जून, 1944 में द्विजा जी से मेरा विवाह हुआ। मैं उस समय विवाह नहीं करना चाहता था। मैंने सुना कि मेरी शादी हो रही है। मैंने वहाँ विरोध्ा किया क्योंकि उस समय में बहुत कट्टर आर्यसमाजी था, लेकिन मेरा विरोध्ा माना नहीं गया। मेरे मन में विरोध्ा की भावना जरूर थी लेकिन पिताजी, चाचा या घर के लोगों का विरोध्ा में एक सीमा तक ही कर सकता था। मुझे याद है, मैं पालकी पर चढ़ कर शादी करने गया था। लाल कुर्ता और पीली ध्ाोती पहने हुए था। उन दिनों बरात दूसरे दिन भी ठहरती थी। शादी के अगले दिन मैंने कहा कि लाल कुर्ता और पीली ध्ाोती नहीं पहनूंगा। अपने बड़े भाई रामनगीना सिंह के साले वशिष्ठ नारायण से मैंने कहा कि अपना कोई सादा कपड़ा मुझे दे दें जिसे मैं पहन सकूं। मुझे याद है कि बरात में ही मैंने वैवाहिक लाल कुर्ता उतार दिया था और सादे कपड़े पहन लिए थे। मुझे तो काफी दिनों तक यह शादी भार स्वरूप लगी। गाँव में मेरे एक बड़े भाई थे-महेन्द्र नारायण सिंह। उनकी श्रीमती जी ने मुझे समझाया कि शादी कोई बुरी चीज नहीं है। वे विध्ावा थीं। मैं उनका बहुत आदर करता था। इसलिए उनका समझाना मुझे याद है आर्यसमाज के प्रभाव में मैं इन बातों से उदासीन था। मेरी श्रीमती जी पढ़ी-लिखी नहीं थीं। वैसे उनका परिवार मेरे परिवार से अच्छा और सम्पन्न था। बाद में बहुत-से लोग दाम्पत्य में मेरी अरुचि देख कर दूसरी शादी का सुझाव लेकर आए। उस समय दूसरी शादी करना कोई वर्जित नहीं था। कई लोगों ने परोक्ष रूप से सम्पर्क करने की कोशिश की। लेकिन उस समय मेरे मन में यह भाव था कि जिससे मैंने शादी की है, उस लड़की का तो कोई दोष नहीं है। जितना मैं भुगत रहा हूँ, उतना ही वे भुगत रही होंगी, मेरे मन में यह भाव जरूर बना रहता था। इसलिए मैंने दूसरी शादी का बहुत विरोध्ा किया। मेरी पत्नी बुरी नहीं थीं। वे बहुत अच्छी थीं। बाद में बहुत बीमार हो गई। उनके स्वभाव में गहरी करुणा थी। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि जिस तरह गरीब और दुःखी आदमी को देख कर मेरी माँ द्रवित हो जाती थी वैसे ही मेरी पत्नी भी भावुक हो उठती थीं। उनका मेरी माँ जैसा ही स्वभाव पत्नी को मिला था माँ जैसा स्वभाव ध् 281 282 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर था। जब यहाँ दिल्ली में एस.पी.जी. के घेरे में रहती थीं तब भी गाँव या पड़ोस से उनका रिश्ता बना रहता था। पड़ोस का साध्ाारण से साध्ाारण व्यक्ति अगर बीमार पड़ गया या उसके घर में कोई शोक हो गया तो वे जरूर जाती थीं। अभी कुछ ऐसी बातें याद आ रही हैं जिनसे उनके व्यक्तित्व की सरलता को समझा जा सकता है। वे भोंडसी जाती थीं। वहाँ मैं थोड़ी-बहुत खेती कराता हूँ। वहाँ वे खेत से उपजा हुआ कुछ गेहूँ गाड़ी में लाद कर दिल्ली ले जाती थी। मुझे जब यह बात मालूम हुई तो मैंने उनसे पूछा कि वहाँ से गेहूँ लाद कर दिल्ली क्यों ले आती हैं? वे बोलीं: जो गरीब हैं, उन्हें देती हूँ। इस पर मैंने उनसे कहा कि यहाँ से अनाज ले जाने में परेशानी होती होगी इसलिए मुझसे पैसा ले लीजिए और जितना जिसको देना हो खरीद कर दे दीजिए। उन्होंने उत्तर दिया: आपको शायद मालूम नहीं कि अपने पैदा किए हुए अन्न को देने से बरकत होती है। वे पहले पहल 1968 में दिल्ली आई। वह जमाना ऐसा था कि जो युवा सांसद थे, वे एक साथ अक्सर किसी न किसी के घर खाना खाने चले जाते थे। कभी-कभी मेरे घर भी अचानक लोग खाने के समय जुट जाते। मेरे घर मंे सिर्फ मेरी पत्नी थीं और एक नौकर था। सिर्फ तीन आदमियों का खाना बनता था। एक दिन मेरी पत्नी ने कहा, आप तो बहुत गड़बड़ करते हैं। मैंने पूछा- क्या गड़बड़ कर दी मैंने? वे बोली- पहले से आप बताते क्यों नहीं कि खाना खाने के लिए कई लोग आ रहे हैं? मैंने उत्तर दिया कि ठीक है, भर पेट भोजन नहीं मिलता लेकिन मिल तो जाता है। उन्हें यह भी समझाया कि ज्यादा खाने से आदमी को नुकसान होता है। आध्ाा पेट खाने से कोई नुकसान नहीं होता। इस पर उन्होंने भोजपुरी में कहा कि अपने चैके में आध्ाा पेट खिलाना बड़ा भारी पाप है। इसके बाद उन्होंने तय किया कि कोई खाए अथवा नहीं, लेकिन रोज 3-4 आदमियों का खाना चैके में अध्ािक बनेगा। वह परम्परा मेरे घर में आज भी चल रही है। कोई खाने के समय मेरे यहाँ पहुँच जाए तो उसके लिए मुझे अलग से खाना नहीं बनवाना पड़ता। दूसरों की सेवा के लिए वे हमेशा तैयार रहती थीं। कोई परिचित बीमार पड़े तो उसकी चिकित्सा के लिए वे तत्पर हो जाती थीं। बलिया के मेरे मित्र और काँग्रेसी नेता काशीनाथ मिश्र के गाॅल ब्लाडर में पथरी हो गयी थी। मैं दिल्ली में नहीं था। काशीनाथ जी को अचानक जोर का दर्द हुआ। वे उन्हें लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में गई और भर्ती कराया। आॅपरेशन हुआ। उनके घर भी खबर नहीं हो पाई थी। जब तक उनकी पत्नी अपने गाँव से आई नहीं, तब तक वे तीन दिन उनके बेड के पास बैठी रहीं। वहीं वे अपने कपड़े मंगा कर बदल लेती थीं। गाँव का कोई हरिजन भी आता था तो बिठा कर कहती थीं- पहले इसको खाना खिलाओ। वैसे वे हरिजन का छुआ खाती नहीं थीं। जब उनका निध्ान हुआ तो हम लोग उनकी तेरहवीं करने के लिए 10-12 दिन गाँव में रहे। गाँव वालों ने हमारे ही दरवाजे पर एक शोकसभा की। गाँव में एक पंडित जी हैं-धनंजय मिश्र। वे केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक थे। उन्होंने कहा कि साउथ एवलेन्यू (मेरा दिल्ली आवास) से अब हम लोगों का संबंध्ा टूट गया। यही एक थीं जो गाँव के गरीब से गरीब और ध्ानी से ध्ानी आदमी की खबर एक ही साथ रखती थीं। किसके घर बच्चा होने वाला है? कौन बीमार है? कौन नहीं रहा?- ये सारी खबरें वे पहले मुझे देती थीं। कहती थीं। क्या इस घटना का आपको पता है? कभी-कभी वे मुझ पर गुस्सा भी करती थीं। उनकी शिकायत रही कि मैंने बेटों के लिए ध्ान एकत्र नहीं किया। मैं उसे टाल जाता। जब अध्ािक कुपित होतीं तो मैं उन्हें समझाता और वे मान जातीं। बाद में मुझसे कहतीं कि मैं आपसे झगड़ती हूँ लेकिन क्षणिक तौर पर। मुझे कुछ लोगों पर तरस आता है जो ऐसा मान बैठे हैं कि मेरा-उनका संबंध्ा कटुतापूर्ण रहा। आज जब याद करता हूँ तो ऐसा लगता है कि मैंने एक सच्चा सहयोगी और विश्वसनीय मित्र खो दिया। वह अभाव मेरे मन में उदासी के क्षणों मे टीसता रहता है, विशेषकर जब निकट के लोग ही भ्रमवश अपनी ध्ाारणा उजाकर करते रहते हैं। क्या असर पड़ता है मुझ पर हम लोगों की बातों का। इसलिए व्यक्तिगत संबंध्ाों के बारे में मौन रह कर मैं सब कुछ सहन करना ही श्रेयस्कर समझता हूँ।