गैट समझौता : समर्पण का दस्तावेज (लोकसभा में भाषण, 30 मार्च, 1994)

जिनको न निज का गारवैैै तथा निज दशेेे का अभिमान है, वह नर नहीं, नर पशुुु निरा हैैै और मृृृतक समान है।

इसलिए मैं कहता हूँ कि यदि भारत का भविष्य बनेगा तो आत्म- गौरव के आधार पर बनेगा। भारत का भविष्य बनेगा तो यहाँ की जनशक्ति, यहाँ के लोगों के मनोबल के आधार पर बनेगा। यहाँ जितनी प्राकृतिक सम्पदा है, उस पर जब करोड़ों लोगों के हाथ लगेंगे, उनके मन में इच्छा शक्ति होगी, तब भारत का भविष्य बनेगा। जिस तरह आज संसद में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की वकालत की गयी, मैं समझ नहीं पा रहा था कि भारत का वित्त मंत्री बोल रहा है या किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी का कोई प्रवक्ता बोल रहा है। मुझे समझना बड़ा मुश्किल हो रहा था।

माननीय वित्त मंत्री जी ने अपने भाषण में अनेक बातें कहीं और बड़े गौरव के साथ उन्होंने कुछ उदाहरण दिये। उन उदाहरणों में एक बार उन्होंने वियतनाम का नाम भी लिया। शायद हमारे वित्त मंत्री जी को वियतनाम का इतिहास मालूम होगा कि वियतनाम के लोगों के विरुद्ध दुनिया की बड़ी ताकत जिससे आज हमें भय लगता है किस तरह लगी रही, 12 वर्षों तक उन का हमला चलता रहा, यह इतिहास की वास्तविकता है। लेकिन वियतनाम उससे टूटा नहीं बल्कि दो हिस्सों में बंटा वियतनाम एक देश बन गया क्योंकि वहाँ के लोगों की इच्छा शक्ति नहीं टूटी थी, वहाँ के लोगों का मनोबल नहीं टूटा था। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तमाम ताकत, अमेरिका का सारा सैन्य बल वियतनाम के लोगों को दबा नहीं सका था।

मुझे आज पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा तीसरी पंचवर्षीय योजना के समय कही गयी बातों का स्मरण हो आता है जब आज कृषि के बारे में बोलते हुए कहा जा रहा है कि हम किसानों को बहुत सुविधाये दे रहे हैं लेकिन विपक्ष के सदस्य लोगों में भ्रम फैला रहे हैं, किसानों का मनोबल तोड़ रहे हैं। उसी उदाहरण में आपने यह भी बताया कि हमारा हिन्दुस्तान तेजी से बदल रहा है, फूलों के बगीचे, बंगलौर के निकट बन रहे हैं, यहाँ से फूलों का निर्यात किया जायेगा, जिससे देश की निर्यात क्षमता बढ़ेगी, देश के बाहर से धन आयेगा, लेकिन वित्त मंत्री जी आप काफी पढ़े- लिखे इंसान हैं, आप जानते हैं कि यह वह देश है जहाँ 76 फीसदी लोग एक हेक्टेअर से कम जोत वाले हैं, क्या आप ऐसे देश की कृषि व्यवस्था को निर्यात की ओर ले जाना चाहते हैं। आपने यह भी कहा कि तीसरे विश्व के लोगों को हम मदद देना चाहते हैं। आप तथ्यों से परे, किसकी आंखों में धूल झोंकना चाहते हैं। क्या यह सही नहीं है कि अफ्रीकी देशों को इन लोगों ने वैसा ही सबक सिखाया था जो आज हमारे वित्त मंत्री जी हमें सिखा रहे हैं। उस समय कहा गया था कि तुम पारंपरिक खेती में क्यों पड़े हो परम्परागत कृषि में क्यों पड़े हो, कुछ ऐसी व्यवस्था बनाओ, कुछ ऐसे पैदा करो जिसका निर्यात हो सके। कोको की पैदावार करो, काॅफी की पैदावार करो और उसका निर्यात करो। दस बारह साल तक उन्हें बहुत धन मिला और इन्हीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने उन्हें बढ़ावा दिया और उनकी परम्परागत खेती को तोड़ दिया। वहाँ बड़े- बड़े फार्म बन गये, बड़े- बड़े कारखाने लग गये लेकिन सारा बाजार उनके हाथ में था, इसलिए बाद में उन्होंने बाजार को ही तोड़ दिया। बाजार को तोड़ने के परिणामस्वरूप आज वहाँ भुखमरी की स्थिति पैदा हो रही है और आज वे ही उपदेश आप हमें दे रहे हैं क्योंकि वही उपदेश आपने उनसे लिया है।

यह कोई नई बात भारत में नहीं कही जाती है। मैंने पिछली बार कहा था कि इस संसद में क्यों हमारे वित्त मंत्री की आलोचना होती है, क्यों उनके ऊपर कटाक्ष होता हैं? हमारे मित्र प्रशंसा करते नहीं थकते, लेकिन वित्त मंत्री जी आप कोई लाजवाब बात नहीं कर रहे हैं। यह भाषा दुनिया में आप आज जैसे 60, 70 या 80 वित्त मंत्री बोल रहे हैं। परम्परा चली आ रही है। यह कहा गया कि आई.एम.एफ. और वल्र्ड बैंक उस जमाने में भी था और उसके सामने हमने एक गरीब देश की हैसियत से भी, असमानता और विषमता को मानते हुए सब कुछ स्वीकार किया। मैं तफसील में नहीं जाना चाहूँगा, लेकिन क्या यह सही नहीं है कि सारा कुछ होने के बाद भी पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि भारत जैसा बड़ा देश अपनी मौलिक आवश्यकता के लिए दुनिया के दूसरे देशों पर निर्भर नहीं रहेगा। क्या पं. नेहरू ने विरोध के बावजूद यह नहीं कहा था कि हमें स्टील कम्पनी बनानी होगी, हमें पावर जनरेशन के लिए काम करना होगा? हम जानते हैं कि गरीब देश में हमारे पास साधन कम हैं, लेकिन फिर भी देश को कुर्बानी करनी होगी, इस देश के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए, अपने देश की आजादी को महफूज रखने के लिए। उन्होंने उस समय कहा था कि हम ये मन्दिर बना रहे हैं। ये भारत के भविष्य के मन्दिर हैं जिन पर दुनिया जाएगी, देश के लोग जाएंगे श्रद्धांजलि देने के लिए। हमारे विकास की कहानी कहने वाले ये मन्दिर हैं। अध्यक्ष महोदय, क्या ये मन्दिर आज टूट नहीं रहे हैं, क्या इनकी ईंटें बिखर नहीं रही हैं? मैं नहीं जानता गैट के करारों में क्या है, लेकिन आज की सरकार की नीयत में क्या है वह मैं जानता हूँ जिसके कारण ये सारे हमारे संस्थान एक- एक कर के बिखर रहे हैं, टूट रहे हैं, खंडहर बन रहे हैं।

अध्यक्ष महोदय, हम थे, हम हैं, आज भी हम सहयोग चाहते हैं। हम आज भी सहायता चाहते हैं लेकिन सहयोग, सहायता और समर्थन में अन्तर होता है। हम समर्पण नहीं कर सकते हैं। हम सहयोग लेंगे, हम सहायता चाहेंगे, लेकिन हम समर्पण नहीं करेंगे। जब हम ये कहते हैं कि यह दस्तावेज समर्पण है, तो कोई चिढ़ाने के लिए नहीं कर रहे हैं। कोई गलतफहमी पैदा करने के लिए नहीं कहते हैं। कैसा है यह दस्तावेज?

अध्यक्ष महोदय, कल इस संसद में आप नहीं थे, बहस हुई, बहस में हमारे मित्रों ने कहा, पूरे दस्तावेज हमारे सामने नहीं हैं। हमने पूछा कि 1947 के दस्तावेज हैं। हमारे वाणिज्य मंत्री ने कहा, हमारे पास है या नहीं, पता लगाएंगे। भारत की संसद में बहस हो रही है, सरकार बहस चला रही है, भारत का भविष्य बनाने के ये कर्णधार हैं, इनके हाथ में मौलिक दस्तावेज नहीं है, वह बेसिक डॉकुमेंट नहीं है जिसके ऊपर सारे गैट का करार आधारित है।

एक नई विश्व सरकार बन रही है। हमारी कठिनाई यह है, जब मैं यहाँ बोलता हूँ तो एक साधारण भारतीय नागरिक की हैसियत से बोलता हूँ लेकिन हमारे वित्त मंत्री जी, हमारे वाणिज्य मंत्री जी विश्व नागरिक हो गये हैं, विश्व राजनीति कर रहे हैं, भारत के नागरिक ये लोग नहीं रह गये हैं। ‘‘अयं निज परोवेति, गणना लघुचेतषाम्, उदार चरितानाम्, वसुधैव कुटुम्बकम्।’’ यह हमारा है, यह तुम्हारा है, छोटे लोग सोचते हैं। उदार मनुष्य के लिए सारी दुनिया एक परिवार है।

(हम लोग छोटे हैं, भारत के बारे में सोचते हैं) यहाँ के गरीब के बारे में सोचते हैं, यहाँ के किसान के बारे में सोचते हैं, उनकी झोपडि़यों के बारे में सोचते हैं। ये मल्टीनैशनल्स के बारे में सोाचते हैं, वाशिंगटन, लन्दन के लिए सोचते हैं। इनके लिए वह लन्दन है। रहम करो, कालाहाँडी के लोगों पर, याद करो बाड़मेर, जैसलमेर के प्यासे लोगों को उनकी प्यास की कहानी, उनकी भूख की तड़पती आंतें हिन्दुस्तान की राजनीति का फैसला करेंगी और यह मैं नहीं कर रहा हूँ, चले हो कृषि का सुधार करने के लिए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, अगर देश की करोड़ों झोपडि़यों में उठती हवा को हमने नहीं पहचाना तो यह तूफान बनकर हमारे सारे महलों को गिरा देगी। उन्होंने कहा था, इसलिए भूमि सुधारों का होना जरूरी है। आप चाहे जितना वक्तव्य दो और मल्टीनेशनल्स को निमंत्रण दो और भूमि सुधार करो ये दोनों बातें नहीं चल सकतीं। ‘‘हंसब ठठाई फुलायब गालू, एक संग नहं होई भुवालू।’’ दोनों काम उक साथ नहीं हो सकते। अपने रास्ता तय कर लिया है। हमें उस रास्ते से एतराज है, हमें उस रास्ते से परेशानी होती है।

यह भी याद रखिये कि इतिहास क्या है? दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष बना, वल्र्ड बैंक बना, एक तीसरी संस्था यह भी बनी थी, गैट भी बना था। दोनों का उद्देश्य एक ही था, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों की रक्षा करना। इनका एक ही उद्देश्य था कि जो बड़े धनी देश हैं, उनके हितों को वह दुनिया में फैलाये। आज यह गैट सबसे ऊपर हो रहा है।

हम उसकी तफसील में नहीं जायेंगे लेकिन जो थोड़ी बहुत समझ है, कितनी कौंसिल हैं, कितने कमीशन हैं, कितनी कमेटियाँ हैं, मैं नहीं जानता। सुप्रीम कोर्ट का दखल होगा या नहीं होगा लेकिन इनको दखल होगा इतनी बात तो तय है। हमको आप बताते हो। भारत के किसानों को पीछे रखना चाहते हैं तो रखो लेकिन भारत का किसान अगर कहीं गलती से बीज बो दे तो क्या कारगिल कम्पनी को भारत में मुकदमा चलाने का अध्ािकार होगा या नहीं होगा? भारत के गाँव- गाँव में कारगिल के एजेण्ट जाकर मुकदमा चलाने लगेंगे तो हमारी प्रभुसत्ता के ऊपर कोई हस्तक्षेप होगा या नहीं यह बात बताओ? इसलिए मैं नहीं जानता, ये लोग चलाएंगे या नहीं चलाएंगे, यह बात कोई नयी बात नहीं है। जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ आती हैं, मैं नाम नहीं लेना चाहता, हमारे देशी व्यापार को मिटाने के लिए करोड़ों रुपये का घाटा दो वर्ष, तीन वर्ष व चार वर्ष सह सकती हैं, यह इनका दुनिया का इतिहास रहा है। एक कम्पनी पेप्सीकोला ने पिछले तीन वर्षों में कितना घाटा सहा है, क्या भारत की कम्पनियाँ उसको बर्दाश्त कर सकेंगी?

वित्त मंत्री का एक बयान मैंने पढ़ा कि भारत के उद्योगपति कुछ नया सीखें। 40-45 वर्षों तक इनको बहुत संरक्षण मिला है। अब विदेशी कम्पनियों को यहाँ आने का हम अवसर देंगे, भारतीय कम्पनियों के ऊपर उनको प्रयारटी दी जाएगी, मैं सुनकर हैरान रह गया। 47 वर्ष पहले विदेशी कम्पनियाँ ही हमारे देश में जो कुछ भेजती थीं वह थी। हमने 40-50 वर्ष में जो कुछ बनाया, क्या सब तोड़ दिया जाएगा, क्या सब मिट जाएगा? हमें उनसे कोई बड़ी सहानुभूति नहीं, क्योंकि यह जो हमारे देशी उद्योगपति हैं, जब वित्त मंत्री जी का पहला भाषण हुआ था, आडवाणी जी, आपने भी बहुत सराहा था, हमारे उद्योगपतियों ने हमें बहुत कोसा था। आज आप हाई टैक्नोलोजी की बात कर रहे हैं, आज दुनिया की कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी हाई टैक्नोलाॅजी देने के लिए तैयार नहीं है। हमारे उद्योगपतियों के एक- एक संस्थान को खरीदने के लिए वह पैसा लगाने को तैयार हैं। सब विदेशी हाथों में चला जायेगा, कहते हैं कि क्या फर्क पड़ेगा, सस्ती चीजें, अच्छी चीजें, बहुरंगी चीजें हमारे देश के लोगों को मिलेंगी। हमें इससे तकलीफ होती है। हमें लगता है, अगर भारतीय हैं तो मेरे मन में एक दिलासा होती है, हर चीज विदेशी हो, तो मुझे यह देश सूना- सूना लगेगा, एक मरघट जैसा लगेगा। यह देश मरा हुआ लगेगा। इसलिए मुझे लगता है, हमारे और उनके सोचने में बहुत बड़ा अन्तर है। यही सोचने का अन्तर हमें विवश करता है कि हम बातों को कहें। मैं आपको इत्मीनान दिलाता हूँ, अध्यक्ष महोदय, किसी की अवमानना करने को मेरे मन में दूर की भी भावना नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि भारत का भविष्य अंधेरे में जा रहा है। मैं नहीं जानता कि बहस कहाँ तक चलेगी। अभी वित्त मंत्री जी ने कह दिया कि केन्द्र के साथ ताकत कम करोगे, तो देश टूट जाएगा। राज्यों की बात मत करो। केन्द्र की ताकत राज्य सरकारें कम नहीं कर रही हैं, केन्द्र की ताकत आप कम कर रहे हैं। यहाँ पर केन्द्र में लोगों का विश्वास भी नहीं रहेगा, चाहे राज्य सरकारें आपके हाथ में हों। जनता आपके साथ नहीं रहेगी, तो राज्य सरकारें आपको बचा नहीं सकती हैं। इससे देश को टूटने से आप बचा नहीं सकते हैं। इस देश को टूटने का खतरा आपकी वजह से हो रहा है। देश जब टूटते हैं, तब देश के लोगों का दिल टूट जाता है। देश का दिल इसलिए टूट रहा है, चाहे आप जो कहें, वे यह समझते हैं कि जो आजादी उन्होंने हासिल की थी, जो आत्म-गौरव उन्होंने हासिल किया था, उसको आप दाँव पर रख रहे हैं। हमारे जैसे लोग भी सोचते हैं, जबकि इन सब चीजों से मुझे लेना-देना नहीं है। मैं भी जानता हूँ मेरी बातों का आप पर कोई असर होने वाला नहीं है। लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि जब तक मैं यहाँ पर रहूँगा, मैं अपनी बातों को कहता रहूँगा।

अध्यक्ष महोदय, साइंस एण्ड टेक्नोलाॅजी का आपने भी बड़ा जिक्र किया, दूरगामी सोच होती है। वित्त मंत्री जी ने कहा कि शोध संस्थानों को प्राइवेट कम्पनियाँ चंदा दे सकेंगी, छूट होगी। ऐसा मत सोचिए कि एकतरफा काम होता है। सबका मिला- जुला समन्वित काम होता है। शोध संस्थानों को कौन कंपनियाँ चन्दा दे सकेंगी? यही मल्टीनेशनल्स और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देंगी। हमारे वैज्ञानिक कहाँ जाएंगे? उनके पास सामान नहीं होगा, चाहे जितना भी देश प्रेम उनके पास हो, लेकिन सामान नहीं होगा। शोध की सुविधायें नहीं होंगी। हमारे सारे वैज्ञानिक विदेश जाए बिना ही यहाँ बैठकर विदेशी कंपनियों का काम करने के लिए मजबूर हो जाएंगे। यह हमारे देश की हालत है। आप कहते हैं कि हमारे ऊपर सब्सिडी देने के लिए कोई प्रतिबंध नही लगेगा। प्रतिबंध गैट नहीं लगाता है, गैट का अकेले सोचोगे तो वित्त मंत्री जी, मनमोहन सिंह जी, आप हमें भ्रम में डाल दोगे, लेकिन आपने खुद कहा, गैट और आई एम एफ ने सलाह दी है। एक तरफ सलाह देखो, आई एम एफ द्वारा आपको कहा गया कि फर्टिलाइजर की सब्सिडी कम करो और कहा कि खेती की सब्सिडी कम करो, फूड के ऊपर सब्सिडी कम करो और दूसरी तरफ गैट चलेगा। इस प्रकार चारों तरफ से शिकंजा कसेगा। हमको यह मत बताइए। यहाँ एक दिन एक दस्तावेज दिखाओगे और दूसरे दिन दूसरे दस्तावेज, तो लोग भ्रम में पड़ जायेंगे। इस भ्रम में डालने की कोशिश मत करो। वास्तविकतायें और आर्थिक जीवन की वास्तविकतायें बड़ी कटु हैं और यह कटुता हमारे सामने मुँह बाए खड़ी हुई है। मैं आज भी इस बात को कहूँगा, आप चाहे जो भी सोचिए। इस सवाल पर हमारे जसवंत सिंह और जार्ज फर्नान्डीस ने बहुत बातें कही हैं। जार्ज फर्नान्डीज वेदना की अभिव्यक्ति कर रहे थे। उनके बारे में आपकी जो भी राय हो, लेकिन जो बातें वे कह रहे थे, वे वास्तविकतायें थीं। उन पर ध्यान देने की कोशिश कीजिए। आपके हाथ में सत्ता है, इसलिए हर आदमी को अदना न समझ कर उन बातों को नकारें मत। दूसरे लोगों के दिल में भी देश के लिए प्यार है। दूसरे लोगों के दिल में भी भावनाएँ हैं। यह नहीं कि जो माक्र्सवादी कम्युनिस्ट हो गया, वह देश का दुश्मन हो गया। आप उस गद्दी पर बैठे हुए हैं, इसलिए देशभक्त हैं और हमारे साथ कोई नहीं है।

अध्यक्ष महोदय, इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि आज भयंकर स्थिति मैं देश गुजर रहा है। कल कुछ बातें हमारे लिए कही गयीं, मैं उनको कहना जरूरी नहीं समझता हूँ, लेकिन बार- बार यह कहा जा रहा है, इसलिए मैं कहना जरूरी समझता हूँ। कल कहा गया कि मैं अपने को देशभक्त समझता हूँ, कहाँ का देशभक्त हूँ। एक एशिया के देश पर हमला, विदेशी हवाई जहाजों को उड़ाने की मैंने इजाजत दी थी। मैंने इजाजत दी थी, आज यह नई बात है। उस समय संसद में मैंने कहा था, मैंने इजाजत दी थी। किसकी सलाह से इजाजत दी थी, दो व्यक्ति बैठे हुए हैं-आडवाणी जी और अटल जी- वे जानते हैं। मैं उन बातों का जिक्र नहीं करूंगा, क्योंकि बड़े लोगों के झगड़े का फैसला मुलाजमों की बातों से करना कुछ अच्छा नहीं होता। इसलिए मैं उसको छोड़ देना चाहूँगा वहीं पर।

अध्यक्ष महोदय, माननीय सदस्य सही कहते हैं कि मैंने संसद में बयान देकर कहा था कि मैं पाकिस्तान से आतंकवादियों को बात करने के लिए बुला रहा हूँ, तो मैं उसको सही मानता हूँ। अध्यक्ष महोदय, आज मैं आपसे निवेदन करूंगा, मैं समझता हूँ कि मेरा जवाब सही था। मैंने किसी एशिया के देश पर हमले के लिए नहीं बल्कि एशिया के एक देश पर से अनधिकृत कब्जे को हटाने के लिए विदेशी हवाई जहाजों को यहाँ पर उतरने की इजाजत दी थी और मैं इस चीज को सही मानता हूँ। लेकिन कुछ लोगों ने इस बात पर गुस्सा दिखाया तो हमने 2- 3 दिन के अंदर राष्ट्रपति से कहा कि आप अपने हवाई जहाज यहाँ से ले जाओ, क्योंकि हमारे देश के कुछ लोग इससे नाराज हैं। मैं वाणिज्य मंत्री जी से निवेदन करूंगा कि आप भी हम लोगों की नाराजगी का असर लेकर अमरीका को कह दें कि हम गैट समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करते। आप लोगों की नाराजगी पर हमने दो दिन बाद ही अमेरिका के राष्ट्रपति से कह दिया था कि आप अपने हवाई जहाज यहाँ से वापस ले जाओ, अगर आपके अंदर भी हिम्मत है तो अमेरिका को कह दीजिए कि यह भारत की संसद की आवाज है, भारत के गाँवों और गरीबों की आवाज है, इसलिए हम इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे।

प्रणव जी, आपको क्या हो गया है, मैं 1962 से आपको जानता हूँ, हम और आप बहुत दूर तक साथ चले हैं, मंजिल पर पहुँचने का सपना देखा था, बहुत उतार- चढ़ाव हमने साथ- साथ देखे हैं। मनमोहन सिंह जी का वह शेर याद आता है, उन्होंने कहा था-

हम अकेलेेे ही चले थे जानिबे मंजिलं मगर,लोग आते ही गए और कारवां बनता गया।

लेकिन कारवां से कुछ होने वाला नहीं है। जब लोग तीर्थ यात्रा पर जाते हैं तो बहुत से कुली भी सामान उठाने के लिए जाते हैं, लेकिन वे अपनी मंजिल पर नहीं जाते हैं, इसलिए मजदूर लिए हुए कारवां से काम नहीं चलेगा। अगर कोई शेर ही याद करना है तो यह शेर याद कीजिए-

ढूँढ़नी़ है मंजिलं अगर तो अपना रहनुमा खुद बन,वोे भटक गया हैै अक्सर, जिसकोे सहारा मिल गया।