राष्ट्रपुरुष की कहानी उनकी जुबानी

पत्नी को मिला था माँ जैसा स्वभाव

जून, 1944 में द्विजा जी से मेरा विवाह हुआ। मैं उस समय विवाह नहीं करना चाहता था। मैंने सुना कि मेरी शादी हो रही है। मैंने वहाँ विरोध्ा किया क्योंकि उस समय में बहुत कट्टर आर्यसमाजी था, लेकिन मेरा विरोध्ा माना नहीं गया। मेरे मन में विरोध्ा की भावना जरूर थी लेकिन पिताजी, चाचा या घर के लोगों का विरोध्ा में एक सीमा तक ही कर सकता था। मुझे याद है, मैं पालकी पर चढ़ कर शादी करने गया था। लाल कुर्ता और पीली ध्ाोती पहने हुए था। उन दिनों बरात

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गाँधी जी का नाम 1940 में सुना

उन्हीं दिनों मैं आर्यसमाज के गहरे सम्पर्क में आया। मऊ का आर्यसमाज मन्दिर काफी सजग और सचेत था। आर्यसमाज के लोग राष्ट्रीय आन्दोलन से बहुत गहरे जुड़े हुए थे। वहीं पर मैंने आर्यसमाजियों के साथ पहले पहल प्रभात फेरियाँ निकालीं। राष्ट्रीय भावना के बारे में मैं आर्यसमाज के कारण ही सचेत हुआ। एक और कारण था, 1940 का व्यक्तिगत सत्याग्रह। मेरे गाँव के एक समछबीला सिंह जी मेरे चाचा थे। उन्होंने मेरे दरवाजे पर ही सत्याग्रह किया। उन दि

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पढ़ने के लिए रोज पैदल जाता था दस किलोमीटर

जिन्दगी की पहली घटना जो मुझे याद है, वह सन् 1934 की है। उसी साल भूकम्प आया था। 1934 में सात वर्ष की उम्र में मैं पहली बार स्कूल गया। उसके पहले ननिहाल में था एक मंुशी दयाशंकर जी थें वे मुझे पकड़कर स्कूल ले गए थे। वह जिन्दगी का पहला दृश्य है, जो मुझे याद है। दूसरी घटना भूकम्प से जुड़ी है। मेरे गाँव को भूकम्प का मामूली झटका लगा था। मैं सुनता था कि दूसरी जगहों पर बहुत लोग मरे हैं। मुंशी दयाशंकर मुझे पहली बार जिस स्कूल में ले गए थे वह इब

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माँ के दिए पैसे मीटिंग में हो गए खर्च

लेकिन मेरी माँ ठीक उनके विपरीत थीं। उनका नाम दुरपाती था। वे मेरे पिता की दूसरी पत्नी थीं। मेरी पहली माँ का निध्ान जिस समय हुआ उस समय पिता जी की उम्र सिर्फ 30 साल थी। पहली माँ से मेरे बड़े भाई स्व. रामनगीना सिंह और मेरी बड़ी बहन स्व. मोतिसरी देवी। दूसरी माँ से मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरे बाद मेरी छोटी बहन फुल कुंवरी, उससे छोटे मेरे दो भाई कृपा शंकर सिंह और बद्री नारायण सिंह और सबसे छोटी बहन शकुन्तला। माँ पहले ही चल बसीं, पिताजी भी

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मेरे पिता के लिए रोई थी हरिजन बस्ती

मेरे पिता सदानन्द सिंह जी मुझसे बातचीत कम करते थे, जैसा उन दिनों रिवाज था। वे उग्र स्वभाव के थे, जैसे गाँव के ठाकुर होते हैं। लोग उनसे बहुत घबराते थे। अपने गाँव के ही नहीं, आसपास गाँव के लोग भी। वे हर जगह पंचायत में जाते थे। कोई कुछ गलत बोल दे तो उसको डांट देना या गाली दे देना उनके लिए साध्ाारण-सी बात थी। लेकिन उनमें कुछ ऐसा था जिसकी वजह से लोग उन्हें प्यार भी बहुत करते थे। मऊ के हाईस्कूल में पढ़ते समय की एक घटना मुझे याद है। ए

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हमारे गाँव में एक कोट थी

हमारे गाँव में एक कोट थी। लोग कहते हैं, इस गाँव के अन्दर शुरू में आबादी यहीं आई थी। कोट ऊंचे टीले जैसी थी। यहाँ पर किसी देवता का स्थान था। उसे देखने से ऐसा मालूम पड़ता था कि वह कोट तीन सौ वर्ष पुरानी तो जरूर होगी। गाँव की रक्षा के लिए यह कोट बनाई गई होगी। कोट के चारों ओर गहरी खाई रही होगी। मेरे बचपन में वह गड्ढे में बदल गई थी। मेरे बाबा तीन भाई थे। बचपन में मैंने दो भाइयों को देखा था। सबसे बड़े पलकध्ाारी सिंह थे। बड़े बाबा का न

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विरासत में मिली गुड़- पानी की परम्परा

बलिया जिले का इब्राहिम पट्टी मेरा गाँव है। इस छोटे से गाँव में मेरे पूर्व कहाँ से आये, अब तक यह एक अनजान कहानी है। मैंने इस बात का पता लगाने का प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं मिली। गाँव का नाम इब्राहिम पट्टी कैसे पड़ा, इसका पता मुझे जरूर चला। कोई नवाब था बहुत पहले। उनका एक कारिंदा था, जिसका नाम था इब्राहिम। उसी ने अपने नाम पर गाँव का नाम इब्राहिम पट्टी रख दिया। इब्राहिम पट्टी उन दिनों छोटा सा गाँव था। मेरे बचपन में लगभग यहाँ 5

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