बात 1975 की है जब हमारे स्कूल के दिन थे और मैं पहली बार राजनीतिक नारों से रुबरू हुआ था, जे.पी. का आन्दोलन शुरू हो चुका था और गली-गली युवाओं की टोली आपात्काल और इन्दिरा गाँधी के खिलाफ नारे लगा रही थी। सरकारी अधिकारी रहे हमारे पिता के दफ्तर से लेकर घर की बैठक में सिर्फ राजनीतिक चर्चाएँ होती थीं और बार-बार चन्द्रशेखर जी का नाम आता था। बलिया जिले के निवासी होने के कारण एक स्वाभाविक-सा लगाव हम सबका था, मगर फिर भी मैं चन्द्रशेखर का सिर्फ नाम जानता था। बालमन नाम तो याद कर लेता है मगर व्यक्तित्व की गहराइयाँ नहीं नाप पाता, सो हम भी इस नाम से वाकिफ हो गए। फिर वर्षों बाद जब विश्वविद्यालय का जीवन शुरू हुआ तब मंडल और कमंडल के राजनीतिक संघर्ष का दौर था। उलझा युवा मन इन मसलों को समझने की कोशिश में लगातार लगा था और फिर अखबारों और पत्रिकाओं के जरिये संसद में चन्द्रशेखर जी के भाषणों को पढ़ा, अब जब सक्रिय सामाजिक और पत्रकारीय जीवन के 20 वर्ष पूरे होने को हैं तब ये एहसास होता है कि उन भाषणों ने मेरे अन्दर एक नई सोच और समझ को विकसित करने में कितना बड़ा योगदान दिया है। चन्द्रशेखर जी से पहली इत्मिनानी मुलाकात सन् 2003 में लखनऊ में हुयी। गोरखपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफेसर विनोद सोलंकी जी की बिटिया पारुल की शादी थी और लखनऊ में होने के नाते व्यवस्थाओं का एक बड़ा जिम्मा मेरे पास था। चन्द्रशेखर जी से उनके पारिवारिक रिश्ते थे, तो जब समाचार मिला कि चन्द्रशेखर जी शादी में आयेंगे तब मेरी ड्यूटी लगायी गयी। हम शाम के समारोह में उनके आने का इंतज़ार कर रहे थे मगर वे दोपहर में आये। जब मैं उन्हें लेने सोसायटी के गेट पर पहुँचा तो उन्होंने अपने सुरक्षाकर्मियों सहित पूरे लाव लश्कर को वहीं यह कह कर रोक दिया कि मैं अपने घर जा रहा हँ वहाँ आपकी कोई जरूरत नहीं। चन्द्रशेखर जी के व्यक्तित्व से चमत्कृत मैं उनके साथ चला। कमरे तक आते-आते वे मेरा पूरा परिचय जान चुके थे और फिर वे बिल्कुल आराम से जमीन पर बिछे गद्दे पर बैठ गए और पारुल को तोहफे देने के बाद सभी महिलाओं से ‘‘गाली’’ (संस्कार गीत) सुनाने की फरमाइश की। मैं जिस चन्द्रशेखर की कल्पना कर रहा था उसके बिल्कुल उलट एक नितान्त घरेलू व्यक्ति मेरे साथ बैठा था। एक पूर्व प्रधानमंत्री, एक महान सांसद, क्रांति का प्रतीक अपने पूरे आवरण को घर के बाहर कितनी सहजता के साथ छोड़ आया था। आज के राजनेताओं से इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती। मैंने सहज भाव से पूछा कि आप शाम को कब आयेंगे? वे बोले शाम के कार्यक्रम में मेरे रहने से बाधा हो सकती है, आज की शाम तो दूल्हा-दुल्हन की है, मैं उसमें अडंगा नहीं बनूँगा। फिर मुझसे बोले, तुम तो पत्रकार हो? राजनीति भी समझते हो, बताओ अगले चुनावों में मुख्य मुद्दा क्या होगा? मैंने झट से उत्तर दिया ‘‘भ्रष्टाचार’’। वे धीरे से हँसे और बोले ‘‘पागल हो? इस देश में भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं बनता, यहाँ दूसरे का भ्रष्टाचार मुद्दा बनता है। कितने सही थे चन्द्रशेखर, ये आज हम सब बखूबी समझ सकते हैं। चन्द्रशेखर महज एक राजनेता नहीं थे। वे हिन्दुस्तान की नब्ज पहचानते थे, इब्राहिम पट्टी के गाँव से निकल कर वे छात्र राजनीति में आये, युवा मन टटोला, फिर केरल से कन्याकुमारी तक की पदयात्रा में देश की भावना को समझा और फिर यदि उनके व्यक्तित्व में विचारों को लेकर एक दृढ़ता का आना स्वाभाविक था। वे चाहते तो उन्हें कोई भी पद कभी भी मिल सकता था मगर उनकी लालसा पद नहीं था अन्यथा वे काँग्रेस में रहते हुए पार्टी के अन्दर अपने सख्त बयानों की वजह से युवा तुर्क की पदवी नहीं पा सकते थे। एक अर्थशास्त्री के रूप में चन्द्रशेखर जी अद्भुत थे। कुछ लोग उन्हें फेबियानिस्ट इकोनोमिस्ट भी कहते हैं, मगर मेरा मानना है कि उनका अर्थशास्त्र कभी प्रचलित सैद्धांतिक खांचे से नहीं बल्कि देश की हकीकत से संचालित होता था। बैंकों के राष्ट्रीयकरण का श्रेय भले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी को दिया जाता है मगर हकीकत में यह चन्द्रशेखर ही थे जिन्होंने संसद में इस बिल को मजबूती से लाने में भूमिका अदा की थी, वे तब संसद में काँग्रेस पार्टी के महासचिव की जिम्मेदारी सम्भाल रहे थे। प्रोफेसर एस.केगोयल ने यह बिल प्राईवेट मेंबर बिल के तौर पर तैयार किया था मगर लम्बी बातचीत के बाद चन्द्रशेखर ने इस पर एक मजबूत प्रस्तुति बनायी और इसे पार्टी के तरफ से पेश करने का निर्णय लिया गया। दृढ़ता, स्पष्टता और व्यापकता का अर्थ ही चन्द्रशेखर ध् 245 246 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर फरवरी, 1969 में निजलिंगप्पा काँग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे। फरीदाबाद में पार्टी की बैठक हुयी जहाँ निजलिंगप्पा ने युवा तुर्क के नाम से विख्यात हो चुकी तिकड़ी और इन्दिरा गाँधी की आलोचना की। तब काँग्रेस के भीतर चन्द्रशेखर के नेतृत्व में ‘‘काँग्रेस फोरम फाॅर सोशलिस्ट एक्शन’’ (जो कि एक अनौपचारिक समूह था) का सम्मेलन भी इसी के साथ किया। अपने अध्यक्षीय भाषण में चन्द्रशेखर जी ने भारत की आर्थिक परिदृश्य का एक सम्यक विशेषण किया और आर्थिक सुधारों के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की रूपरेखा रखी। यह प्रस्तुति इतनी सटीक और धारदार थी कि निजलिंगप्पा को उसे स्वीकार करना पड़ा। तय हुआ कि इसे और बेहतर बना कर बंगलूरू में होने वाली बैठक में रखा जाए। यह नोट चन्द्रशेखर, मोहन धरिया, कृष्णा कान्त, आर.के. सिन्हा और चन्द्रजीत यादव के नाम से इन्दिरा गाँधी को भेजा गया। 19 जुलाई, 1969 को इस नोट में लिखी सभी बातों को कैबिनेट द्वारा स्वीकृत करके घोषणा कर दी गयी। देश के सामने एक वैकल्पिक आर्थिक नीति लाने का श्रेय चन्द्रशेखर जी को ही जाता है जिसके आधार पर अपने पहले कार्यकाल में इन्दिरा गाँधी ने समाजवादी नीतियाँ बनायीं। पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री रहते हुए चन्द्रशेखर जी ने अपना आर्थिक सलाहकार भले ही बनाया मगर पी. व्ही. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में उनके वित्तमंत्री के रूप में किये गए कार्यों की चन्द्रशेखर जी ने सदैव आलोचना की। तत्कालीन उद्योगमंत्री अजीत सिंह के द्वारा लाईे गई नयी औद्योगिक नीति का भी उन्होंने इस बिनाह पर प्रबल विरोध किया कि इसमें निजी विदेशी निवेश पर लगी रोक को हटाया जा रहा है जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं। उन्होंने बहुत से आंकड़े इकट्ठा किये और उसे मीडिया के माध्यम से वितरित किया। 1991 में जब काँग्रेस की सरकार ने ढांचागत बदलावों का प्रस्ताव दिया जिसमें योजना की भूमिका कम करके रेगुलेटरी ढांचे को प्रमुखता दी जा रही थी तब भी चन्द्रशेखर ने इसकी न सिर्फ आलोचना की बल्कि उसके खिलाफ अभियान भी चलाया। इस दौरान संकलित सूचनायें बाद में ‘‘पोलिटिकल इकोनोमी आॅफ इण्डिया’’ के नाम से 1992 में प्रकाशित भी हुई। अपने समय-काल में चन्द्रशेखर ने समाजवादी सिद्धांतों को ही अपनी राजनीति का आधार बनाये रखा। वे काँग्रेस के बंटवारे के समय इन्दिरा के साथ इन्हीं मूल्यों के तहत गए थे। उनका मानना था कि भारत जैसे देश, जहाँ की दो-तिहाई आबादी खेती पर निर्भर हैं, वहाँ उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों की जरूरत नहीं। वैश्वीकरण के भारतीय समाज पर होने वाले असर को उन्होंने पहचान लिया था और अपने जीवन-पर्यन्त वे इसका विरोध करते रहे। सामाजिक राजनीति की दृष्टि से चन्द्रशेखर जी कितने सचेत थे, इसके कई उदाहरण मिलते हैं। जय प्रकाश नारायण को जेल में डालने के इन्दिरा गाँधी के फैसले की सार्वजनिक आलोचना करके वे रातोंरात लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा के प्रतीक बन गए। हालांकि इन्दिरा ने उन्हें भी जेल में डाल दिया मगर जनता पार्टी के गठन के समय वे ही अध्यक्ष पद के लिए सबसे निर्विवाद नाम थे। दूसरा उदाहरण इन्दिरा सरकार द्वारा किये गए आपरेशन ब्लू स्टार का विरोध करना था। चन्द्रशेखर जी स्वर्ण मन्दिर में सेना भेजने के सख्त खिलाफ थे। उस वक्त लगभग पूरा विपक्ष भी इन्दिरा के कदम की सराहना कर रहा था मगर चन्द्रशेखर दुःखी थे। वे स्वयं लिखते हैं कि ‘‘जब मैंने अप्रेशन ब्लू स्टार का विरोध किया तब पूरे देश में मेरा विरोध हुआ। मेरे विरुद्ध सम्पादकीय लिखे गए। लगता था समूचा देश मेरे खिलाफ है। राजनीतिक नेता मेरे पीछे पड़ गए जिसमें मेरे अपनी पार्टी के नेता भी शामिल थे।’’ बाद में जब इन्दिरा गाँधी की हत्या कर दी गई और देश में सिक्ख विरोधी दंगे भड़क गए तब भी चन्द्रशेखर पूरी निडरता के साथ मधु दंडवते, जार्ज फर्नान्डिस, स्वामी अग्निवेश और सुरेन्द्र मोहन के साथ दंगा पीडि़त इलाकों में घूमते रहे। बिना इस बात की परवाह किये हुए कि इससे उनकी चुनावी संभावनाओं पर कितना और कैसा असर पड़ेगा। 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी थी। 17 दिसंबर, 1992 को नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास मत पर संसद में बोलते हुए चन्द्रशेखर ने कहा ‘‘ये जो गिराई गयी है वह महज एक मस्जिद नहीं थी, यह भारत की गौरवशाली परंपरा थी, भारत का इतिहास था। भारत का सह-अस्तित्व था और भारत की मानवीय परंपरा थी जिसे हवाओं में उड़ा दिया गया। भारत के करोड़ों नागरिकों का हृदय टूटा है जिसे जोड़ा नहीं जा सकेगा। भारत के 15 करोड़ लोगों का विश्वास टूटा है। ये 15 करोड़ भारतीय मुसलमान अरब दृढ़ता, स्पष्टता और व्यापकता का अर्थ ही चन्द्रशेखर ध् 247 248 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर या दूसरे देशों से नहीं आये हैं, ये हमारे भाई हैं। क्या भारत की सरकार उन्हें धकेल कर या दबा कर अरब सागर में डूबना चाहती है? .... जब यह जाना जायेगा कि एक पूजा-स्थल या शायद पूजा-स्थल न भी हो, को इस देश में महज राजनीतिक कारणों से गिरा दिया गया है तो पूरी दुनिया में कोई आपकी तारीफ नहीं करेगा बल्कि आलोचना करेगा क्योंकि ये हमारी सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा था इसे आपने नुकसान पहुँचाया है। चन्द्रशेखर भारत की विरासत को समझते थे और ये मानते थे कि इस साझी विरासत को सम्भालना इस देश के हर व्यक्ति का दायित्व है। बतौर प्रधानमंत्री, अपने अल्प कार्यकाल में वे अयोध्या मामले के सभी पक्षों को एक साथ बिठाने में कामयाब हो गए थे और यदि उन्हें समय मिलता तो शायद इस माामले का शांतिपूर्ण हल निकल चुका होता। अलग-अलग अवसरों पर लोकसभा और राज्यसभा में दिए गए उनके भाषणों में एक राष्ट्र-निर्माता की चिन्ता दिखाई देती है। वे भारत की संसदीय लोकतंत्र के अप्रतिम स्तम्भ हैं। उनकी दृष्टि कितनी व्यापक थी इसका उदाहरण उनके संसदीय क्षेत्र की एक घटना से मिलता है। प्रधानमंत्रित्व-काल के बाद हुए एक चुनाव के दौरान बलिया में एक व्यक्ति ने उनसे सीधी शिकायत कर दी कि आपने प्रधानमंत्री रहते बलिया को कुछ नहीं मिला। उन्होंने अपनी गहरी आँखों से देखते हुए जवाब दिया...... ‘‘तब मैं देश का प्रधानमंत्री था या सिर्फ बलिया का?’’ जनता पार्टी की अल्पकालिक सरकार के पतन के बाद चन्द्रशेखर जी ने पदयात्रा करने का विचार बनाया और कन्याकुमारी से दिल्ली तक की पदयात्रा की। वे खुद मानते थे कि इस यात्रा ने उनके भीतर बहुत बदलाव किये और बतौर राजनेता भारत को समझने में उनकी बड़ी मदद की। इस यात्रा के दौरान अनिल नरूला और कमल मित्र चिनाॅय ने एक दस्तावेज बनाया जिसका नाम रखा गया ‘‘इंडिया-आवर इंडिया’’ और पूरी यात्रा के दौरान यह पर्चें के रूप में बांटा गया। चन्द्रशेखर- महज पाँच शब्दों का यह युग्म अपने आप में कितने विराट व्यक्तित्व का बोध बन गया है जिसे हम जैसे महज महसूस ही कर सकते हैं। देश के एक छोटे से जिले बलिया के एक छोटे से गाँव इब्राहिमपट्टी से देश के प्रधानमन्त्री आवास 7-रेसकोर्स तक की यात्रा के बीच के पड़ाव इस व्यक्तित्व की विराटता को हर दिन नया आयाम देते रहे। और आज जब चन्द्रशेखर जी हमारे बीच नहीं हैं फिर भी उनके हर भाषण का हर शब्द देश को चिन्तन की नयी दिशा देने के लिए मुकम्मल है। बिना झुके, बिना समझौते के, खरी-खरी सीधी बात करने वाला हाड़-मांस का एक इन्सान कैसे छह दशकों तक एक देश की राजनीति के लिए अपरिहार्य हो जाता है, चन्द्रशेखर उसका उदाहरण हैं। (लेखक लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र लोकमत और अवधनामा के संपादक रहे हैं)