राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर जी के व्यक्तित्व से मेरा साक्षात्कार वर्ष 1984 में लालगंज, आजमगढ़ में हुआ। तत्कालीन लोकसभा चुनाव के दौरान निवर्तमान सांसद (स्व. श्री रामध्ान जी) के समर्थन में वहाँ एक जनसभा का आयोजन हुआ था। हम लोग उन्हें सुनने के लिये सभा में पहुँचे थे। चुनाव के कुछ ही दिन पूर्व तत्कालीन प्रध्ाानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी के दो अंगरक्षकों द्वारा जो संयोग से सिक्ख थे, उनकी हत्या कर दी गई थी तथा पूरे देश में कई जगह सिक्ख समाज के लोगों के घरों व दुकानों पर कुछ लोगों द्वारा तोड़फोड़ एवं लूटपाट की गई थी। कुछ लोगों द्वारा सिक्ख समुदाय के प्रति एक रोष की भावना बनाये रखने का महौल बनाया जा रहा था। उस समय श्री चन्द्रशेखर जी ने जो भाषण दिया, उसके अंश निम्नवत् हैं- ‘‘हमारे देश में 02 चितपावन मराठी ब्राह्मणों ने महात्मा गाँध्ाी जी की हत्या कर दी थी तो क्या सारे मराठी ब्राह्मण इस देश से बाहर कर दिये गये थे? अगर दो सिरफिरे नवजवानों ने श्रीमती इन्दिरा गाँध्ाी की हत्या कर दी तो क्या सभी सिक्ख इस देश से बाहर कर दिये जायेंगे? क्या स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास से शहीदे आजम भगत सिंह के योगदान को मिटाया जा सकता है? क्या यह देश स्व. श्री सुखदेव सिंह द्वारा भारतमाता की आजादी के लिये हँसते-हँसते फांसी के फन्दे को चूम लेने की घटना को भूल सकता है? हिन्दू ध्ार्म की रक्षा के लिये गुरू गोविन्द सिंह के 04 बेटों को जिन्दा दीवारों में चुन दिया गया था, क्या भारत के इतिहास के इन पन्नों को फाड़ दिया जा सकता है’’? देश की साझा संस्कृति, उसकी पारम्परिक सोच, भिन्न-भिन्न जाति, समुदायों के बीच के मजबूत रिश्ते एवं उसमें अन्तर्निहित मानव मूल्य की रक्षा के लिये चन्द्रशेखर जी ने उस समय चल रही राजनीतिक ध्ाारा के विपरीत जाकर जो भाषण दिया, उसका मेरे अन्तःकरण पर गहरा प्रभाव पड़ा। भारत की संस्कृति उसकी विरासत एवं उसके नैतिक, सामाजिक मूल्यों को समझने की एक अजीब सी उत्कण्ठा मन में पैदा हुई। उस समय मैं इण्टर में विज्ञान वर्ग का छात्र था, मेरी उम्र 20 वर्ष के लगभग थी। चन्द्रशेखर जी के सानिध्य का दूसरा अवसर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में 1987 में तत्कालीन छात्रसंघ के अध्यक्ष कमलेश तिवारी के आमंत्रण पर छात्रसंघ का उद्घाटन करने के लिये आये हुये मुख्य अतिथि के रूप में प्राप्त हुआ। उद्घाटन से पूर्व मंच पर संचालक महोदय द्वारा एक व्यक्ति को गाना गाने के लिए बुलाया गया। चन्द्रशेखर जी मंच पर आसीन थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के असंख्य छात्र, छात्रायें, गणमान्य व्यक्ति एवं सम्मानित शिक्षक सीनेट हाल में उपस्थित थे। मैं भी अपने के.पी. यू.सीछात्रावास के कई साथियों के साथ सीनेट हाल में चन्द्रशेखर जी को सुनने के लिए मौजूद था। उन्होंने जिस तरह अपने भाषण की शुरुआत की, उन शब्दों को मैं हूबहू उद्धृत करना चाहता हूँ- ‘‘यह वह देश है जहाँ एक द्रोपदी के चीरहरण पर महाभारत हो गया था लेकिन आज हजरों, लाखों द्रोपदियाँ रोज नंगी की जाती हैं लेकिन कहीं कोई महाभारत नहीं होता........।’’ यह वह देश है जहाँ चांदनी रात्रि में गोपियाँ कृष्ण के साथ रास लीला रचाया करती थी लेकिन उनके मां, बाप उनकी इज्जत के बारे में महफूज रहा करते थे। अध्यक्ष जी मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आपकी अध्यक्षता में इस विश्वविद्यालय की लड़कियाँ अपनी इज्जत को महफूज नहीं पा रही हैं। एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डायमण्ड जुबिली छात्रावास के छात्रों द्वारा चन्द्रशेखर जी को एक सेमिनार के लिये बुलाया गया था जिसका विषय था ‘‘वर्तमान परिवेश में युवाओं की भूमिका’’। सभी छात्रावासों के लोग आमंत्रित किये गये थे। हम लोग प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दे रहे थे तथा बड़ी उत्सुकता के साथ चन्द्रशेखर जी को सुनने के लिये डायमण्ड जुबिली कालेज के छात्रावास पहुँचे। चन्द्रशेखर जी ने अपने एक लम्बे भाषण में भारतीय संस्कृति, इसकी गौरवशाली ऐतिहासिक परम्पराओं, इसके दर्शन-विचार तथा मानव जाति के प्रति रखी जाने वाली गहरी संवेदनशीलता के संबंध में विस्तृत रूप से चर्चा करते हुये 1991 में रूस के विखण्डन का उदाहरण दिया। व्यक्ति की पहचान उसके नैतिक मूल्य पर ही टिके होने का उल्लेख करते हुये कहा चन्द्रशेखर: शाश्वत मूल्यों के संरक्षक ध् 251 252 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर था कि पश्चिम में एक विचारध्ाारा आई थी, समाज को बदल दी, आदमी बदल जायेगा। लेकिन आज 70 साल बाद वह विचारध्ाारा टूट गई। हम लोग उस समय आई.ए.एस. मेन्स में दर्शन शास्त्र विषय से तैयारी कर रहे थे जिसमें गाँध्ाी जी एवं माक्र्स के विचारों की तुलना के संबंध्ा में सभी लोग बहुत मोटी-मोटी किताबें भिन्न-भिन्न लेखकों की पढ़ रहे थे लेकिन गाँध्ाी जी एवं माक्र्स के विचारों की ऐसी तुलना किसी भी लेखक के किताब में नही मिली थी। इससे हम लोगों को बड़ा ज्ञान मिला था और चन्द्रशेखर जी ने मानव समाज को बनाने के लिये उसमें रहने वाले व्यक्तियों को नैतिक मूल्यों का पालन करने एवं अपने आचरण की शुचिता को बनाये रखने की जो मार्मिक एवं संवेदनशील बात कही थी, उसने सभी छात्रों के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला था। उस समय में मण्डल कमीशन को लागू किये जाने को लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र कई विचारों में बंटे हुए थे तथा अलग-अलग ढंग से समर्थन एवं विरोध्ा में अपना आन्दोलन चला रहे थे। इस विषय पर चन्द्रशेखर जी ने बड़ी बेबाक टिप्पणी की थी। और तुलसीदास के रामचरित मानस से एक उदाहरण देकर समाज एवं राज्य का नेतृत्व करने वालों का मार्गदर्शन किया था...... ‘‘मुखिया मुख सो चाहिये, खान पान को एक पालहि पोषहि सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।। केवल मंडल कमीशन पर नहीं, सभी राष्ट्रीय मसलों पर बेवाक शैली में अपनी बात, अपने विचार रखने को लेकर उनकी अलग पहचान थी। वह जीवन पर्यन्त भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों को संरक्षित रखने और उसके प्रति आने वाली पीढ़ी में भाव भरने के लिए तत्पर रहते थे। ऐसी शख्सियत को आने वाली पीढि़याँ हमेशा एक राष्ट्रपुरुष एवं शिखर पुरुष के रूप में याद करते हुये उनके द्वारा बनाये गये मार्ग का अनुसरण करती रहेंगी। (लेखक भदीड़ मऊ के निवासी हैं)