समाजवाद को समझने के दृष्टिकोण के बारे में मेरी मान्यताएँ बहुत कुछ बदली हैं। मैंने जिस युग में राजनीति में प्रवेश किया था, उस समय मेरी मान्यताएं कुछ दूसरी थीं, जिसको इन्होंने समाजवादी मान्यताओं के रूप में परखा है, कहा है। धीरे- धीरे राजनीति की उथल-पुथल ने और जीवन की अनुभूतियों ने हमें बहुत कुछ सोचने को विवश किया और आज जो मैं कहने जा रहा हूँ उसमें कुछ लोगों को शायद अटपटा लगे, क्योंकि मुझे यह स्वीकार करने में जरा भी संकोच नहीं कि महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व को हम समाजवादियों ने शायद उस रूप में नहीं समझा था जिस रूप में समझने की आवश्यकता थी। उसी से प्रेरणा पाए हुए राजेन्द्र बाबू के व्यक्तित्व से हम सब प्रभावित थे, लेकिन हम समझते थे कि समाज को परिवर्तन करने की दिशा में एक नया भारत बनाने की ओर उनका दृष्टिकोण बहुत हद तक सहायक नही होगा। प्रगतिशीलता का एक ऐसा बवंडर भारत में ही नहीं सारी दुनिया में आया था कि जिसमें हम अपने अतीत की उपलब्धियों को भुला करके एक नया भविष्य बनाना चाहते थे। यदि मैं कहूँ कि समाजवादियों में बहुत से ऐसे थे जो अतीत की उन प्रवृतियों को बनाए रख कर, नया भविष्य बनाने का सपना देखते थे लेकिन व्यावहारिक रूप में हम समाजवादियों ने समय- समय पर गाँधी जी की आलोचना की और मैं यहाँ तक कहूँगा कि राजेन्द्र बाबू जैसे महान व्यक्तित्व को समझने में भूल की।
जीवन में बहुत-सी बातें ऐसी हैं-धर्म के बारे में, आध्यात्म के बारे में। विज्ञान हमें एक सीमित समझ देता है। विज्ञान की दृष्टि में जो आज सच है, कल गलत साबित हो सकता है। हमारे ऋषियों ने, हमारे संतों ने, हमारे मनीषियों ने अपनी साधना के जरिए चिरंतन सत्य की खोज का प्रयास किया था और उसी ऋषि परंपरा के व्यक्ति थे राजेन्द्र बाबू, जिन्होंने समझा था जो आज सही है कल गलत न हो जाए। इसलिए धर्म के बारे में चाहे उनके विचार हों, चाहे अरविंद के विचार हों, चाहे महात्मा गाँधी के विचार हों, उन विचारों को जिन्हें हमने अंधविश्वास माना था, रूढि़वादिता मानी थी, उसमें बहुत कुछ ऐसा है जो आज हम और आप सोचने के लिए विवश हैं। दुनिया की इस अंधाधुंध दौड़ में, जिसमें सारा संसार लगा हुआ है, हम नहीं सोचते या समझते थे कि उस आंधी में भारत के पैर इतनी आसानी से उखड़ जाएंगे।
अभी हमारे मित्र ने कहा एक घोर संकट के समय से दुनिया गुजर रही है, यदि मैं कहूँ और कम से कम भारत में वह संकट तो ऐसा आ गया है कि मुझे ऐसा लगता है कि जो कुछ हमने आजादी की लडाई में पाया था, जो सपने हमने देखे थे, वह सपने सब सपने ही बन करके रह जाएंगे। हम कहीं मार्ग से भटक ना जाएं इसीलिए हमें पीछे मुड़ करके देखना होगा। गाँधी और राजेन्द्र बाबू जैसे लोगों के व्यक्तित्व को नई दृष्टि से समझना होगा। मैंने कोई सामथ्र्य के बारे में विशेष चर्चा नहीं की, केवल संकेत किया है। मैं तो एक राजनीतिक कार्यकर्ता हूँ। अपनी दृष्टि में जो कुछ मैंने समझा है, जो कुछ हमारे सामथ्र्य के बिंदु हैं उनकी ओर संकेत किया है, लेकिन उसमें गाँधी जी और राजेन्द्र बाबू के व्यक्तित्व में जो कुछ समाहित है उसके बारे में चर्चा की है।
भारत रत्न डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिद्धांतों के प्रति निष्ठा, सादगी के जीवन और भारतीय परंपरा के जीवंत प्रतीक के रूप में सदा याद किए जायेंगे। एक तरह, हमारी ऋषि परंपरा के वे अंतिम नेता थे। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत की शक्ति और सामथ्र्य के सूत्रों को परखा था, उन्हें आत्मसात किया था। वे सूत्र उनके व्यक्तित्व में ही पूँजीभूत थे। भारत के जनजीवन से उनका गहरा लगाव था। इसी कारण वे निष्प्राण भारत को एक नयी प्रेरणा, नई शक्ति देने में समर्थ थे। इस स्मृति व्याख्यानमाला की कड़ी में मुझे ‘‘भारत की सामथ्र्य’’ विषय पर बोलने के लिए कहा गया है। देश के सामने आज जो चुनौतियाँ मौजूद हैं, उनको देखते हुए राजेन्द्र बाबू की स्मृति में होने वाले व्याख्यान का यह सटीक विषय है। इस पर बोलने का मैं अधिकारी हूँ कि नहीं, यह तो नहीं जानता लेकिन इससे जुड़े कुछ पक्षों को मैं सामने रखने की कोशिश करूंगा।
अप्रैल 1962 में संसद सदस्य होकर मैं दिल्ली आया था। कुछ ही दिनों बाद राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी से मुक्त होकर पटना जा रहे थे। संसद के केंद्रीय कक्ष में उनकी विदाई के लिए समारोह था। हम एकत्रित थे। वह दृश्य मार्मिक था। मैंने देखा था और वह दृश्य मुझे आज भी याद है। अनेक लोगों की आँखों में आँसू थे। चारों तरफ एक ही स्वर सुनाई देता था कि आज युग बदल रहा है।
आज देश का बड़ा तबका एक ऐसी व्यवस्था को अंगीकार करने के लिए बेताब दिखता है, जिसका हमारी अपनी मान्यताओं और परंपराओं से सरोकार नहीं। हमारी संस्कृति, हमारे मूल्य और मानक, हमारी अपनी सोच इन सबको भुलाकर यह तबका उसी होड़ में शामिल होने के लिए लालायित है, यह चिंताजनक है।
हमारे चिंतन की मुख्य ध्ाारा में हमारी अतीत की उपलब्धियों को जैसे पूरी तरह भुला देना हमारे लिए सामान्य बात बन गई है। निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर दुनिया को जिस तरह एक विकृत संस्कृति का शिकार बनाने का प्रयास हो रहा है उससे स्वयं हमारी सामूहिक चेतना भ्रमित हो रही है। अपना सांस्कृतिक वैशिष्ट्य खोकर एक आकृतिविहीन भीड़ का अंग हो जाने का खतरा बन गया है। आज एक सवाल बार- बार उभर कर सामने आता है क्या भारत कोई निराला देश है? मेरा जवाब सकारात्मक है। हाँ, हिन्दुस्तान सचमुच दुनिया का एक निराला देश है। यह सवाल 1908 में गाँधी जी से पूछा गया था। तब उनका जो जवाब था वही आज मेरा जवाब है। ‘‘मैं मानता हूँ कि जो सभ्यता हिन्दुस्तान ने दिखाई, उस ऊंचाई तक दूसरा कोई नहीं पहुँच सका है। जो बीज हमारे पुरखों ने बोए हैं उनकी बराबरी कर सके, ऐसी कोई चीज हमारे देखने में नहीं आयी।’’ यही तबका सवाल उठा रहा है कि जब सारी दुनिया एक राह अपना रही है तो क्या हम उससे अलग रहकर अपने अस्तित्व को संभाले रह सकते हैं।
आजादी के दौरान भी यह सवाल उठा था। 1928 में गाँधी जी को लिखे एक पत्र में नेहरू जी ने लिखा था-
‘‘आपने कहीं कहा है कि भारत को पश्चिम से कुछ नहीं सीखना है। और भारत अपने पुराने दिनों में ही सभ्यता की एक संपूर्ण ऊंचाई पर पहुँच चुका था। मैं आपके इस विचार से असहमत हँू। मेरा मानना है कि अपनी औद्योगिक पहुँच के बल पर कुछ किन्तु और परंतु के साथ पश्चिम की औद्योगिक संस्कृति भारत को जीत लेगी। आपने औद्योगीकरण की कुछ बुराइयों को गिनाया है पर उसकी खूबियों पर ध्यान नहीं दिया है। इन बुराइयों को सब जानते हैं और उन्हें दूर करने की कोशिशें हो रही हैं। पश्चिम में विद्वान लोग मानते हैं कि ये बुराइयाँ औद्योकिगक व्यवस्था की नहीं, पूँजीवाद की हैं।’’
यह जवाहरलाल नेहरू के शब्द हैं। मैं नहीं जानता आज की आर्थिक नीतियाँ पूँजीवाद का ही विकृत रूप हैं या विकसित रूप हैं। आजादी के बाद देश में कुछ इसी प्रकार की सोच रही। इस विचारध्ाारा का आश्रय लेकर आज कुछ लोग ऐसा सोच रहे हैं कि भारत के अपने मानकों को छोड़कर हमें इस उधार की मान्यता को स्वीकार कर लेना चाहिए। ये भूल जाते हैं कि जैसे व्यक्तियों का व्यक्तित्व अलग होता है वैसे ही हर राष्ट्र का अपना एक व्यक्तित्व होता है और वह सचमुच विशिष्ट होता है। जो राष्ट्र अपने अतीत की उपलब्धियां, उसकी कल्याणकारी प्रवृत्तियों और मान्यताओं को भुला देता है वह न तो अपनी वर्तमान समस्याओं को समझ सकता है और न एक उज्ज्वल भविष्य की रचना में समर्थ हो सकता है। आज इसी प्रकार के चिंतन के शिकार होकर हम अपने लिए गंभीर समस्या पैदा करने पर उतारू जान पडते हैं।
सामथ्र्य क्या है? इसे समझने के प्रयास हर मोड़ पर किए जाते रहे हैं। चाहे सतयुग हो या आज का युग। अपनी अस्मिता में सामथ्र्य छिपा रहता है। खुद को पहचानने से शक्ति स्रोत का दर्शन हो जाता है। इसका तरीका क्या है? आधार क्या होगा? ये ऐतिहासिक समझ से संबंधित है। हमारा साहित्य इस पर प्रकाश डालता है। उनकी सही व्याख्या से खुद को समझने में सहायता मिल सकती है। सही व्याख्या पेंचीदा है। यह विवादों से भरी है।
इसी नासमझी के कारण पहले से बने संकट निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। हमारी समृद्धि और सामथ्र्य के आधार किसान और मजदूर निराश और हतप्रभ हैं। कल- कारखाने बंद हो रहे हैं। पूरी अर्थव्यवस्था संकट में है। युवा वर्ग में भी उत्साह नहीं, भविष्य में कोई आस्था नहीं, वे निराशा के शिकार हैं। शिक्षा व्यवस्था को भी बाजारू बनाया जा रहा है।
लोगों के सुख- दुख से जैसे राष्ट्र निर्माताओं का कोई वास्ता ही नहीं रहा। पूरे समाज में निराशा, अस्थिरता, असमंजस की एक अजीब सी मानसिकता दिखाई पड़ रही है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक बिखराव के लक्षण बहुत साफ- साफ दीखने लगे हैं।
आलम यह है कि सत्तारूढ़ वर्ग बरसों से अर्जित देश की संपत्ति को बेचने पर आमादा है। हमारे रोजगार और व्यवसाय, उनकी नीतियाँ जैसे कहीं और से संचालित हो रही हैं। बैंक चलाने से लेकर बिजली के लट्टू बनाने तक का काम दूसरे के हाथों में सौंप दिया जा रहा है। निर्यात घटता जा रहा है और आयात की स्थिति यह है कि जूते, मोजे से लेकर सिर की टोपी तक बाहर से आ रही है। अब तो हालत यह है कि यहाँ की उत्पादन व्यवस्था को नष्ट कर देने के लिए उद्योगों से लेकर खेती तक के उत्पादों को दूसरों के भरोसे छोड़ने का प्रयास हो रहा है। रोजगार और व्यवसाय के मौके कम से कम होते जा रहे हैं। समाज सांस्कृतिक हमले की भी चपेट में है।
देश की एक- एक संस्थाओं को जैसे एक योजना के तहत ध्वस्त किया जा रहा है। किसान की जोत घटती जा रही है और कृषि नीति में बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियों को बड़े- से- बड़े क्षेत्र बना लेने की छूट देने की बात चल रही है। विश्व व्यापार संगठन के कानून तेजी से थोपने के काम को ही सरकार अपनी कुशलता और सफलता मानने लगी है।
किसान अपने घर में रखा बीज भी अगले साल अपने खेत में बोना चाहे तो उसकी चाह को मिटाने के लिए नए बीज, जिनका उत्पादन अन्य के हाथों में होगा, बाजार से लेने होंगे, ऐसी असहायता का भाव पैदा करने का प्रयास हो रहा है। सत्ता का केंद्र जैसे कहीं बाहर से संचालित हो रहा है।
देश में नए- नए संकट उभर रहे हैं। मसलन एक ओर आतंकवाद तो दूसरे छोर पर विखंडित होते समाज का नजारा है। कभी जाति के नाम पर फसाद तो कभी संप्रदाय के नाम पर झगड़े खड़े किए जा रहे हैं। हमारी राजनीतिक व्यवस्था भी जैसे पंगु हो गई है। हम ऐसे ही विभाजन और विखंडन की राजनीति के शिकार बनते जा रहे हैं। सत्ता केंद्रित विचार हमारी मानसिकता पर छा गया है।
भारत की मानसिकता, उसकी प्राथमिकताएँ, उसकी प्राकृतिक उपलब्धियाँ हमारे आज के देश चलाने वाले लोगों की सोच से बाहर है। वे भूल गए हैं कि दो हजार बरस से यूरोप और उसके बाद अरब लोग मुख्यतः जिस अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर जीवन चलाते थे, उसका आध्ाार था शोषण और अन्य देशों की संपत्ति की लूट। बाकी विश्व का भी वही तरीका बनाने की भूल को एक नयी नीति का रूप देने की कोशिश हो रही है।
हमने तो सदियों से एक दूसरी राह अपनायी। हमने अपने प्राकृतिक साधनों और श्रमशक्ति को आधार माना। अपनी आवश्यकताओं के साध्ानों को प्रचुर मात्रा में पैदा किया। उनका व्यवस्थित उपयोग किया। मौलिक आवश्यकताएँ खाना, कपड़ा, रहने की जगह, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति अपने यहाँ के सब लोगों को उपलब्ध कराया। हम भूल गए से जान पड़ते हैं इस तरह की भूलें तो हमारे यहाँ पिछले कुछ दिनों से तेजी से हुई हैं और अब तो हम सब पढ़े- लिखे, अच्छे खाते- पीते, किसी भी दल और संप्रदाय व वाद के हों, इन भूलों को सत्य जैसा मानने लगे हैं। हम अपने और पराए (व्यक्ति, व्यवस्था, तकनीक, विज्ञान) के भेद को भुला बैठे हैं।
सभ्यता और संस्कृति का केंद्र बिंदु है मनुष्य। किसी देश और समाज की शक्ति और सामथ्र्य इस बात में होती है कि अपने चिंतन की परिस्थितियों के अनुरूप वह किस तरह एक अनवरत और शाश्वत प्रवाह का रूप देता है। यह बहाव एक भरी पूरी नदी का बहाव है जो अपने किनारों को थामे रहती है और जिसका पानी हर क्षण नया भी होता रहता है। इस सरिता की कछारें होती हैं उसका दर्शन, उसका ज्ञान- विज्ञान, उसकी परपराएं, उसके रीति- रिवाज, उसकी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक समृद्धि। उसके लोगों की अपनी त्याग और तपस्या की गाथा। इसके अलावा समाज की सृजनात्मकता से जो प्रवाह बनता है वह पूरे देश और समाज को धारण करता है और उसको संपूर्णता देता है।
भारत सिर्फ मिट्टी का नाम नहीं। कुछ नदियों और पहाड़ों का समूह नहीं। भारत सत्य की एक, सतत्, शाश्वत, गवेशणा का नाम है। सत्य की इस धारा से यह दुनिया बार- बार आलोकित होती रही है। यह ऋषियों, संतों, महात्माओं, सूफियों और गुरुओं की साधना का देश है। उन्हें आस्था और शक्ति देने वाली महान जनशक्ति का देश है। ह्नेनसांग, फाहियान, इब्नेबतूता, मैक्समूलर यों ही भारत देखने नहीं चले आए थे।
आइंस्टाइन ने कहा कि मानवता के विकास में भारत के योगदान को भूला नहीं जा सकता। उसने दुनिया को गिनना न सिखाया होता तो आज ये खोज और आविष्कार न हुए होते। मनुष्यता की इस अनमोल ध्ारोहर ने दुनियाँ के सोचने-समझने वाले किन लोगों को अपनी ओर नहीं खींचा है? मार्कट्वेन ने जब भारत को जाना तो उनके मुँह से अनायास ही ये शब्द निकल पड़े-
‘‘मानवता भारत रूपी पालने में फली- फूली है। मनुष्यों को वाणी यहीं से मिली है और मनुष्य का इतिहास भी यहाँ से निकला है। गाथाओं की तो भारत दादी रहा है और परंपराओं के मामले में दादी की भी माँ। मनुष्यता की सारी रचनात्मक धारोहरें भारत में ही हैं।’’
भारत केवल गंगा, यमुना, कावेरी, सतलुज, नर्मदा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र की घाटी तक ही सीमित नहीं रहा है, भारत एक बहुत बड़े सांस्कृतिक विस्तार का नाम है। अमरीका में चीन के पूर्व राजदूत ह्यू शिह इस सांस्कृतिक विस्तार की अभ्यर्थना करते हुए कहते हैं- ‘‘भारत ने चीन में एक भी सैनिक नहीं भेजा। खून का एक भी कतरा नहीं बहाया। किसी की आँखों में आँसू की एक भी बूंद नहीं डाली। फिर भी चीन दो हजार साल तक उसके प्रभाव में रहा।’’ यह है चीन के पूर्व राजदूत की वाणी।
यह एक स्थापित सत्य है और आप सब जानते हैं अपने दस हजार साल के ज्ञात इतिहास में भारत ने किसी दूसरे देश पर कभी कोई हमला नहीं किया। उसने किसी दूसरे मनुष्य को दबाने के लिए कभी हाथ और पाँव नहीं फटकारे। कोई हजम करने आया तो उसने उसे वहीं अपने में समेट लिया। शक, हूण, किरात, यवन सब उसके अपने होकर रह गए। ऐसी निस्पृह संस्कृति का नाम है भारत। ईसा के जन्म से सात सौ साल पहले ही ज्ञान के संस्थागत केंद्र के रूप में भारत में तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी। यूरोप में पहला विश्वविद्यालय इसके दो हजार साल बाद बना। ईसा के जन्म से लगभग पाँच सौ वर्ष पहले आचार्य चरक और सुश्रुत ने आयुर्वेद को एक संगठित चिकित्सा शास्त्र बना दिया था। कहा जाता है कि आचार्य सुश्रुत ने वह आॅपरेशन भी किया था, जिन्हें आज प्लास्टिक और ब्रेन सर्जरी कहते हैं। उन्हें आनुवांशिकी और रोगों की रोकथाम के तरीकों की विधिवत जानकारी थी। नौवहन का शास्त्र सिंध में छह हजार साल पहले ही विकसित हो गया था।
जिस नेवीगेशन शब्द का आज हम अक्सर इस्तेमाल करते हैं, उसका जन्म संस्कृत के ‘नवगतिह’ शब्द से हुआ है। संस्कृत समस्त यूरोपीय भाषाओं की जननी मानी जाती है। आज तो विज्ञान के नवीनतम साधन कंप्यूटर के शास्त्री लोग भी मानते हैं कि कंप्यूटर के उपयोग के लिए सबसे वैज्ञानिक भाषा संस्कृत की ही है। पृथ्वी सूरज के गिर्द एक चक्कर लगाने में ठीक- ठीक कितना समय लेती है, भास्कराचार्य ने इसकी सही- सही गणना काफी पहले ही कर दी थी, जबकि, पश्चिम इसी बात को मानकर चल रहा था कि सूरज पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, और कोई इसके उल्टा कहता तो उसकी सजा फांसी थी |
दुनिया को गिनना भारत ने सिखाया और आर्य भट्ट ने शून्य की अवधारणा दी। मिस्र और रोमन संस्कृति में सबसे बड़ी गिनती 106 की हो सकी थी। जबकि भारत में ईसा के जन्म के पाँच हजार साल पहले वैदिक काल में ही 108 तक की गिनती गिनी जा चुकी थी। हर संख्या को उसका अलग- अलग विशिष्ट नाम दिया जा चुका था। यूरोप में जब गणिताज्ञों का जन्म भी नहीं हुआ था तब उनके जन्म के छह सौ साल पहले ही बुद्धायन ने पाई का मूल्य ज्ञात कर लिया था। उस प्रमेय को सामने रख दिया था जिसे आज हम पाइथागोरस प्रमेय कहकर रटते और घोंटते हैं। बीजगणित, त्रिकोणमिति, ज्यामिति, कैलकुलस-भारत ने ईजाद किए। दशमलव प्रणाली और अंकों का स्थान महत्व भारत के गणित से निकला और जब दुनिया के अधिकांश लोग खानाबदोशों की जिंदगी जी रहे थे तब पाँच हजार साल पहले ही भारत में सिंधु घाटी में एक संपूर्ण संगठित सभ्यता विकसित हो गई थी। सरस्वती संस्कृति की खोज में विभिन्न राज्यों में जो उत्खनन हो रहे हैं वह एक बहुत ही महत्वपूर्ण सभ्यता के होने के सबूत हैं। जब दुनिया स्वर से परिचित तक नहीं थी, इस देश में सामवेद के गीत गाए जाते थे। आप यह न समझिए कि मैं अपनी ओर से कह रहा हूँ, जर्मनी की एक शोध संस्था ने ये सारी बातें भारत की विशिष्टता के बारे में लिखी हैं, मैं केवल उन्हें उद्धृत कर रहा हूँ।
जब लोगों ने बांध और झील के उपयोग के बारे में सोचा भी नही था तब भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य के जमाने में ही शक राजा रुद्र दमन ने राई वाटक की पहाडि़यों पर सुदर्शन जैसी बड़ी झील बनवाकर आसपास के इलाकों के लिए कभी न सूखने वाले पानी के सोते का इंतजाम किया था। जनतंत्र के जिस राजतंत्र को आज हम मानवता की सबसे बड़ी ध्ारोहर मानते हैं, उसका उदय भारत में ईसा के जन्म से पहले ही हो चुका था। फ्रांस के अनन्य विद्वान रोमांरोला को यूरोप से कम प्यार नहीं था, पर जब उन्होंने भारत को देखा, जाना और समझा तो उनके मुँह से निकला ‘‘मनुष्य ने जिस दिन सपने देखने शुरू किए, वे सपने कहीं जन्मे, फले और फूले तो दुनिया में वह केवल एक जगह- भारत।’’
मैंने भारत के गौरव की ये बातें विरुदावली गाने के लिए नहीं कहीं, और न ही अपना सीना फुलाने के लिए कही हैं कि हम ऐसी महान उपलब्धियों वाले देश के वासी हैं। यह बातें मैंने उस स्रोत की तलाश के लिए प्रेरित करने के लिए कहीं हैं जिसे भारत कहा जाता है और जहाँ स भारत की शक्ति और सामथ्र्य निकलती है। यह अकस्मात् नहीं हो सकता कि कहीं भास्कराचार्य पैदा हो गए और कहीं से बुद्धायन निकल आये। यह अकस्मात नहीं था कि कभी किसी बुद्ध का जन्म हो गया और कभी कहीं कोई कबीर पैदा हो गए। ये उपलब्धियाँ जीवंत सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था की देन थीं।
भारत में तैंतीस करोड़ देवताओं और छप्पन करोड़ देवियों की पूजा अंधविश्वास नहीं है, मानवशक्ति में अटूट आस्था का प्रतीक है। और यह भी कोई अनायास नहीं हुआ कि अरब, यूनान, रोम जैसी सभ्यताओं के मुँह यदि भारत की ओर थे तो यूरोप से जो जहाजी बेड़े निकले, उनकी पालों और पतवारों का रुख भी भारत की ओर ही था। यह जो पूरी नयी दुनिया खोजी गई है वह सोने की चिडि़या कहे जाने वाले भारत की खोज में ही किए जाने वाले प्रयास का परिणाम था।
सच तो यह है कि सत्रहवीं सदी में अंग्रेजों के आने के पहले तक भारत दुनिया का सबसे समृद्ध देश था। उसके ज्ञान- विज्ञान की, कल- कारखानों की, रीत- रिवाज की एक- एक संस्था को गुलामी के दिनों में ध्वस्त किया गया। अगर किसी एक का इस सिलसिले में नाम लेना जरूरी है तो मैं ईस्ट इंडिया कंपनी को चिन्हित करना चाहता हूँ। उस दौर में भारत की लूट के दो हिस्से हैं। पहले कंपनी ने हमारी संपदा बटोरी। व्यापार का काम चलाया। औद्योगिक क्रांति के बाद पूँजीवाद की प्रारंभिक अवस्था में कच्चा माल ढोया जाने लगा और वहाँ से पक्का माल यहाँ बिका, इसलिए हमारे देश को कृषि प्रधान बनाने की साजिश की गई। विद्वानों ने जो जाना और पाया है उसके मुताबिक सत्रहवीं सदी तक हमारे देश में चिकित्सा, शिक्षा, धातु विज्ञान, गणित आदि की विधिवत् विकसित प्रणालियाँ थीं। अन्न के क्षेत्र थे, अन्न के भंडार थे। इस्पात तक बनाने का अपने यहाँ कौशल था। अनेक संस्थाओं ने अपनी खोजों से इस बात को साबित किया है। इस तरह के तथ्य अंग्रेज प्रशासकों के रिकार्ड में दर्ज हैं।
गाँधी और अंग्रेज प्रोफेसर फिलिप हरटोग के बीच तो इस बारे में नौ साल लंबी बहस चली थी और उन्हें लिखे एक पत्र में 1931 में गाँधी जी ने बहुत साफ कहा था- ‘‘मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत में आज जितनी अशिक्षा है, सौ साल पहले उतनी अशिक्षा नहीं थी। जो चीजें जहाँ थीं, वहाँ से उन्हें सहेजने और संभालने के बदले अंग्रेज प्रशासकों ने पहले उनकी जड़ेें खोदकर देखना शुरू किया। उन्होंने मिट्टी हटा ली। जड़ों को नंगा छोड़ दिया और भारत नाम का एक अति सुंदर वृक्ष सूख गया।’’ इतिहासकार धर्मपाल ने द ब्यूटीफूूुल ट्री में डब्ल्यू लिलिएंडन का एक उद्धरण दिया है-
‘‘1830 के आस-पास बंगाल और बिहार में एक लाख के आसपास स्कूल थे और बंबई प्रेसीडेंसी में 1820 तक कोई भी ऐसा गाँव नहीं था जहाँ एक स्कूल न हो। बड़े गाँवों में तो एक से अधिक स्कूल थे।’’ जी.एल. प्रेंडरजेस्ट ने भी कहा है कि पंजाब में भी 1850 तक शिक्षा के प्रसार की यही हालत थी। धर्मपाल जी ने यहाँ आए अंग्रेज प्रशासकों के काम- काज का जो अध्ययन किया है, उसके मुताबिक 17वीं सदी तक देश के तकरीबन हर गाँव में एक स्कूल था, अपने हाट-बाजार थे, अपनी न्याय और प्रशासन व्यवस्था थी, कला- कौशल और उद्योगों को संभालने और बढ़ाने का अपना इंतजाम था। सत्रहवीं सदी तक सारी आपदाओं के बावजूद हमारी उत्पादन व्यवस्था मजबूत थी। वह स्वावलंबी थी। जरूरत इस बात की थी कि उसी कड़ी से राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो, वहाँ से जुड़े, वहीं से ही आधुनिकीकरण का अगला कदम उठे। यह नहीं हुआ। यह जानना जरूरी है कि ऐसा क्यों हुआ?
गाँधी को जानने वाले मानते हैं कि इस अति सुंदर वृक्ष की जड़ों को सुखाकर उसकी जगह पर बिना जड़ की एक विदेशी प्रणाली को बैठा देना ही हमारी मौजूदा दुर्दशा का कारण रहा है। एक तो इससे शिक्षा, ज्ञान- विज्ञान, कला-कौशल की प्रणाली बिगड़ी। यही वजह है कि साक्षरता और सबको शिक्षा देने के हमारे आज के प्रयास भी असफल हो रहे हे। दूसरे, इससे सामाजिक संतुलन चैपट हुआ है। यह सामाजिक संतुलन था तो समाज का हर वर्ग अपनी जरूरत भर की शिक्षा का इंतजाम कर लेता था और उसका हर आदमी स्थानीय स्तर पर समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में साधिकार और ससम्मान भागीदारी ले सकता था। इससे बड़े समाज में भी उसकी भागीदारी के रास्ते खुले थे। शिक्षा व्यवस्था और आर्थिक संरचना के टूट जाने से किसानों, जमीनी स्तर पर काम करने वाले कारीगरों, दस्तकारों, उद्योग धंधा करने वाले लोगों की सामाजिक और आर्थिक हैसियत में कमी आ गई। मैं यहाँ पर आपसे निवेदन करना चाहूँगा कि इस देश में कुलपति वह माना जाता था जो दस हजार विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, अनुर्वेद से धुनर्वेद तक की देने की हैसियत रखता था। पर्ण कुटीर में रह करके दस हजार विद्यार्थियों को शिक्षा देना। केवल ये नहीं कि वे भीख मांगते थे, अपनी भीख पर भी उन्होंने संयम बरता था। कोई कुलपति केवल तीन चीजें भिक्षा में लेता था, खाने के लिए अनाज, पहनने के लिए वस्त्र और गोदान। मकान नहीं, पर्णकुटी में ही शिक्षा होती थी। आज जैसे कुलपति नहीं। वैसे क्षमा करें यहाँ कोई कुलपति हों तो। जो तनवाय वेतन पर दस हजार विद्यार्थियों को अनुर्वेद से आयुर्वेद की शिक्षा देने वाले कुलपति होते थे। इस देश में यह व्यवस्था थी भारत की। आज हम उसे भूल गए हैं। शायद भूल जाना ही अच्छा है नहीं तो पीड़ा और वेदना और अधिक बढ़ जाती है। आज जिन्हें हम दलित और पिछड़े कहते हैं और जिनकी सामाजिक और आर्थिक गिरावट जगजाहिर है, उनकी दुर्दशा का असली कारण यह है। यही हमारे हुनर वाले लोग थे जो गाँवों में दस्तकारी के जरिए देश को समृद्ध बनाते थे। सोचना, सीखना, समझना, चीजों को अपने कौशल से अपने हिसाब का बना लेना और उसमें प्राण फूँक देना हमारे समाज की विशिष्टता रही है। लेकिन इस विशिष्टता का मनमाने ढंग से इस्तेमाल भी किया गया है।
सभ्यता क्या है, इसे लेकर गाँधी जी ने कहा है-
‘‘सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के माने हैं नीति पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को (अपनी असलियत को) पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उल्टा है वह बिगाड़ करने वाला है।’’
‘‘हमने देखा है कि मनुष्य की वृत्तियाँ चंचल हैं। उसका मन बेकार की दौड़-धूप किया करता है। उसका शरीर जैसे-जैसे ज्यादा दिया जाए वैसे- वैसे ज्यादा मांगता है। ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता। भोग भोगने से भोग की इच्छा बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बांध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख- दुख तो मन के कारण हैं। अमीर अपनी अमीरी की वजह से सुखी नहीं है। गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं हैं। अमीर दुखी देखने में आता है और गरीब सुखी देखने में आता है। करोड़ों लोग तो गरीब ही रहेंगे। ऐसा देखकर उन्होंने भोग की वासना छुड़वाई। हजारों साल पहले जैसे झोपड़े थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आयी। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी, सब अपना- अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक दाम लिए। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र आदि की खोज करना ही नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र आदि की झंझट में पड़ेंगे तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच- समझकर कहा की हमें अपने हाथ पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ- पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरुस्ती है।
‘‘उन्होंने सोचा बड़े शहर खड़े करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों की टोलियाँ और वैश्याओं की गलियाँ पैदा होंगी, गरीब अमीरों से लूटे जाएंगे। इसलिए उन्होंने छोटे देहातों से संतोष माना।
‘‘उन्होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलवार के बनिस्बत नीति का बल ज्यादा बलवान है। इसलिए उन्होंने राजाओं को नीतिवान पुरुषों-ऋषियों और फकीरों से कम दर्जे का माना।
‘‘ऐसा जिस राष्ट्र का गठन है वह राष्ट्र दूसरों को सिखाने लायक है, वह दूसरों से सीखने लायक नहीं है।’’
ये शब्द हैं महात्मा गाँधि के। मैं नहीं कहता इसको आप अक्षरशः स्वीकार करें। लेकिन यह होड़ की दुनिया हमें कहाँ ले जाएगी इस पर जरूर विचार करें। हमारे गाँव में कहा जाता है ‘‘रूखी- सूखी खाए के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी मत ललचाओ जीव।’’ आज सारी दुनिया इस लालच में पड़ी हुई है। कहाँ जाएगी? कहाँ जाएंगे गरीब? कुछ विशिष्ट लोग ही धनी हो पाएंगे, करोड़पति बनेंगे। लेकिन आज तो हम रोज टी.वी. पर सुनते हैं। हमने देखा नहीं है कौन बनेगा करोड़पति। कितने बनेंगे करोड़पति नहीं मालूम। अब तक तो शायद एक ही बन पाया है, अब कितने बनेंगे मुझे मालूम नहीं।
पश्चिम में शक्ति का स्रोत आर्थिक और राजनीतिक सत्ता रही है। इसी में उसका परमानंद है। उनका दृष्टिकोण मनुष्य और प्रकृति के बीच टकराव का है और वहाँ औद्योगीकरण, उनकी संस्कृति, उनका रहन- सहन, उनकी सोच इसी से निकली है वहाँ भौतिकवाद प्रबल रहा है।
भारत में मनुष्य और प्रकृति के बीच सहयोग और समन्वय का रिश्ता है। हमारी संस्कृति और सभ्यता के सूत्र यहाँ से निकले हैं और उसका निचोड़ बहुत रोचक रहा है। ये निचोड़ थे- समाज के रूप में एक ऐसा बहुरंगी चमन, जिसमें हर बयार और हर बहार में फूल खिले हों। सत्ता और अर्थसरंचना की ऐसी विकेंद्रित ईकाइयाँ, जहाँ गाँव अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भर ईकाइयाँ हो और वहाँ उनका स्वशासन हो। व्यवस्था और न्याय की रचना और अनुपालन के लिए सामूहिक या सामुदायिक पंचायतें। ऐसे समाज को न राजा की बहुत जरूरत थी और न प्रजा की। यह एक ऐसी व्यवस्था थी जहाँ हर हाथ के लिए काम था और हर मुँह के लिए निवाला। कच्चा माल इधर- उधर से आता तो उसे अपने यहाँ ही ठोंक- पीटकर लोहा बना लिया जाता। जन- जन तक फैले इस भारत प्रभु के अनंत हाथ थे और अनंत मेघा थी।
इस स्वपूरित भारत में उठकर कोई कृष्ण कह सकता था देखो, सारा ब्रह्माण्ड मेरे अंदर लीन है। ‘हम ब्रह्मास्म’ की भावना यहीं से निकली थी। हमारा परमानंद यह था। इस परमानंद में राज्य, समाज, ध्ार्म और अर्थ इन चारों ही व्यवस्थाओं को सहज स्वाभाविक रूप से विकेंद्रित होना था। हमारा मंत्र रहा विकेंद्रीकृत व्यवस्था से शक्ति संचय। हम उसी व्यवस्था से सत्रहवीं सदी तक दुनिया के सबसे समृद्ध देश थे। महान रोमन साम्राज्य को भी कानून बनाना पड़ा था कि भारत के कपड़े की खरीद न की जाए। यह स्वपूरित भारत ही कह सकता था मेरे पास जो कुछ है वह समस्त मानवता का है त्वदीयं वस्तुु गोविन्दमेे्, तुभ्यमुुेव समर्पर्येमेे्। वैश्वीकरण तो यह है भोग का नहीं, त्याग का वैश्वीकरण। सत्ता का नहीं, सदाशयता का वैश्वीकरण, मनुष्यता का वैश्वीकरण। जहाँ- जहाँ तक सूरज की रोशनी जाती है, और जहाँ-जहाँ तक नहीं भी जाती है वहाँ मेरी अपनी मौजूदगी का वैश्वीकरण।
अंदर बाहर के न्यस्त स्वार्थों ने भारत की शक्ति और सामथ्र्य को बार- बार झकझोरा है। जाति, वर्ग, संप्रदाय, समूह, धर्म, भाषा, बोली, रंग आदि- आदि के नाम पर हमारी इस अंतःचेतना को कुंद करने की, जाने कितनी कोशिशें हुई हैं। इस देश में जो नौ ऋषि हुए, उनकी कोई सजाति नहीं है। हमारी चेतना किसी एक जाति और धर्म से नहीं निकली है। जिन्हें हम पिछड़े और दलित कहते हैं, वाल्मीकि से लेकर संत रैदास तक जाने कितने महात्मा हुए, जिन्होंने इस भारत को साधा। लेकिन गुण और कर्म आधारित एक चल व्यवस्था को रूढ़ कर दिया गया। ऊँच- नीच, छूत- अछूत और छोटे- बड़े बना दिए गए। न्यस्त स्वार्थों ने कर्मकांडों को आडंबर बना दिया। इस संप्रदाय या उस संप्रदाय को वर्चस्व देने की कोशिशें की गयीं। समाज को इसका बार- बार और बहुत बार खामियाजा भी उठाना पड़ा। लेकिन इतिहास गवाह है कि न यहाँ किसी राजा को सत्ता चली और न किसी सांप्रदायिक की मानमानी ही चली। यहाँ विचार की वही धारा समय और काल में जूझ सकी है जो मनुष्य को उसकी संपूर्णता में पोषित करती है। उसके प्रस्फुटन के हजार रास्ते खोलती है।
आज के वैश्वीकरण के सूत्र भारत के समाज को विखंडन के रास्ते पर ले जा रहे हैं। इसीलिए यह कोई संयोग नहीं है कि जाति और संप्रदाय के नाम पर हमारे समाज को बांटने वाली ताकतों ने वैश्वीकरण को अपने गले में हार की तरह पहन लिया है। वे पश्चिम के अंधानुकरण का लगातार ढोल पीट रहे हैं।
हमारी शक्ति के सूत्र हमारे किसान और मजदूर। हमारे गाँव- गाँव और हाथ- हाथ तक फैल सकने वाले लघु और कुटीर उद्योग। स्थानीय सामग्री, कौशल और प्रतिभा को उत्पादन में बदलने वाले छोटे कल-कारखाने, जमीनी स्तर की अपनी दरकारों को लेकर गठित पंचायतें, उनकी राजनीतिक और वैधानिक व्यवस्थाएँ, हमारी परिवार व्यवस्था, हमारी विभिन्न भाषाएं और बोलियां, हमारे अपने हाट- बाजार, हमारे ताल- तलैया, हमारी नदियां, हमारे पहाड़ और हमारा मनुष्य और मनुष्यता को पोषित करने वाला संपूर्ण जीवन दर्शन। भारत का जो नक्शा बनेगा, वह इसी के इर्द- गिर्द बनेगा। वह जो बनेगा, उसे गाँधी ने हिन्द स्वराज में इस रूप में देखा है:
‘‘इस राष्ट्र में अदालतें थीं, वकील थे, डाॅक्टर-वैद्य थे। लेकिन वे सब ठीक ढंग से नियम के मुताबिक चलते थे। सब जानते थे कि ये धंधे बड़े नहीं हैं। वकील, डाॅक्टर वगैरा लोगों में लूट नहीं चलाते थे, वे तो लोगों के आश्रित थे। वे लोगों के मालिक बनकर नहीं रहते थे। इंसाफ काफी अच्छा होता था। अदालतों में न जाना, यह लोगों का ध्येय था। उन्हें भरमाने वाले स्वार्थी लोग नहीं थे। इतनी सड़न भी सिर्फ राजा और राजधानी के आस- पास ही थी। यों आम प्रजा तो उससे स्वतंत्र रहकर अपने खेत का मालिकाना हक भोगती थी। उसके पास सच्चा स्वराज्य था।
‘‘और जहाँ यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुँची है, वहाँ हिन्दुस्तान आज भी वैसा ही है। उसके सामने आप अपने नए ढोंगों की बात करेंगे, तो वह आपकी हंसी उड़ाएगा। उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं, न आप कर सकेंगे।
‘‘जिन लोगों के नाम पर हम बात करते हैं, उन्हें पहचानते नहीं हैं, न वे हमें पहचानते हैं। आपको और दूसरों को, जिनमें देश- प्रेम है, मेरी सलाह है कि आप देश में जहाँ रेल की बाढ़ नहीं फैली है उस भाग में छह माह के लिए घूम आएँ और बाद में देश की लगन लगाएँ, बाद में स्वराज की बात करें।’’
आज राजेन्द्र बाबू का स्मृति का दिन है। राजेन्द्र बाबू उस मिट्टी से निकले थे जिसे भारत कहा जाता है। उनकी जीवनी पढ़ने पर पता चलता है कि एक बात जीवन भर उनके जेहन में घूमती रहती थी कि इस देश को भारत कैसे बनाया जाए। गाँधी के चंपारन आन्दोलन से उन्होंने एक बार जो समाज सेवा की शुरुआत की तो उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने जब वकालत छोड़ी तो उनकी जेब में कुल पंद्रह रुपये थे और पीछे था एक भरे-पूरे परिवार को संभालने का दायित्व। वे गाँधी और सरदार पटेल की जीवन धारा से जुड़े हुए थे और राष्ट्रपति बनने के बाद भी उन्होंने जीवन धारा को नहीं बदला। सत्ता- व्यवस्था से इस बात को लेकर उनके कई बार टकराव भी हुए लेकिन राजेन्द्र बाबू अपनी मर्यादाओं के भीतर अपने रास्ते पर चलते रहे। उनके जमाने में राष्ट्रपति भवन में विदेशी मेहमानों के लिए भले ही अंग्रेजी ढंग से खाना परोस दिया जाता रहा हो लेकिन भारत के राष्ट्रपति खुद भारतीय ढंग से थाली में परसा खाना ही खाते रहे। बाहर से आए मेहमानों ने उनकी इस भारतीय पद्धति का सत्कार ही किया।
राष्ट्रपति खुद घोड़ा गाड़ी पर सुबह टहलने निकल जाते थे और लोगों से उनके दुख- दर्द का हाल पूछते थे। पश्चिमपरक सत्ता-व्यवस्था ने बड़ा विरोध करके इस परंपरा को बंद कराया। इसी तरह का विरोधी तब हुआ जब उन्होंने बनारस में पंडितों की पादपूजा और पाद- प्रच्छालन किया।
राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा- ‘‘हमारी संस्कृति में विद्वान का स्थान राजा से भी बड़ा होता है। विद्वानों का सम्मान करके हम अपना ही सम्मान करते हैं।’’
राजेन्द्र बाबू 1950 में जब अंतरिम राष्ट्रपति बने तो एक वर्ग ने इस बात का बड़ा विरोध किया। अंग्रेजी पद्धति को स्वीकार न करने वाला राष्ट्रपति इस देश में कैसे चलेगा। 1952 और 1957 में उनके चुनाव के समय फिर व्यवस्था ने यही सवाल उठाए। उन्हें सत्ता का लोलुप और धार्मिक पुनर्जागरणवादी कहकर उनके तिरस्कार करने की कोशिशें भी हुईं। लेकिन राजेन्द्र बाबू अडिग रहे और उन्होंने पश्चिमपरक मान्यताओं से जूझते रहने का रास्ता चुना। चाहे हिन्दू कोड बिल का सवाल हो, चाहे केरल में राष्ट्रपति शासन लगाने का सवाल हो, चाहे सोमनाथ मन्दिर के उद्घाटन में जाने का सवाल हो, राजेन्द्र बाबू दृढ़तापूर्वक अपनी मर्यादाओं पर अडिग रहे। ईमानदारी से अपनी बात कहते रहे और व्यवस्था को समझाते रहे कि इस देश का कल्याण भारतीयता के रास्ते पर चलने में ही है। तब देश इतना नहीं हारा था, जितना कि आज है।
1957 में जब उन्हें हटाकर किसी और को राष्ट्रपति बनाने की बात चली तो मौलाना आजाद ने नेहरू को जो पत्र लिखा उसमें लिखा- ‘‘हमारी आजादी की जद्दोजहद में जिसने अपने आपको मिटा दिया और दूसरे, जिसे विदेशी सरकार के हाथों सर का खिताब कबूल करने में कोई झिझक नहीं हुई, जमीन-आसमान का फर्क है और इस फर्क का एहसास आपको करना ही होगा।’’ इसी तरह सरदार पटेल की मृत्यु पर व्यवस्था के सारे विरोध्ा के बावजूद वे उनकी अंत्येष्टि में शरीक होने गए। ज्ञानवती दरबार को उन्होंने जो चिट्ठियाँ लिखायी हैं उनमें एक बात बहुत साफ है कि राष्ट्रपति इस बात को लेकर बहुत चिंतित थे कि भारत पश्चिम के जिस रास्ते पर चल पड़ा है, उसका नतीजा क्या होगा। वे जहाँ भी जाते, भारत की परम्परा और उसकी समृद्धि की एक तरह से खोज ही करते रहते।
ये वे राष्ट्रपति थे जो देश की सीमाओं की रक्षा के लिए शहाीद सैनिकों की स्मृति में उन्हें शौर्य पुरस्कार देने जाते तो उनकी आँखों से आँसू झर- झर बहने लगते थे। उन्हें इस बात की भी लगातार चिंता रहती थी कि सार्वजनिक जीवन का जो क्षरण हो रहा है उसका नतीजा क्या होगा। इसलिए गाँध्ाी जी की इस बात को बार-बार याद करते हुए उन्होंने कहा था कि आजादी के बाद काँग्रेस को राजनीति दल के बदले सेवा के एक संगठन में बदल दिया जाए। और गाँधी पर उनकी इतनी निष्ठा थी कि वे हाथ में पैंसिल और कागज लेकर बैठे तो उस कागज पर गाँधी जी की मृत्यु के बाद का उनका संदेश लिख उठा। यह हैं भारत के प्रथम राष्ट्रपति- राजेन्द्र बाबू। यह हैं उनकी मान्यताएँ। यह हैं वे मान्यताएँ जो महात्मा गाँधी से प्रेरित थीं। यह हैं वे मान्यताएँ जो भारत की धरती से उपजी हैं। और मैं आज यह कहता हूँ, सौ करोड़ के इस देश को दुनिया के सारे समृद्ध देश मिलकर के इसकी समस्याओं से बाहर निकालने की कोशिश करें तो नहीं निकाल सकते। इसे समृद्धि की ओर ले जाने की जिम्मेदारी आज लोगों पर हैं। देश के उन करोड़ों लोगों की है जो गाँव में किसानों के रूप में खेत- खलिहानों में काम करते हैं। कल- कारखानों में काम करते हैं। आज उन्हीं का चिंतन उन्हीं की स्मृति, उन्हीं की शक्ति हमारे देश को एक नई शक्ति दे सकती है। आज भी समृद्धि का वह रास्ता खुला हुआ है। हम अगर भटक न जाएं तो उस राह पर चल करके राजेन्द्र बाबू को सही मायने में हम तभी याद कर सकते हैं जब उन प्रवृतियों को आदर करना सीखें। पश्चिम की होड़ में पड़ करके अपने पैर कहीं ध्ारती से उखड़ न जाएँ, इसकी चिंता हम करें। यही सही मायने में राजेन्द्र बाबू की स्मृति को हमारा प्रणाम होगा।