आम राय है कि अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। स्पष्ट और बेवाक राय रखने वाले लोग भी ऐसी स्थिति आने पर चुप रहना श्रेष्ठ समझते हैं। खासतौर से सियासी दुनिया में। मामला वोट के व्यापक नुकसान का हो या भीड़ के खिलाफ का तो बड़े- बड़े दिग्गज भी चुप रहने को ही सच मान लेते हैं। लेकिन, अध्यक्ष जी यानी पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ऐसे राजपुरुषों में नहीं थे। उन्हें सच को लेकर किसी तरह का समझौता स्वीकार नहीं था। वह हर हाल में सच बोलते थे, उसके लिए जूझते थे, भीड़ के साथ भी, भीड़ के खिलाफ भी। अपनी इस प्रवृत्ति की वजह से उन्हें कई बार राजनीति में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा, जेल जाना पड़ा। कबीलों के असरदार नेताओं की नाराजगी झेलनी पड़ी लेकिन अध्यक्ष जी तो थे अध्यक्ष जी। वह अपने चन्द्रशेखर नाम के अनुरूप नुकसान के इस गरल को पीते रहे और अनवरत चलते रहे। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का आईएएस, आईपीएस बनने का जगजाहिर रास्ता छोड़ कर आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश नारायण के विचारों पर आधारित सामाजिक परिवर्तन के रास्ते पर। इसलिए मन कहता है कि जीवनपर्यंत युवा तुर्क रहे चन्द्रशेखर को अध्यक्ष जी नहीं, अद्वितीय राष्ट्रपुरुष लिखूं, अद्वितीय राष्ट्रपुरुष कहूँ लेकिन आदत है अध्यक्ष जी कहने की, इसलिए अध्यक्ष जी कह रहा हूँ, अध्यक्ष जी लिख रहा हूँ।
मेरे कई मित्र कहते हैं कि अध्यक्ष जी ने मुझे अपने 1977 के कार्यकाल में जनता पार्टी, गाजीपुर का जिलाध्यक्ष का दायित्व सौंपा था, इसी वजह से मैं उन्हें अद्वितीय राष्ट्रपुरुष मानता हूँ या कहता हूँ। हो सकता है, मित्रों का यह आंकलन कुछ हद तक सही भी हो, लेकिन केवल यही सच नहीं है। सच यह है कि जब मैं सार्वजनिक जीवन के प्रथम चरण में था तो अध्यक्ष जी सियासी दुनिया के बड़े नाम थे। वह देश में समाजवादी नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। वह कांगे्रस पार्टी की सर्वशक्तिमान श्रीमती इन्दिरा गाँधी की मर्जी के विपरीत काँग्रेस कार्यसमिति का चुनाव जीत चुके थे। उनके नाम के साथ युवा तुर्क का संबोधन चिपक चुका था। वह देश के बड़े छात्र और युवा नेताओं के दिल में कष्ट-काल में काम आने वाले संरक्षक के तौर पर जगह बना चुके थे। उस वक्त की नई पीढ़ी में उनकी तरह बोलने, उनकी तरह आँख तरेरने और दाढ़ी रखने का चलन फैशन का रूप ग्रहण कर चुका था।
इस दौरान राज्यसभा का चुनाव घोषित हो गया। 1974 के राज्यसभा चुनाव में के.के. बिड़ला भी प्रत्याशी थे। उनकी प्रत्याशिता के खिलाफ चले आन्दोलन में समाजवादी युवजन सभा के कार्यकर्ता के रूप में मैं लखनऊ में गिरफ्तार हो गया। मैं, उस समय हिन्दू डिग्री कालेज जमानियाँ में बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। इसलिए परीक्षा देने के लिए मुझे लखनऊ से गाजीपुर जेल भेजा गया जहाँ चन्द्रशेखर जी के चाहने वालों के व्यवहार ने समाजवादी योद्धा राजनारायण को लोकबंधु लिखने व मानने वाले धीरेंद्र नाथ श्रीवास्तव के दिल में अध्यक्ष जी यानी चन्द्रशेखर जी की भी एक ऐसी मूर्ति स्थापित कर दी जो विपरीत परिस्थितियो में भी हटी नहीं।
इस दौरान देश में- ‘लोकतंत्र की खुली चुनौती, नेहरू की बेटी इकलौती’ का नारा आम होने लगा था। काँग्रेस में देवकांत बरुआ की संस्कृति प्रभावी थी। और, अध्यक्ष जी, श्रीमती इन्दिरा गाँधी को यह राय सार्वजनिक रूप से देने लगे थे कि उन्हें जयप्रकाश जी से बात करनी चाहिए। जयप्रकाश जी संत हैं। सत्ता जब संतों से टकराती हे तो टूट जाती है। अध्यक्ष जी ये वाक्य मुझे तब भी भाते थे और आज भी। मैं मानता हूँ कि इन्हीं वाक्याँ को जीने की कोशिश में अध्यक्ष जी को सत्ता के शीर्ष गलियारे से जेल की काली कोठरी में जाना पड़ा लेकिन उनकी राय में कोई परिवर्तन नहीन हुआ। इधर पुलिस ने बिरला कांड, रेवतीपुर कांड से बरी होने के बाद भी आपात्काल मेें मुझ पर यह आरोप लगाते हुए गाजीपुर जेल भेज दिया कि मैं दिलदार नगर रेलवे पार्क में लोगों को रेलवे लाइन उखाड़ने और डाकखाना फूंकने के लिए ललकार रहा था।
गाजीपुर जेल में दो तरह के आपात्काल के बंदी थे। एक वे लोग जो जेल में बंद बवंडर बाबा का गीत गाते थे, ‘मीसा हो चाहे फांसी, यह तो महासमर है- चिंता करें वह प्राणी, जिसको रहना यहाँ अमर है।’ ये लोग यह गीत गाते हुए जेल में भी आपात्काल और काँग्रेस की ऐसी तैसी करते रहते थे। दूसरे वह जो सैय्यद बाबा की मजार पर रोज मन्नत करते देखे जाते थे कि किसी तरह जमानत हो जाए या रिहा होने का कोई रास्ता निकल जाए। इन्हीं दो तरह के लोगों में एक मैं भी था जो जिस मस्ती से गीत पढ़ता था, उसी मस्ती से जमानत के लिए सैय्यद बाबा के मजार पर चढ़ने वाले मुर्गे को प्रसाद समझ ग्रहण कर लेता था। आपात्काल की इस कठिन घड़ी में भी मुझे अध्यक्ष जी के जमात वाले लोगों का समर्थन हासिल था। उनके व्यक्तित्व को लेकर मैंने गाजीपुर जेल में एक कविता लिखी-