जो कहते थे, उसे जीते थे चन्द्रशेखर

प्रभाशंकर पाण्डेय  


प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का वह सम्मेलन मुम्बई में हुआ था। वहाँ पर चन्द्रशेखर जी को अब अपनी बात रखने का अवसर मिला तो उनके विचार सुन सभी स्तब्ध्ा रहे गए। पूरे सम्मेलन ने उनके विचारों का स्वीकार किया। आगे आने वाले सभी नेताओं ने अपने-अपने संबोध्ान में उनके विचारों की चर्चा की। और, इस चर्चा से मिली चन्द्रशेखर जी को एक राष्ट्रीय पहचान। यहाँ से चल पड़े वह समाजवाद के उस पथ पर। इस राह में उन्हें पद भी मिले पर ये पद उनके ऊपर कभी भारी नहीं दिखे। वह अपने आप में खुद पद थे। निःस्वार्थता का पुरस्कार दिया और उन्हें मिला वह प्रध्ाानमंत्री का पद जो उनसे पहले किसी को पहली बार सीध्ो-सीध्ो नहीं मिला। चन्द्रशेखर जी केवल विचारों से नहीं, व्यवहार में भी समाजवादी थे। उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता था। वह केवल आश्वासन नहीं देते थे, आश्वासनों को कार्य में परिणित करके उसे अमली जामा पहनाते थे। उनकी सबसे बड़ी पूँजी यही थी। इस देश के लोग उनके इस चरित्र का विश्वास करते थे, उन्हें अपना नेता मानते थे। उन्होंने भी पूरे देश को अपना माना। उसी के लिए जिए और उसी के लिए मरे। इस समर्पण के दौरान भी अपनी माटी से वह सदैव जुड़े रहे। वह अपने गाँव के भी कार्यक्रमों में भी अपनी सहभागिता सुनिश्चित करते थे। यहाँ की बुनियादी जरूरतों के प्रति सतर्क रहते थे। यहाँ स्थापित स्कूल, कालेज और अस्पताल इसके जीवंत प्रमाण हैं। राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर जी का इस बात पर विशेष जोर रहा कि राजनीतिक दलों ओर नेताओं को देश की समृद्धि के लिए प्रयास करना चाहिए। वह मानते थे कि आर्थिक असमानता की वजह से हमारे समाज का चेहरा विद्रूप हो रहा है। इसमें एक ओर आवश्यकता से अध्ािक समृद्धि है तो दूसरी ओर दूर-दूर तक केवल अभाव। इसका कुफल पूरा समाज भोगता है। जैसे हम एक हाथ से दूसरे हाथ को कष्ट पहुँचाएं तो दर्द तो अपने को ही होता है। इसलिए लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवश्यक है कि उसे समाजवादी लोकतंत्र बनाया जाए। इसे लेकर उन्होंने आगाह भी किया है कि अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ वर्षों में सामान्य लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा नहीं उठा सकी तो उसका भविष्य संकटापन्न हो जाएगा। आज के राजनीतिज्ञों को चन्द्रशेखर जी से सीख लेने की जरूरत है। अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इन विचारों पर चल कर हम देश व समाज को सही दिशा की ओर ले जा सकते हैं। (लेखक गोरखपुर विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष रहे हैं)

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