत था। आर्यसमाज के लोग राष्ट्रीय आन्दोलन से बहुत गहरे जुड़े हुए थे। वहीं पर मैंने आर्यसमाजियों के साथ पहले पहल प्रभात फेरियाँ निकालीं। राष्ट्रीय भावना के बारे में मैं आर्यसमाज के कारण ही सचेत हुआ। एक और कारण था, 1940 का व्यक्तिगत सत्याग्रह। मेरे गाँव के एक समछबीला सिंह जी मेरे चाचा थे। उन्होंने मेरे दरवाजे पर ही सत्याग्रह किया। उन दिनों मेरे लिए आजादी का मतलब थोड़ा-बहुत स्पष्ट हो चुका था। लोग कहते थे कि अंग्रेज चले जाएंगे तो देश से गरीबी चली जायेगी। अंग्रेज देश को लूट रहे हैं। इस अहसास की वजह से मैं सत्याग्रह से अपना लगाव महसूस करता था। उन्हीं दिनों मैंने काँग्रेस की पहली मीटिंग देखी थी। सुन्दर व्यक्तित्व के एक यूसुफ कुरेशी थे। वे बहुत अच्छा गाते थे। सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है।’ तब मेरी पहचान के दूसरे सत्याग्रही थे अवध्ा बिहारी पाण्डेय, जी पास के सुलगनीपुर गाँव के थे। पाण्डेय जी जाने-माने काँग्रेसी नेता थे। पहली बार गाँध्ाी जी का नाम मैंने 1940 में ही सुना होगा। हो सकता है, उससे पहले भी सुना हो। गाँध्ाी जी को देख नहीं पाया। उनके बारे में उत्सुकता बहुत थी। वे 1948 में जब बिहार जाने वाले थे तो उनके दर्शन के लिए मैं पटना जाने को तैयार था। उसी समय गाँध्ाी जी की हत्या हो गइ

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